shabd-logo

भाग 24

22 जुलाई 2022

18 बार देखा गया 18

भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के सोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल छलछल!

कभी-कभी लगता है कि ये अलग-अलग दो सोते नहीं है। सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिए या भरोसा। यह न हो तो जीना भी न हो!

यही सोता रघुनाथ का जीवन था! जब अमेरिका से लौटने के बाद सोनल ने उनसे कहा कि पापा, मुझे लग रहा है, संजय वहीं बस जाना चाहता है। इंडिया आएगा तो जरूर लेकिन रहने के लिए नहीं, 'विजिट' के लिए। तो रघुनाथ उस पर व्यंग्य से मुस्कराए थे - कितना जानती हो संजय को? बाप यहाँ, माँ यहाँ, भाई यहाँ, बहन यहाँ, और तो और बीवी यहाँ। कितना जानती हो संजय को? उन्होंने कहा कुछ नहीं, सिर्फ मुसकराए थे - कि उसने बाप की दीनता और दरिद्रता देखी है। उन्हें दुखी और परेशान देख कर कभी-कभी बोलता था कि चिंता न करें, इतना कमाऊँगा - इतना कमाऊँगा कि घर में रखने की जगह नहीं रहेगी। लेकिन कमाने के इस रहस्य को न वे समझ पाए, न सक्सेना! आज उन्हें लग रहा था कि उसने सोनल से शादी सोनल के लिए नहीं, अमेरिका के लिए की थी!

रघुनाथ! जो जिंदगी तुम्हें जीनी थी, वह जी चुके! अब अपनी फजीहत कराने के लिए जी रहे हो!

यह कोई कह नहीं रहा था लेकिन उनके कान सुन रहे थे और यह मूक स्वर उनके दिल तक पहुँच रहा था!

वे भोजन के बाद घर के पिछवाड़े अपने ढाबे में नहीं गए थे उस शाम, ड्राइंग रूम में बैठे रह गए! सारी रात ऐसे ही काट दी - बैठे-बैठे! नींद आई ही नहीं! तरह-तरह की आशंकाएँ आ-जा रही थीं जिनमें सबसे प्रबल यह कि कहीं यह लड़की आवेश में कुछ कर-करा न ले!

यह कहने की जरूरत नहीं और इसमें भी दो राय नहीं कि इस समाचार से उन्हें एक तरह का 'खल सुख' मिला था - कि उससे विवाह करने के पहले तुमने मुझसे पूछा था? तुम्हारे बाप ने तो बात तक करने की जरूरत नहीं महसूस की थी? यहाँ तक कि निमंत्रण भी औपचारिकता के नाते दिया था। अब भुगतो! जो किया है, उसी का दंड मिला है यह। अब रो क्यों रही हो? मैं या दूसरा कोई क्या करेगा इसमें? ... लेकिन यह 'खल सुख' थोड़ी देर के लिए था। ऐसा सोचना उसके प्रति निष्ठुरता और अमानवीयता होती! उस हालत में तो और भी जब उसने अपने व्यवहार से उनका दिल जीत लिया था! ऐसा खयाल ही अपने आप में नीचता था। ऐसे वक्त में उसे हमदर्दी और प्यार चाहिए।

बिजली ड्राइंग रूम में भी जल रही थी और सोनल के कमरे में भी!

रघुनाथ को जरा सी-आहट मिलती तो दबे पाँव जाते और उसके कमरे में झाँक आते कि सब ठीक-ठाक तो है!

रात के डेढ़-दो के करीब सोनल हँसते हुए ड्राइंग रूम में आई - 'पापा, आत्महत्या नहीं करूँगी, निश्चिंत रहिए! जाइए, सो जाइए मम्मी के कमरे में या अपने ढाबे में!'

रघुनाथ शरमा गए - 'मैं इस डर से थोड़े बैठा हूँ भाई! मुझे नींद ही नहीं आ रही है!'

