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भाग 6

22 जुलाई 2022

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सरला के इस दुःस्वप्न को और भी बदरंग बना दिया था उसकी पड़ोसिनों ने!

वह जिस बहुमंजिली इमारत के प्रथम तल के किराए के फ्लैट में रहती थी, उसके अगल बगल भी दो दो छोटे कमरों के फ्लैट थे। उनमें उसी के स्कूल की अध्यापिकाएँ रहती थीं - बाईं तरफ मीनू तिवारी और दाईं तरफ बेला पटेल। मीनू स्कूल की वाइस-प्रिंसिपल थी और वह उसका अपना फ्लैट था - खरीदा हुआ! उसी ने सरला को अपने बगल में दिलवाया था किराए पर!

मीनू बलकट्टी थी - कंधों तक छोटे-छोटे बाल! एकदम लाल मेहँदी से रँगे! उम्र चालीस से ऊपर। स्वभाव से सीरियस और रिजर्व्ड। एक हद तक असामाजिक! किसी के शादी ब्याह में तो नहीं ही जाती थी, आयोजनों में भी शामिल होने से बचती थी। घर से स्कूल, स्कूल से घर, बस यही आना-जाना था। मजबूरी में ही हँसती थी। सहेली भी नहीं थी कोई जिसके साथ उठना-बैठना हो! उम्र के बावजूद उसका गोरा सुडौल बदन आकर्षक था।

वह कुमारी थी। अकेली रहती थी। उसके दो पामेरियन कुत्ते थे - एक काला, दूसरा सफेद! बेटे या बेटियाँ कहिए - ये ही थे। इन्हें ले कर वह दिन में दो बार बाहर निकलती थी, टहलाने या नित्य कर्म कराने। पिंजरे में एक तोता भी था जो किसी के घर में घुसने और जाने के समय बोलता था। उसके इस टें टें को वह 'सुस्वागतम' और 'टा टा' बताती थी। उसकी सारी चिंताएँ इन्हीं को ले कर थीं। 'क्या बताएँ, आज पम्मी दिन भर से गुमसुम है!' 'आज टूटू की नाक बह रही है।' 'पम्मी का पेट खराब है।' 'दोनों में बातचीत बंद है।' 'टूटू पम्मी से किस बात पर नाराज है, बता नहीं रहा है!' 'दोनों मेरे पास सोने के पहले झगड़ा करते हैं, पता नहीं क्यों?' इसी तरह की चिंताएँ। कातिक के पहले से ही वह उनके लिए परेशान होना शुरू हो जाती थी और तब तक रहती थी जब तक पिल्ले नहीं हो जाते थे और जब हो जाते थे तो कई रोज सोहर के कैसेट बजाती थी और फिर नई परेशानियाँ ......

मीनू के घर बाहर से आने वाले सिर्फ दो मर्द थे - एक उसका भाई। वह मीनू से बड़ा था और वकालत करता था! वकालत चलती थी या नहीं - ठीक-ठीक नहीं मालूम! वह हर महीने के पहले सप्ताह में आता था और जब आता था तो देर तक भाई-बहन में चख-चख होती थी। उसके जाने के दो तीन दिनों बाद तक मीनू का मूड खराब रहता था!

दूसरे थे पशुओं के डाक्टर। वे मीनू की ही उमर के या उससे थोड़े बड़े थे। काफी टिप-टाप से रहते थे, बाल डाई करते थे और सफारी सूट पहनते थे! वे गर्मी की छुट्टियों में दोपहर में आते थे जब प्रायः लोग बाहर निकलने से बचते हैं। वे आते और शाम पाँच बजे से पहले चले जाते! जाड़े के मौसम में कभी-कभी मीनू के घर रात के भोजन पर आते। जब वे जाने लगते तो मीनू बालकनी पर खड़ी हो कर देर तक हाथ हिलाती रहती!

इसी बालकनी के बगल में सरला की बालकनी थी जहाँ कभी-कभी खड़ी हो कर दोनों पार्क का नजारा लेती थीं। मीनू की इच्छा के अनुसार सरला उसे स्कूल में मैडम कहती थी और घर पर दीदी! दीदी उसे सल्लो बोलती थी!

