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भाग 23

22 जुलाई 2022

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रघुनाथ गाँव से लौटे लेकिन 'खुदगर्ज और कृतघ्न' बेटे के जाने के बाद!

यह उनकी राय थी अपने छोटे बेटे धनंजय के बारे में। उसे पता था कि इसी नगर के 'अशोक विहार' में उसकी भाभी के साथ बाप भी रहता है लेकिन ठहरा होटल में। माना कि साथ औरत थी - 'काशी दर्शन' के लिए आई होगी कि यह लड़के का गृहनगर है, आसानी होगी। करना यह था कि उसे होटल में ठहरा के तुम अपने घर आ जाते, यहीं रुकते लेकिन नहीं। रघुनाथ नाराज हुए, उन्हें दुःख भी हुआ। ये बातें वे बहू से नहीं कह सकते थे! दूसरी बात थी बाप का 'इगो'! देखना चाहते थे कि जो बेटा दिल्ली से बनारस आ सकता है, वह बाप से भेंट करने के लिए बनारस से डेढ़-दो घंटे दूर पहाड़पुर आ सकता है या नहीं!

शिकायतें तो उन्हें अपने बड़े बेटे संजय से भी थीं लेकिन परदेस की दूरी और उसके 'अकेले' पड़ जाने की कल्पना ने उनकी कठोरता को कम कर रखा था! वह ऐसे देश में था जहाँ माँ नहीं, पिता नहीं, पत्नी नहीं। उसकी क्या हालत होती होगी, ऐसे में - जब इनके लिए हूक उठती होगी! वे भूले नहीं थे कि अपने मन से विवाह करने के बावजूद उसने पिता की जरूरतों को याद रखा था! यही नहीं, वह जो डी-1 अशोक विहार में इतने दिनों से चैन की बंशी बजा रहे हैं और खटिया तोड़ रहे हैं - उसी के चलते! उसे उनकी एक और एकमात्र इच्छा की भी जानकारी है - एक तरह से पिता की अंतिम इच्छा कि वे आखिरी साँस पहाड़पुर में बने नए घर में छोड़ें! उन्होंने गाँव के पी.सी.ओ. से शुरू में दो-चार बार फोन कर के याद भी दिलाया कि कुछ भेजो, जितना बन पड़े उतना ही सही, कम से कम ढाँचा तो अपने रहते खड़ा कर दें। उसने भी आरंभ में उत्साह दिखाया लेकिन आखिरी बार झल्ला कर कहा कि रुपए क्यों बरबाद करने पर तुले हुए हैं, उसके सदुपयोग के बारे में सोचिए! उसके बाद से ही रघुनाथ रूठ गए! न इन्होंने फिर फोन किया, न उसने बात की!

सोनल जरूर बातें करती है - कंप्यूटर के आगे बैठ कर, कान में ईयर फोन लगा कर। महीने में कभी एक बार, कभी दो बार! रघुनाथ से भी कहती है कि पापा, आ जाएँ। आप भी बतिया लें! लेकिन जब संजय ही नहीं कहता तो सोनल के कहने और चाहने से क्या? इस तरह उनका रूठा रहना जारी है - वही बाप का 'इगो'! इतना जरूर है कि जब कभी संजय का फोन आता है - जो कम ही आता है, वे बुलाए जाने का इंतजार करते हैं जिसकी नौबत कभी नहीं आई!

संजय एक बार बोल गया था - झटके में। तब उसका भाई भी उसके साथ था। वह राँची में पढ़ रहा था उन दिनों! रघुनाथ मास्टर आदमी! किसी प्रसंग में 'कृतज्ञता' का मतलब समझा रहे थे उन्हें कि कोई तुम्हारे लिए जरा-सा भी कुछ करता है तो उसे भूलो मत, याद रखो और अवसर मिले तो उसके लिए जो कुछ कर सकते हो, करो। इसी जन्म में उऋण हो जाओ। इससे बड़ा सुख दूसरा नहीं! जब रघुनाथ चुप हो गए तो संजय बोला था - 'पापा, इसका तो मतलब हुआ कि तुम जहाँ हो, वहीं खड़े रह जाओ! बार-बार पलट कर देखोगे तो आगे कब बढ़ोगे? आप कृतज्ञ होने के लिए कह रहे हैं कि पैरों में बेड़ी पहनने के लिए!...' यह बात आई-गई हो गई लेकिन रघुनाथ के दिमाग से गई नहीं!