सोनल का ध्यान ड्राइंग रूम में टँगे उस बड़े फोटो पर गया जो उसके विवाह का था। शायद 'रिसेप्शन' के समय का! संजय-सोनल दो ऊँची मखमली - फूलों से सजी - कुर्सियों पर बैठे हैं और दोनों के सिर पर हाथ रखे सक्सेना साहब पीछे खड़े हैं!

'पापा, एक प्रार्थना है आपसे!'

'बोलो!'

'यह बात घर में ही रहे! आप, मम्मी और सरला दीदी के बीच! मेरे पापा को न मालूम हो!'

'क्यों?'

'वे बर्दाश्त न कर पाएँगे! दो बार अटैक हो चुका है उन्हें!'

रघुनाथ कुछ कहना चाहते थे लेकिन चुप रह गए! वे सोनल को बोलने देना चाहते थे - चाहते थे कि उसके मन में जो कुछ है, उड़ेल कर हलकी हो जाए। यही अच्छा है कि वे सिर्फ सुनें!

'पापा, मैं चाहूँ तो उसे कोर्ट में घसीट सकती हूँ, जलील कर सकती हूँ। मैं भाग कर नहीं आई हूँ, उसे छोड़ कर भी नहीं आई हूँ! आई हूँ उसकी रजामंदी से। मैं ही नहीं, वह भी चाहता था कि मैं 'हाउसवाइफ' न रहूँ। नौकरी करूँ और वह भी अपने देश में! और यहाँ आने के बाद भी तुम मीठी-मीठी बातें करते रहे। एक बार भी नहीं बताया कि तुम्हारे मन में क्या है? ऐसा भी नहीं कि मुझे बुलाया हो और मैंने आने से इनकार किया हो।'

'हद है!' सोनल क्रोध से बिफर उठी - 'तुम समझते क्या हो अपने आपको? अरे, तुमने डाइवोर्स के लिए पूछा होता, 'हाँ' कर देती मैं। तुम नहीं देते, कहते तो - मैं दे देती! पूछा तक नहीं, इशारा तक नहीं किया! बगैर डाइवोर्स के शादी कर रहे हो? अपमानित करके मुझे? बिना किसी गलती के, कसूर के? और बेशर्मी यह कि पूछने पर मुसकराते हुए बताते हो कि हाँ, भई! कर ली! करनी पड़ी! मूर्ख समझते हो मुझे? जैसे मैं तुम्हें जानती ही न होऊँ? जैसे तुम्हारी हरकतों से अनजान रही हूँ? मैं तो बच्चू, तुम्हारी खटिया खड़ी कर देती लेकिन क्या बताऊँ? लोग यही समझेंगे कि मैं यह सब गुजारा भत्ता के लिए कर रही हूँ जबकि मैं थूकती हूँ तुम्हारी कमाई पर! ... क्या समय हो रहा है पापा? चार? साढ़े चार? रुकिए, आप को चाय पिला रही हूँ!'

वह उठी और किचेन में चली गई!

ठंड ज्यादा थी! रघुनाथ पाँव समेटे रजाई में लिपटे सोफे पर पड़े थे! उन्हें यह तो अच्छा लग रहा था कि सोनल का मूड बदल गया है लेकिन यह अच्छा नहीं लग रहा था कि वह उनसे ऐसे बात करे जैसे वही संजय हों! गलती उनके बेटे ने की थी लेकिन अपराधबोध से ग्रस्त वे थे! वह भीतर से डरे और सहमे हुए भी थे!

वे कहते किसी से नहीं थे लेकिन गाँव उनके लिए सुरक्षित नहीं रह गया था! बेटों को गाँव गए कई साल हो गए थे। उनकी कोई दिलचस्पी ही नहीं रह गई थी गाँव में! घराने के लोग सनेही को ठीक से काम नहीं करने दे रहे थे! तारीख पहले 'बुक' करने के बावजूद जसवंत उनके खेत तब जोतता जब सबके जुत जाते और यही हाल सिंचाई का था। सनेही के खड़े होने और रोकने के बावजूद उसकी नाली बंद कर पानी पहले अपने खेत में ले जाते थे लोग। उसकी खेती हर बार पिछड़ रही थी! बाहरी आदमी - लोगों से झगड़ा मोल ले कर एक दिन भी टिकना मुश्किल था! रघुनाथ खुद कहते थे हर बार - गम खा जाओ, सह लो, मगर झंझट न करना! दयादों की नजर उनके खेतों पर आ लगी थी - यह बात उनसे छिपी नहीं रही! गाँव जाने पर उनका सम्मान सभी करते थे लेकिन यह 'सम्मान' उन्हें काफी रहस्यपूर्ण लगता था।

