पहाड़पुर में रघुनाथ एक ही थे।
वैसे कहने को तो रामनाथ, शोभनाथ, छविनाथ, शामनाथ, प्रभुनाथ वगैरह वगैरह भी थे लेकिन वे रघुनाथ नहीं थे।
और रघुनाथ का यह था कि वे जब कभी जहाँ कहीं नजर आ जाते, गाँव घर के लोग जल भुन कर एक ठंडी आह भरते - वाह! क्या किस्मत पायी है पट्ठे ने!
रघुनाथ पहाड़पुर गाँव के अकेले लिखे पढ़े आदमी। डिग्री कालेज में अध्यापक। दुबले पतले लंबे छरहरे बदन के मालिक। शुरू के दस वर्षों तक साइकिल से आते जाते थे, बाद में स्कूटर से। पिछली सीट पर कभी बेटी बैठती थी, बाद के दिनों में बेटे। कभी एक, कभी दोनों। आखिर पाँच छह मील का मामला था।
हर सुखी और सफल आदमी की तरह रघुनाथ ने भी अपने जीने, आगे बढ़ने और ऊँचाइयाँ छूने के कुछ नुस्खे ईजाद कर लिए थे! सच पूछिए तो उन्होंने ईजाद नहीं किए थे, उनकी प्रकृति में ही थे, बस वे समझ गए थे और उन्हें अपने नित्य व्यवहार का अंग बना लिया था। वे पतले और लंबे थे, इसलिए थोड़ा झुक कर चलते थे। कहीं आते जाते समय, किसी से मिलते जुलते बोलते बतियाते समय थोड़ा झुके रहते थे। पहली बार उन्होंने अपने संदर्भ में किसी दूसरे से बात करते समय प्रिसिपल साहब के मुँह से 'विनम्रता' शब्द सुना। ऐसा उनकी प्रशंसा में कहा गया था। जिस झुके रहने पर वे शर्म महसूस करते थे, वही उनकी खूबी है - यह नया बोध हुआ। इसमें उन्होंने आगे चल कर दो खूबियाँ और जोड़ दीं - मुसकान और सहमति। कोई कुछ कहे, वे मुसकराते रहते थे और समर्थन में सिर हिलाते रहते थे। यह तभी संभव है जब आप अपनी तरफ से कम से कम बोलें।
इस तरह रघुनाथ ने विनम्रता, मितभाषिता और मुसकान के साथ जीवन की यात्रा शुरू की थी।
और इसे संयोग ही कहिए कि वे कभी असफल नहीं रहे! इसी संयोग को दूसरे 'किस्मत' कहा करते थे! और इस पर विश्वास कर लिया था रघुनाथ ने भी!
हुआ यह कि एक बार वे कालेज से साइकिल से घर लौटने को हुए तो पाया - चेन टूट गई है। उन्होंने साइकिल कालेज में ही छोड़ दी और पैदल चल पड़े। गर्मी का मौसम, धूप तेज, हवा का नाम नहीं, बदन पसीने से तर-ब-तर। रास्ते में कहीं पेड़ पालो नहीं। आकाश में बादल थे लेकिन दूर। उनके मन ने कहा - काश! वे बादल उनके सिर के ऊपर होते छाते की तरह। और देखिए, एक फर्लांग ही आए होंगे कि बादल सचमुच उनके सिर के ऊपर। और यही नहीं, वे उनके साथ साथ छाया किए हुए गाँव तक आए!
अगले दिन ने यह साबित कर दिया कि वह मात्रा भ्रम नहीं था। वे क्लास लेने के लिए रजिस्टर ले कर जैसे ही चले, वैसे ही ध्यान गया कि कलम नहीं है। या तो घर छूट गई या रास्ते में गिर गई। वे अभी क्लास में पहुँचे भी नहीं थे कि सामने घास में गिरी एक कलम दिखी - धूप में चमकती हुई।
ऐसी बातें औरों के साथ भी होती होंगी लेकिन जाने क्यों, उन्हें लगने लगा कि दीनदयालु परमपिता की उन पर विशेष कृपा है। वह उनकी हर सुविधा असुविधा का ध्यान रखते हैं। इसीलिए वे जो चाहते हैं, वह देर सबेर हो कर रहता है।
और देखिए कि उन्होंने जब जब चाहा, जो जो चाहा सब होता गया।
उन्हें कुछ करना नहीं पड़ा, अपने आप होता गया।
पढ़ाई खत्म करने के बाद रघुनाथ रिसर्च कर रहे थे और उनका मन नहीं लग रहा था। आिरर कब तक करते रहेंगे रिसर्च? कहीं नौकरी मिल जाती तो जान बचती!
और बहुत दिन नहीं बीते कि नौकरी मिल गई।
इसका श्रेय उन्होंने हाल में जनमी अपनी बेटी को दिया। बेटी लक्ष्मी होती है। वही अपने साथ और अपने लिए उनकी नौकरी ले कर आई थी। लेकिन अब इसके बाद एक बेटा चाहिए। यह उन्होंने नहीं, उनके दिल ने कहा।
और देखिए, चार साल बाद बेटा भी आ गया। उसके बाद एक और बेटा - बस!