वे बालकनी में खड़ी हो कर जो देख रही थीं, वह हफ्ते भर से देख रही थीं!

हर शाम छह बजे के करीब सोलह-सत्तरह साल का एक लड़का पार्क में आता था - गुलदाउदी का बड़ा-सा खिला हुआ फूल ले कर और बैठ कर उसकी पँखुड़ियों पर कुछ लिखता था और इंतजार करता था बी ब्लाक की बालकनी में एक लड़की के आने का! वह शायद दक्षिण भारतीय लड़की थी! वह ब्लाउज और स्कर्ट में आ कर खड़ी हो जाती - लहरदार बालों में एकदम फ्रेश जैसे नहा कर निकली हो! लड़का घूमता, पीठ उसकी तरफ करता और उछल कर पैर से ऐसी किक मारता कि फूल उसकी बालकनी में गिरता! लड़की लाल पोलीथिन में लिपटा फूल उठाती और अपनी गोलाइयों के बीच ब्लाउज के अंदर रख लेती!

घास पर चित गिरा लड़का उठता और उसकी ओर 'किस' उछालता!

जवाब में लड़की मुसकराती, लजाती और होंठों से चुंबन लहरा देती!

'सल्लो! बहुत दिन हो गए तुम्हें काफी पिलाए! आओ न!' एक दिन मीनू ने सरला से कहा! यह वह दिन था जब लड़की ने चुंबन के उत्तर से ही संतोष नहीं किया, गुनगुना कर भी जवाब दिया किन्हीं वक्तों के गाने से - 'छोटी सी यह दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे तो पूछेंगे हाल।'

सरला जब पहुँची तो मीनू किचेन में थी। वह थोड़ी देर बाद काफी के दो मग के साथ ड्राइंग रूम में आई - चुप और संजीदा! गई और एक शीशी भी ले आई ब्रांडी की जिसे डाक्टर छोड़ गए थे उसके लिए। उसने एक चम्मच इसमें और एक चम्मच उसमें ब्रांडी डाली और उसका लाभ बताया। इसी समय टूटू आई और मीनू की गोद में बैठ गई। मीनू उसे देर तक सहलाती और प्यार करती रही - 'देखना, एक न एक दिन मार दिया जाएगा यह लड़का! इतना प्यारा लड़का!'

'यह कैसे कह सकती हैं आप?'

मीनू चुप रही, फिर सुबकने लगी - 'नहीं, सल्लो, यही होता है - यही होगा!'

'यह भी तो हो सकता है कि लड़की किसी दूसरे के घर चली जाए या लड़का किसी और को घर बिठा ले! और यह भी तो हो सकता है कि दोनों शादी कर लें।'

'यह तो और बुरा होगा!'

'क्यों?'

'अपने ही बगल में बेला को देख लो! उसने प्रेम विवाह ही किया था न उस पटेल से? पी.सी.ओ. चलाता था और रहता ऐसे था जैसे लाट साहब का नाती! उस पर पागल हो गई थी बेला! ऐसा भी सुना है कि शादी के लिए जहर खाया था उसने! शादी हुई और देखो - रोज-रोज किच-किच, गाली-गलौज, मार-पीट, रोना-पीटना। किसी मर्द से कहीं हँस कर बोल-बतिया ले तो जीना मुश्किल! स्कूल भी देखे, तीनों बच्चों की जिम्मेदारी भी उठाए और पटेल को भी खुश रखे! देखा होता पाँच-सात साल पहले उसे, क्या फिगर थी और क्या निखार था!'

'सिर्फ एक बेला के आधार पर तो यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता दीदी!'