नरेश ने अपने घर के आगे उनकी जमीन में खूँटा गाड़ कर भैंस बाँधना फिर शुरू कर दिया था। रघुनाथ देख कर भी अनदेखा करके चल देते थे! कौन रोज-रोज किचकिच करे?

इस बार तो सनेही ने जो सूचना दी, उससे वे और भी हदस गए! एक दिन - उनके गाँव जाने के तीन दिन पहले की बात है यह - मोटरसाइकिल से दो लड़के आए थे उनके दरवाजे। पैंट-शर्ट में। वे उतरे और बरामदे में पड़ी खटिया पर लेट गए! सनेही को बुलवाया, पूछा कि मास्टर रघुनाथ का यही घर है? फिर पूछा - वे कब-कब आते हैं? कितने दिन रहते हैं? कब जाते हैं? शहर में कहाँ रहते हैं - तरह-तरह के प्रश्न! जाते-जाते यह भी कहा कि उनका दिमाग तो ठिकाने है? सनेही ने बताया कि वे अच्छे लड़के नहीं थे! इससे पहले उन्हें कभी देखा नहीं था! जो चुप था और लेटा था उसके शर्ट के नीचे पिस्तौल या रिवाल्वर जैसी चीज थी! सनेही की रिपोर्ट का असर यह हुआ कि उन्होंने झुटपुटा होते ही घर से बाहर निकलना बंद कर दिया था! वे कारण समझने की कोशिश करते रहे थे लेकिन नहीं समझ सके!

शीला की तरह रघुनाथ का भी अजब हाल था! वे यहाँ रहते तो गाँव के लिए चिंतित रहते, वहीं की बातें करते और लौटने का बहाना ढूँढ़ते रहते लेकिन अबकी जैसे संकेत मिले थे, उससे वहाँ के बारे में सोचने से भी डरने लगे थे! अबकी आते वक्त ही उन्होंने तय कर लिया था कि बहुत जरूरी हुआ तो बात दूसरी है, वरना अपने अशोक विहार का ढाबा ही बहुत है! वह बना रहे, उन्हें और कुछ नहीं चाहिए! मगर यहाँ? यहाँ संजय ने उनके लिए एक दूसरी ही समस्या खड़ी कर दी थी! अब वे पूरी तरह से सोनल की मर्जी पर थे। वह चाहे तो रहने दे, चाहे तो निकाल बाहर करे! भई, आप तभी तक मेरे ससुर थे जब तक आप का बेटा मेरा पति था! जब वह पति नहीं, तो आप ससुर कैसे? किस बात के? यह कोई सराय या धर्मशाला है कि पड़े-पड़े रोटी तोड़ रहे हैं? मुफ्त की? चलिए यहाँ से, अपना रास्ता नापिए!

उन्हें भलमनसाहत यही लग रही थी कि वह कुछ कहे, इसके पहले वही कहें कि बेटी, बहुत हो गया, अब आज्ञा दो!

(यह वह समझते थे कि यह कहने का लाभ उन्हीं को मिलेगा। हो सकता है, वह पिघल जाए और मना कर दे)

सोनल चाय ले कर आ गई - दो बड़े मग! एक मग उनके आगे रखते हुए बोली - 'पापा, आपने ऐसा बेटा क्यों पैदा किया जो वह नहीं देखता जो उसके पास है; हमेशा उधर ही देखता है जो दूसरे के पास है - लार टपकाते हुए! पता है, उसने आरती गुर्जर से क्यों की शादी?'