रघुनाथ भी चाहते थे कि बेटे आगे बढ़ें! वे खेत और मकान नहीं हैं कि अपनी जगह ही न छोड़ें! लेकिन यह भी चाहते थे कि ऐसा भी मौका आए जब सब एक साथ हों, एक जगह हों - आपस में हँसे-गाएँ, लड़ें-झगड़ें, हा-हा हू-हू करें, खायें-पिएँ, घर का सन्नाटा टूटे। मगर कई साल हो रहे हैं और कोई कहीं है, कोई कहीं। और बेटे आगे बढ़ते हुए इतने आगे चले गए हैं कि वहाँ से पीछे देखें भी तो न बाप नजर आएगा, न माँ!

कभी-कभी उन्हें लगता कि वे बापट की तरह बेऔलाद होते तो कहीं ज्यादा अच्छा होता। वे भी उनकी तरह दारू छान कर गाते हुए मस्त रहते!

गाँव से लौटने के बाद उन्होंने बहू से धनंजय के बारे में कुछ नहीं पूछा! बहू खुद ही उदास और बीमार लग रही थी! यह सोच कर कि 'औरतों को बहुत-सी ऐसी बीमारियाँ होती हैं जिनके बारे में न पूछना ही ठीक।' चुप लगा गए!

उनके बीच बातें होती थीं रात को खाने की मेज पर। रघुनाथ गाँव की स्मृतियों में जीते रहते थे, वे वहीं की बातें करते थे, बहू विश्वविद्यालय की, अपने विभाग की, लड़के-लड़कियों की, प्रशासन की। उसको अन्यमनस्क देख कर रघुनाथ ने ही शुरू किया पहाड़पुर में होनेवाले 'ग्रामसभा' चुनाव को ले कर - 'समझो, ऐसे वक्त पर गया था जब गहमागहमी थी चुनाव की। पहाड़पुर की ग्राम सभा है आरक्षित कोटे की! लड़ते हैं दलित जबकि निर्णायक होते हैं ठाकुर वोट जिनकी संख्या है साठ! ये साठ वोट जिसे चाहें उसे सभापति या प्रधान बना दें। खड़े हैं सोमारू राम और मगरू राम - मैं जिस दिन पहुँचा, उसी दिन शाम को ठाकुरों की बटोर थी बब्बन कक्का के यहाँ! तय हुआ कि यही मौका है जब वे पकड़ में आए हैं और यही मौका है बदला लेने का! जितना ऐंठना हो, ऐंठ लो वरना फिर हाथ नहीं आनेवाले! विचार हुआ कि दुनिया और देश इक्कीसवीं सदी में चला गया है और पहाड़पुर में मंदिर ही नहीं, जल चढ़ाने के लिए बस महादेव की पिंडी है! मंदिर बनवाने के लिए मतदान से पहले ही उनसे पैसे ले लिए जाएँ। कहा जाए कि जो एक लाख देगा, वोट उसी को दिए जाएँगे!

'अगर इसके लिए दोनों ही तैयार हों तब?' किसी ने बीच में टोका!

इस पर दो मत सामने आए! एक ग्रुप का कहना था कि ऐसी हालत में बोली बढ़ाते जाइए। एक का डेढ़, डेढ़ का दो - ऐसे। जो अधिकतम दे, वोट उसे दिये जाएँ! दूसरे ग्रुप का कहना था कि नहीं! यह मोल भाव है, नीलामी जैसी चीज है, अपनी जबान से पलटना है, हमारी प्रतिष्ठा और मर्यादा के अनुकूल नहीं है! दोनों से ही एक-एक लाख ले लिया जाए और वोट आधे-आधे बाँट दें! तीस एक को, तीस दूसरे को! बताया दोनों को न जाए। वे मान कर चलें कि साठों हमीं को जा रहे हैं!

नई पीढ़ी इन दोनों से असहमत थी! उसका कहना था कि आप लोग अपने मंदिर और महादेव को ले कर चाटिए, हमें हमारी दारू और मुर्गा चाहिए!

रघुनाथ को यह सब सुनाते हुए मजा आ रहा था लेकिन वे देख रहे थे कि सोनल न तो सुन रही है, न रस ले रही है। उसका मन कहीं और है। खाना खा चुकने के बाद जब वे हाथ धो कर आए तो देखा कि सोनल अपने बिस्तर पर औंधे मुँह पड़ी है और सुबक रही है। रघुनाथ उसके कमरे में खड़े हो कर कुछ देर समझने की कोशिश करते रहे - 'बेटा सोनल, क्या बात है?'

सोनल फफक पड़ी।

'बेटा, बोल तो सही, बात क्या है?' रघुनाथ ने खुद को सँभालते हुए पूछा!

'संजय ने दूसरी शादी कर ली, पापा!' सोनल ने हिचकियों के बीच कहा - 'मैंने कल फोन पर बात की, तब बोला। कम से कम मुझसे पूछ तो लिया होता!'