'एक बात गाँठ बाँध लो सल्लो, तुम दोनों एक साथ कर ही नहीं सकतीं। यह समाज ही ऐसा है। प्रेम करो या विवाह करो। और जिससे प्रेम करो उससे ब्याह तो हरगिज मत करो! ब्याह की रात से ही वह प्रेमी से मर्द होना शुरू कर देता है। अगर मुझसे पूछो तो मैं हर पत्नी को एक सलाह दे सकती हूँ। वह अपने पति को अपने से बाहर - घर से बाहर - अगर वह पति का प्यार पाना चाहती है तो - घर से बाहर प्रेम करने की छूट दे; उकसाए उसके लिए! क्योंकि वह कहीं और किसी को प्यार करेगा, तो उसके अंदर का कड़वापन रूखापन भरता रहेगा और इसका लाभ उसकी बीवी को भी मिलेगा! बीवी ही नहीं, बच्चों को भी मिलेगा! समझी?'

'और पत्नी भी ऐसा ही करे तो?'

'तो जीवन भर नर्क भोगने के लिए तैयार रहे! पति तो पति, बच्चे तक माफ नहीं करेंगे इसके लिए!'

सरला कहीं न कहीं इन बातों के आईने में अपने भविष्य का रास्ता ढूँढ़ रही थी, मीनू को नहीं मालूम!

'रुको जरा एक मिनट।' मीनू उठी, 'मिट्ठू देर से टाँय-टाँय कर रहा है। उसके डिनर का समय हो गया है!' उसने कटोरी से भिगोए चने, हरी मिर्च, रोटी का टुकड़ा लिए और पिंजड़े में डाल दिए। तोता मारे खुशी के उछलता और शोर मचाता रहा इस बीच। पम्मी और टूटू ने सिर उठा कर एक बार देखा और फिर अपनी अपनी कुर्सी पर सो गए!

'बैठो, जा कहाँ रही हो?' सरला को खड़ी देख कर मीनू बोली!

'बैठ कर क्या करूँगी, आप बताएँगी तो है नहीं!'

'क्या?'

'यही कि आपने शादी क्यों नहीं की? इस उमर में भी जब आप ऐसी हैं तो पंद्रह साल पहले? सिर्फ सुनती हूँ लोगों से - तरह-तरह की बातें....'

'छोड़ो, जाने दो। कुछ नहीं रह गया है बताने को।' मीनू सिर झुकाए बुदबुदाई। गले से एक लंबी साँस निकली, और आँखों के सहारे छत के पंखों पर जा टिकी। वह हलके से मुसकराई और सूनी आँखों सरला को घूरती रही - 'प्यार कोई क्यों करेगा? क्या करेगा? जब तक जाति और धर्म है तब तक कोई क्या करेगा प्यार? इसी नासमझी का नतीजा भोगा मैंने। लेकिन अपने को रोकना अपने वश में था क्या? हम छह लड़कियाँ थीं और एक साथ किराए पर कमरे ले कर रहती थीं। एक कमरे में दो दो। वहीं से जाती थी कालेज पैदल! बीच में पड़ता था एक मिशनरी हास्पिटल! उसी के गेट के पास खड़ा रहता था माइकेल कर्मा। लंबा पतला। ताँबई रंग। नीग्रो जैसे उभरे कूल्हे और चीते जैसी कमर। टी शर्ट और जींस में। ठोढ़ी पर थोड़ी-सी दाढ़ी और सिर पर खड़े बाल! नगर में सबसे अलग।'

उसने फिर उसाँस छोड़ी और अपने पैरों की - फर्श की तरफ देखने लगी - चुप! उसकी आँखें भर आईं - 'मर्द की देह का भी अपना संगीत होता है। राग होता है! उसके खड़े होने में, मुड़ने में, चलने में, देखने में। बोले न बोले, सुनो तो सुनाई पड़ता है! उस राग को तुम्हारा मन ही नहीं सुनता, तुम्हारे ओठ भी सुनते हैं, बाँहें भी सुनती हैं, कमर भी, जाँघें भी, नितंब भी - यहाँ तक कि छातियाँ भी। 'निपुल्स' कभी-कभी ऐसे क्यों अपने आप तन जाते हैं जैसे कान लगा कर सुन रहे हों - बिना उसकी देह को छुए? वह तीन महीने तक वहीं खड़ा रहा मेरे आते-जाते समय! और जैसे सुबह सुबह अचानक पत्ते पर ओस की बूँद थरथराती और चमकती दिखाई पड़ती है, वैसे ही मैं थी पत्ते की तरह! कब इतनी ओस गिरी कि मैं भीग कर तरबतर हुई - मुझे पता नहीं! सिर्फ इतना पता है कि मैं तो सिर्फ भीगी थी, माइकेल तो डूब चुका था!'