इस तरह एक बेटी, दो बेटे, शीला और रघुनाथ - सब मिला कर पाँच जनों का परिवार। छोटा परिवार, सुखी परिवार! परिवार सुखी रहा हो या न रहा हो - रघुनाथ सुखी नहीं थे। जिंदगी उनके लिए पहाड़पुर की धूल धक्कड़ और हँसी खेल नहीं थी। पैदा ही होना था तो स्वयं कीड़े मकोड़े की योनि में क्यों नहीं पैदा हुए? वे वहाँ भी पैदा हो सकते थे लेकिन नहीं, ईश्वर ने यदि उन्हें ऋषियों मुनियों के लिए दुर्लभ योनि में पैदा किया है तो इसके पीछे उसका कोई मकसद रहा होगा - कि जाओ, साठ सत्तर साल का मौका देते हैं तुम्हें; जाओ, धरती को सुंदर और सुखी बनाओ। धरती सुंदर और सुखी तभी होगी जब तुम्हारे बच्चे सुखी, सुंदर और संपन्न होंगे। तुम्हें जो बनना था, वह तो बन चुके; अब बच्चे हैं जिनके आगे सारी जिंदगी और दुनिया पड़ी है। वही तुम्हारे भी भविष्य हैं। जियो तो उन्हीं की जिंदगी, मरो तो उन्हीं की जिंदगी।
और रघुनाथ ने यही किया। उनकी सारी शक्ति और सारी बुद्धि और सारी पूँजी उन्हें ही सँवारने में लगी रही!
उन्होंने चाहा - सरला पढ़ लिख कर नौकरी करे।
सरला पढ़ लिख कर नौकरी करने लगी।
उन्होंने चाहा - संजय साफ्टवेयर इंजीनियर बने।
संजय साफ्टवेयर इंजीनियर ही नहीं बना, अमेरिका पहुँच गया!
उन्होंने चाहा - मैनेजर समधी बनें!
संजय ने यह नहीं चाहा! उसने वह किया जो उसने चाहा!
रघुनाथ का चाहा रह गया। दयानिधान कोई मदद नहीं कर सके उनकी! उन्हें अफसोस इस बात का था कि मैनेजर ने इसे बाप बेटे की मिलीभगत समझा था! वे काफी मानसिक तनाव में चल रहे थे। लेकिन कालेज के उनके सहयोगियों ने उन्हें बधाइयाँ दे कर राहत पहुँचाई - कि अच्छा हुआ, एक अंधी खाई में गिरने से बच गए! इसमें प्रिंसिपल का रोल और अच्छा था। उसने लगभग तीस साल पहले रघुनाथ के साथ ही ज्वाइन किया था कालेज! दोनों का याराना-सा था! जब भी मिलते, हँसी मजाक और हाहा हूहू करते! उसने एक दिन धीरे से कहा - 'रघुनाथ, मुझे आश्चर्य है कि इतनी-सी बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आई? वह तुम्हारी ही बेटी के बदले तुम्हारे बेटे को खरीद रहा था!'
इस तरह रघुनाथ सहज हो ही रहे थे कि एक दिन घर पर उन्हें प्रिंसिपल के हस्ताक्षर से नोटिस मिली। आरोप दो थे - 'नेग्लिजेंस ऑफ ड्यूटी' और 'इनसबॉर्डिनेशन'! ऐसा कोई संकेत अपनी बातों में नहीं दिया था उसने। पहले कभी!
ये दोनों आरोप निराधार! इसे रघुनाथ ही नहीं, सहयोगी भी जानते थे और प्रिंसिपल भी। सबकी सहानुभूति उनके साथ थी, लेकिन साथ देने को कोई तैयार नहीं था! उन्होंने उत्तर दे दिया था मगर जानते थे कि इससे कोई लाभ नहीं। वे बदहवास-से यहाँ से वहाँ दौड़ते रहे। आजिज आ कर प्रिंसिपल से मिले और उससे सलाह माँगी। उसने कहा - 'देखो रघुनाथ, चाहे तुम जितनी दौड़ धूप करो, निलंबन का मन बना चुका है मैनेजर! उसकी शक्ति और पहुँच को जानते हो तुम! इसके बाद तुम कचहरी जाओगे, मुकदमा लड़ोगे, वह कब तक चलेगा कोई नहीं जानता। हो सकता है, फैसला होने के पहले ही तुम मर जाओ! हाँ, जब तक मुकदमा चलेगा, तब तक पेंशन रुकी रहेगी। यह सब देख कर मेरी तो सलाह है कि तुम वी.आर.एस. (वालंटरी रिटायरमेण्ट स्कीम) ले लो!
रघुनाथ बहुत देर तक चुप रहे! उनसे कुछ बोला नहीं गया!
'ठीक है लेकिन मेरी एक मदद करें आप!'
'बोलो, क्या कर सकता हूँ मैं?'
'निलंबन आप तब तक लटकाए रखें जब तक बेटी की शादी न हो जाए! फिर तो वही करूँगा जो आपने कहा है!'
मनुष्यता का तकाजा था ऐसा करना! प्रिंसिपल ने चिंतित हो कर कहा - 'जाओ, कोशिश करूँगा लेकिन कहीं कहना मत!'
आखिरकार प्रिंसिपल कब तक इंतजार करता?