रघुनाथ ने चाय सुड़की! वे किसी और सोच में डूबे थे!

'इसलिए कि वह इकलौती संतान है करोड़पति एन.आर.आई. व्यवसायी की! एक्सपोर्ट-इंपार्ट कंपनी 'आरती इंटरप्राइजेज' के मालिक की!'

'बेटा, हम यह सब नहीं सुनना चाहते! हम सिर्फ इतना चाहते हैं कि अपने पापा को बुला लो और अब मेरी छुट्टी करो।'

'क्या? क्या कहा आपने? जरा फिर तो सुनूँ?' सोनल की आवाज सहसा ऊँची हो गई!

रघुनाथ बिना उसकी ओर देखे चाय सुड़कते रहे! सोनल ने उनके हाथ से मग छीन लिया - 'जी नहीं, कान पकड़िए और कहिए कि ऐसी बात फिर कभी नहीं करूँगा!'

रघुनाथ ने कातर और निरीह आँखों से उसे देखा!

वह रोती हुई रघुनाथ की गोद में लुढ़क गई - 'पापा! संजय ने छोड़ दिया, कोई बात नहीं; आप तो मुझे न छोड़िए!'

29
रचनाएँ
रेहन पर रग्घू
0.0
रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है। भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है। उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है
1

भाग 1

22 जुलाई 2022
2
0
0

जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवा

2

भाग 2

22 जुलाई 2022
0
0
0

पहाड़पुर में रघुनाथ एक ही थे। वैसे कहने को तो रामनाथ, शोभनाथ, छविनाथ, शामनाथ, प्रभुनाथ वगैरह वगैरह भी थे लेकिन वे रघुनाथ नहीं थे। और रघुनाथ का यह था कि वे जब कभी जहाँ कहीं नजर आ जाते, गाँव घर के लोग

3

भाग 3

22 जुलाई 2022
0
0
0

ऐसी मुसीबत में रघुनाथ को किसी और ने नहीं, उन्हीं के बेटों ने डाला था! बेटों में भी संजय ने! खास तौर से संजय ने! और यह लंबी कहानी है - राँची से केलिफोर्निया तक फैली। संजय ने प्यार किया था सोनल को! य

4

भाग 4

22 जुलाई 2022
0
0
0

जुलाई में शादी हो गई चिरंजीवी संजय और आयुष्मती सोनल की - कोर्ट में। न बारात, न बाजा-गाजा! प्रीतिभोज के लिए न्यौता आया था रघुनाथ के नाम भी, पर वे नहीं गए! ऐसी चोट लगी थी रघुनाथ और शीला को जिसे न वे

5

भाग 5

22 जुलाई 2022
0
0
0

सरला दुविधा में थी - ब्याह करे या न करे? पक्का सिर्फ इतना था कि उसे वह शादी नहीं करनी है जो पापा तय करेंगे! कई लोचे थे उसकी दुविधा में! अब से कोई सात आठ साल पहले। उसने अपने अंदर कुछ अजब सा बदलाव मह

6

भाग 6

22 जुलाई 2022
0
0
0

सरला के इस दुःस्वप्न को और भी बदरंग बना दिया था उसकी पड़ोसिनों ने! वह जिस बहुमंजिली इमारत के प्रथम तल के किराए के फ्लैट में रहती थी, उसके अगल बगल भी दो दो छोटे कमरों के फ्लैट थे। उनमें उसी के स्कूल क

7

भाग 7

22 जुलाई 2022
0
0
0

जिस दिन मैनेजर कालेज आए उस दिन रघुनाथ गाजीपुर गए थे - सरला के लिए लड़का देखने! बीसेक रोज बाद फिर मैनेजर कालेज आए, अबकी फिर रघुनाथ बाहर। आजमगढ़ गए थे लड़का देखने। यह पाँचवाँ या छठा साल था! शादी हाथ म