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रचनाएँ
रेहन पर रग्घू
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रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है। भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है। उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है
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भाग 1

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवा

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भाग 2

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पहाड़पुर में रघुनाथ एक ही थे। वैसे कहने को तो रामनाथ, शोभनाथ, छविनाथ, शामनाथ, प्रभुनाथ वगैरह वगैरह भी थे लेकिन वे रघुनाथ नहीं थे। और रघुनाथ का यह था कि वे जब कभी जहाँ कहीं नजर आ जाते, गाँव घर के लोग

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भाग 3

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ऐसी मुसीबत में रघुनाथ को किसी और ने नहीं, उन्हीं के बेटों ने डाला था! बेटों में भी संजय ने! खास तौर से संजय ने! और यह लंबी कहानी है - राँची से केलिफोर्निया तक फैली। संजय ने प्यार किया था सोनल को! य

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भाग 4

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जुलाई में शादी हो गई चिरंजीवी संजय और आयुष्मती सोनल की - कोर्ट में। न बारात, न बाजा-गाजा! प्रीतिभोज के लिए न्यौता आया था रघुनाथ के नाम भी, पर वे नहीं गए! ऐसी चोट लगी थी रघुनाथ और शीला को जिसे न वे

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भाग 5

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सरला दुविधा में थी - ब्याह करे या न करे? पक्का सिर्फ इतना था कि उसे वह शादी नहीं करनी है जो पापा तय करेंगे! कई लोचे थे उसकी दुविधा में! अब से कोई सात आठ साल पहले। उसने अपने अंदर कुछ अजब सा बदलाव मह

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भाग 6

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सरला के इस दुःस्वप्न को और भी बदरंग बना दिया था उसकी पड़ोसिनों ने! वह जिस बहुमंजिली इमारत के प्रथम तल के किराए के फ्लैट में रहती थी, उसके अगल बगल भी दो दो छोटे कमरों के फ्लैट थे। उनमें उसी के स्कूल क

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भाग 7

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जिस दिन मैनेजर कालेज आए उस दिन रघुनाथ गाजीपुर गए थे - सरला के लिए लड़का देखने! बीसेक रोज बाद फिर मैनेजर कालेज आए, अबकी फिर रघुनाथ बाहर। आजमगढ़ गए थे लड़का देखने। यह पाँचवाँ या छठा साल था! शादी हाथ म

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भाग 8

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सरला घर आई - छुट्टी के दिन। रविवार को। पहले वह अकसर आती थी। शनिवार की शाम को आती थी, रविवार को रहती थी और सोमवार को तड़के चली जाती थी! मिर्जापुर से घर की दूरी है ही कितनी? बीच में बनारस में एक बस बदल

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भाग 9

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सरला चली तो गई, लेकिन रघुनाथ का सुकून और चैन लिए गई। रघुनाथ कई रातों तक सो नहीं सके! उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी! जाने किन जन्मों का पाप था जो इस जन्म में भोग रहे थे। बच्चों को ऐसे संस्कार कहाँ से म

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भाग 10

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काफी समय लग गया रघुनाथ को घर पर रहने की आदत डालने में। वे रहे तो गाँव में ही, लेकिन गाँव के नहीं रहे। गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बँसवार और पोखर क

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भाग 11

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रात घिर आई थी। गाँव में सन्नाटा पसरा था। हलकी-हलकी झीसियाँ पड़ रही थीं! सिवान मेढकों की टर्र-टर्र और झींगुरों के झन्न्‌-झन्न्‌ से गूँज रहा था। ट्रैक्टर के काम शुरू कर देने के बावजूद ठाकुर हारा हुआ मह

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भाग 12

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पहलवान माने छब्बू पहलवान। पहाड़पुर के ही दक्खिनी हिस्से में घर था बजरंगी सिंह का। वे छब्बू पहलवान के नाम से जाने जाते थे इलाके में। गाँव का नाम दूर-दूर तक रोशन किया था उन्होंने! दंगलों में जहाँ-जहाँ

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भाग 13

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छब्बू के मारे जाने का सदमा जिसे सबसे ज्यादा था, वह रघुनाथ थे! जाने क्या था कि छब्बू जब कभी बगीचे की तरफ आते, नहर या अखाड़े पर आते या अपनी भैंस के साथ उत्तरी सिवान में आते - रघुनाथ के दुआर को जरूर देख

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रघुनाथ दालान में करवट लेटे थे! 'नहीं-नहीं' करने के बावजूद शीला कमर की उभरी हुई हड्डी के आसपास हल्दी प्याज चूना का घोल छोप रही थी! और मुँह के अंदर ही अंदर कुछ बुदबुदाती भी जा रही थी नाक सुड़कते हुए।