8

भाग 8

22 जुलाई 2022
0
0
0

सरला घर आई - छुट्टी के दिन। रविवार को। पहले वह अकसर आती थी। शनिवार की शाम को आती थी, रविवार को रहती थी और सोमवार को तड़के चली जाती थी! मिर्जापुर से घर की दूरी है ही कितनी? बीच में बनारस में एक बस बदल

9

भाग 9

22 जुलाई 2022
0
0
0

सरला चली तो गई, लेकिन रघुनाथ का सुकून और चैन लिए गई। रघुनाथ कई रातों तक सो नहीं सके! उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी! जाने किन जन्मों का पाप था जो इस जन्म में भोग रहे थे। बच्चों को ऐसे संस्कार कहाँ से म

10

भाग 10

22 जुलाई 2022
0
0
0

काफी समय लग गया रघुनाथ को घर पर रहने की आदत डालने में। वे रहे तो गाँव में ही, लेकिन गाँव के नहीं रहे। गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बँसवार और पोखर क

11

भाग 11

22 जुलाई 2022
0
0
0

रात घिर आई थी। गाँव में सन्नाटा पसरा था। हलकी-हलकी झीसियाँ पड़ रही थीं! सिवान मेढकों की टर्र-टर्र और झींगुरों के झन्न्‌-झन्न्‌ से गूँज रहा था। ट्रैक्टर के काम शुरू कर देने के बावजूद ठाकुर हारा हुआ मह

12

भाग 12

22 जुलाई 2022
0
0
0

पहलवान माने छब्बू पहलवान। पहाड़पुर के ही दक्खिनी हिस्से में घर था बजरंगी सिंह का। वे छब्बू पहलवान के नाम से जाने जाते थे इलाके में। गाँव का नाम दूर-दूर तक रोशन किया था उन्होंने! दंगलों में जहाँ-जहाँ

13

भाग 13

22 जुलाई 2022
0
0
0

छब्बू के मारे जाने का सदमा जिसे सबसे ज्यादा था, वह रघुनाथ थे! जाने क्या था कि छब्बू जब कभी बगीचे की तरफ आते, नहर या अखाड़े पर आते या अपनी भैंस के साथ उत्तरी सिवान में आते - रघुनाथ के दुआर को जरूर देख

14

भाग 14

22 जुलाई 2022
0
0
0

रघुनाथ दालान में करवट लेटे थे! 'नहीं-नहीं' करने के बावजूद शीला कमर की उभरी हुई हड्डी के आसपास हल्दी प्याज चूना का घोल छोप रही थी! और मुँह के अंदर ही अंदर कुछ बुदबुदाती भी जा रही थी नाक सुड़कते हुए।

15

भाग 15

22 जुलाई 2022
0
0
0

इन्हीं दिनों रघुनाथ को एक इलहाम हुआ। कि 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी; भले आदमी का मतलब है 'कायर' आदमी। जब कोई आपको 'विद्वान' कहे तो उसका अर्थ 'मूर्ख' समझिए, और जब कोई 'सम्मानित' कहे तो 'दयनीय

16

भाग 16

22 जुलाई 2022
0
0
0

घर में फोन अब जी का जंजाल हो गया था! जब रघुनाथ ने कनेक्शन लिया था तो राजू की जिद पर - कि संजू अमेरिका से जब बात करना चाहेगा तो कैसे करेगा? कोई संदेश ही देना हो तो? भाभी ही मम्मी से कुछ बोलना या पूछना

17

भाग 17

22 जुलाई 2022
0
0
0

रघुनाथ ने कहा था पाँच दिन लेकिन लग गए पचास दिन! इसमें उनका कोई दोष नहीं था। सोचा था कि जब जाना ही है तो यहाँ की सारी समस्याएँ निपटा कर जाएँ, यह न हो कि रहें वहाँ और मन लगा रहे यहाँ! बहुत सोच-विचार क

18

भाग 18

22 जुलाई 2022
0
0
0

वह घर जिसे राँची के प्रोफेसर राजीव सक्सेना ने रिटायर होने के बाद अपने रहने के लिए बनारस में बनवाया था और जिसे अपनी बेटी सोनल के नाम कर दिया था, वह 'अशोक विहार' में था। बनारस में मुहल्ले थे, नगर, विहा

19

भाग 19

22 जुलाई 2022
0
0
0

इसी छोटे से-अशोक विहार के लेन नं. 4 के डी-1 में अमेरिका से आई सोनल सक्सेना रघुवंशी। तीन साल बाद। उसके डैडी आए थे सोनल की 'सैंट्रो' पहुँचाने और विश्वविद्यालय में ज्वाइन कराने। इतना ही नहीं किया उन्हो

20

भाग 20

22 जुलाई 2022
0
0
0

शीला को सोनल ने वह मान-सम्मान दिया जो कोई बहू क्या देगी अपनी सास को? सुबह-शाम 'मम्मी', दोपहर-रात 'मम्मी', घर में 'मम्मी' बाहर 'मम्मी' - बस हर तरफ मम्मी की गूँज! जब कि शीला सोनल के साथ आई थी लोकलाज के

21

भाग 21

22 जुलाई 2022
0
0
0

शीला सोनल के आग्रह पर तब तक रुकी रही जब तक खाना बनानेवाली नौकरानी की व्यवस्था नहीं हो गई। जिस दिन शीला गई, उसी दिन सोनल ने गेट और घर की तालियों के 'डुप्लिकेट' बनवाए और उन्हें रघुनाथ को दे दिया। दोपहर

22

भाग 22

22 जुलाई 2022
0
0
0

>रघुनाथ जब भी शाम को घूमते, टहलते या मिलने-जुलने बाहर जाते थे, कोशिश करते थे कि नौ बजे तक लौट आएँ! रात का खाना वे हमेशा सोनल के साथ खाते थे। यह सोनल की जिद थी! दोपहर को ऐसा तभी संभव हो पाता था जब उसकी

23

भाग 23

22 जुलाई 2022
0
0
0

रघुनाथ गाँव से लौटे लेकिन 'खुदगर्ज और कृतघ्न' बेटे के जाने के बाद! यह उनकी राय थी अपने छोटे बेटे धनंजय के बारे में। उसे पता था कि इसी नगर के 'अशोक विहार' में उसकी भाभी के साथ बाप भी रहता है लेकिन ठहर

24

भाग 24

22 जुलाई 2022
0
0
0

भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के सोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल छलछल! कभी-कभी लगता है कि ये अलग-अलग दो सोते नहीं है। सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिए या भरोसा। यह न ह

25

भाग 25

22 जुलाई 2022
0
0
0

रघुनाथ अपने जीवन की लंबाई नापते थे अपने पैरों से - उसकी चाल और ताकत से; फेफड़ों में आती-जाती साँसों से। एक समय था जब वे पंद्रह-सोलह मील चले जाते थे ननिहाल। धूप में! बिना थके, बिना कहीं बैठे - और तरोता

26

भाग 26

22 जुलाई 2022
0
0
0

जीवनाथ वर्मा जाते-जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो! यह वह बात थी जो कभी उनके अपने दिमाग में ही नहीं आई! अपनों से अलग भी अपना कुछ होता ह

27

भाग 27

22 जुलाई 2022
0
0
0

जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की-दरवा

28

भाग 28

22 जुलाई 2022
0
0
0

रघुनाथ को कुछ पता नहीं कि वे अपने कमरे में कैसे पहुँचे ? कौन ले गया? कब ले गया? कैसे ले गया? कपड़े किसने उतारे? बदन किसने पोंछा और तीस साल पुराना खादी आश्रमवाला वह गाउन या ओवरकोट किसने पहनाया जिसके रो

29

भाग 29

22 जुलाई 2022
0
0
0

ज्यादा नहीं, हफ्ते दस दिन लगे सोनल को इस घर के एकांत और सन्नाटे के हिसाब से खुद को ढालने में! और जब ढल गई तब मजा आने लगा! अपने 'अकेलेपन' को एंज्वाय करने लगी। वह डेढ़-दो बिस्वे की रियासत की रानी थी -

---

किताब पढ़िए