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इन्हीं दिनों रघुनाथ को एक इलहाम हुआ। कि 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी; भले आदमी का मतलब है 'कायर' आदमी। जब कोई आपको 'विद्वान' कहे तो उसका अर्थ 'मूर्ख' समझिए, और जब कोई 'सम्मानित' कहे तो 'दयनीय

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घर में फोन अब जी का जंजाल हो गया था! जब रघुनाथ ने कनेक्शन लिया था तो राजू की जिद पर - कि संजू अमेरिका से जब बात करना चाहेगा तो कैसे करेगा? कोई संदेश ही देना हो तो? भाभी ही मम्मी से कुछ बोलना या पूछना

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भाग 17

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रघुनाथ ने कहा था पाँच दिन लेकिन लग गए पचास दिन! इसमें उनका कोई दोष नहीं था। सोचा था कि जब जाना ही है तो यहाँ की सारी समस्याएँ निपटा कर जाएँ, यह न हो कि रहें वहाँ और मन लगा रहे यहाँ! बहुत सोच-विचार क

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वह घर जिसे राँची के प्रोफेसर राजीव सक्सेना ने रिटायर होने के बाद अपने रहने के लिए बनारस में बनवाया था और जिसे अपनी बेटी सोनल के नाम कर दिया था, वह 'अशोक विहार' में था। बनारस में मुहल्ले थे, नगर, विहा

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इसी छोटे से-अशोक विहार के लेन नं. 4 के डी-1 में अमेरिका से आई सोनल सक्सेना रघुवंशी। तीन साल बाद। उसके डैडी आए थे सोनल की 'सैंट्रो' पहुँचाने और विश्वविद्यालय में ज्वाइन कराने। इतना ही नहीं किया उन्हो

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भाग 20

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शीला को सोनल ने वह मान-सम्मान दिया जो कोई बहू क्या देगी अपनी सास को? सुबह-शाम 'मम्मी', दोपहर-रात 'मम्मी', घर में 'मम्मी' बाहर 'मम्मी' - बस हर तरफ मम्मी की गूँज! जब कि शीला सोनल के साथ आई थी लोकलाज के

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शीला सोनल के आग्रह पर तब तक रुकी रही जब तक खाना बनानेवाली नौकरानी की व्यवस्था नहीं हो गई। जिस दिन शीला गई, उसी दिन सोनल ने गेट और घर की तालियों के 'डुप्लिकेट' बनवाए और उन्हें रघुनाथ को दे दिया। दोपहर

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भाग 22

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>रघुनाथ जब भी शाम को घूमते, टहलते या मिलने-जुलने बाहर जाते थे, कोशिश करते थे कि नौ बजे तक लौट आएँ! रात का खाना वे हमेशा सोनल के साथ खाते थे। यह सोनल की जिद थी! दोपहर को ऐसा तभी संभव हो पाता था जब उसकी

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रघुनाथ गाँव से लौटे लेकिन 'खुदगर्ज और कृतघ्न' बेटे के जाने के बाद! यह उनकी राय थी अपने छोटे बेटे धनंजय के बारे में। उसे पता था कि इसी नगर के 'अशोक विहार' में उसकी भाभी के साथ बाप भी रहता है लेकिन ठहर

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भाग 24

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भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के सोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल छलछल! कभी-कभी लगता है कि ये अलग-अलग दो सोते नहीं है। सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिए या भरोसा। यह न ह

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रघुनाथ अपने जीवन की लंबाई नापते थे अपने पैरों से - उसकी चाल और ताकत से; फेफड़ों में आती-जाती साँसों से। एक समय था जब वे पंद्रह-सोलह मील चले जाते थे ननिहाल। धूप में! बिना थके, बिना कहीं बैठे - और तरोता

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भाग 26

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जीवनाथ वर्मा जाते-जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो! यह वह बात थी जो कभी उनके अपने दिमाग में ही नहीं आई! अपनों से अलग भी अपना कुछ होता ह

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की-दरवा

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भाग 28

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रघुनाथ को कुछ पता नहीं कि वे अपने कमरे में कैसे पहुँचे ? कौन ले गया? कब ले गया? कैसे ले गया? कपड़े किसने उतारे? बदन किसने पोंछा और तीस साल पुराना खादी आश्रमवाला वह गाउन या ओवरकोट किसने पहनाया जिसके रो

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ज्यादा नहीं, हफ्ते दस दिन लगे सोनल को इस घर के एकांत और सन्नाटे के हिसाब से खुद को ढालने में! और जब ढल गई तब मजा आने लगा! अपने 'अकेलेपन' को एंज्वाय करने लगी। वह डेढ़-दो बिस्वे की रियासत की रानी थी -

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