एक दिन सहसा मैंने खुद को उसकी मोटरबाइक के पीछे बैठा पाया। पूछा - 'कहाँ जा रहे हो?' उसने कहा - 'मालूम नहीं!' मैं बैठी नहीं थी, उड़ रही थी उसके डैनों के सहारे! वह आदिवासी - जंगल का पत्ता-पत्ता उसे जानता था, हर पगडंडी उसे पहचानती थी। उसने एक बाजरे के खेत में बाइक खड़ी कर दी - 'उतरो, मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ।' मैं कुछ कहूँ, रोकूँ-टोकूँ इसके पहले ही उसने मेरी साड़ी खोल दी। बोला - 'ब्लाउज खोल दो, नहीं तो बटन टूट जाएँगे।' ब्रा उसी ने खोले - हठ करके! 'बस हिलो मत!' दो कदम पीछे हट गया उलटे पाँव और ऊपर से नीचे तक देखा। मैं अपने हाथों से खुद को ढँकने की कोशिश किए जा रही थी लेकिन बेकार! 'कहो तो छू भी लूँ जरा-सा।' हालत ऐसी थी कि कौन कहे और कौन सुने? थोड़ा-सा झुक कर उसने अपने ओठों से छातियों की खड़ी घुंडियों को बारी-बारी से दबाया, चूमा और सहलाया जीभ से और कहा - 'चलो, पहनो अब?'

'अब कहाँ?' उसने उत्तर दिया - 'विंढम फाल! कोई नहीं होगा इस वक्त! वहीं नहाएँगे!'

'कपड़े कहाँ लाए हैं?'

'नहाने के लिए कपड़ों की क्या जरूरत?'

मीनू बोलती भी रही, लजाती भी रही। कभी चेहरा लाल होता, कभी स्याह पड़ता। कभी आँखें झुकतीं, कभी खुलतीं, कभी बंद होतीं! वह आगे बताने से पहले हिचकिचाई थोड़ी - 'बाइक कहाँ छोड़ी, झरने के मुहाने पर कैसे पहुँचे - एक रहस्यलोक था मेरे लिए और वहाँ एक दिन एक रात रुक कर क्या-क्या किया, क्या-क्या हुआ यह न पूछो। वह सब जैसे पिछले जन्म की बातें हों। माइकेल के साथ ही हम आदिवासी नहीं, आदिमानव हो गए थे। आदमजात नंगधड़ंग। जंगलों में, नदियों के किनारे। पेड़ों के गिर्द गिलहरियों की तरह दौड़ते-भागते रहे। खरगोशों की तरह उछलते-कूदते रहे। झरने में मछलियों की तरह तैरते नाचते रहे। धारा के बीच पत्थरों पर मगर घड़ियाल के बच्चों की तरह धूप सेंकते रहे! क्या क्या नहीं किया हमने? कहते हुए शर्म आ रही है मुझे कि दूसरे दिन दोपहर से पहले ही उसी के शब्दों में कहूँ तो मेरा सोता रिसने लगा लेकिन उस हालत में भी नहीं छोड़ा उसने। इसे ऐसे समझो कि जब मैंने ही नहीं छोड़ा तो माइकेल क्यों छोड़ता? ..... तो वह एक दिन एक रात! बस वही मेरी जिंदगी है।'

सरला सिर झुकाए सुनती रही। मीनू के चुप हो जाने के बाद पूछा - 'फिर?'

'फिर क्या? गए तो दो बार और, लेकिन पिकनिक के सीजन में - भीड़भाड़ में और वही गलती हुई। जाने कैसे खबर लग गई पिता जी को। एक दिन वे आए और कहा - 'अब बहुत कर लिया बीएड., घर चलो!' रो-धो कर किसी तरह इम्तहान दिया और यही भाई था मेरा बाडीगार्ड, जो हर महीने रंगदारी टैक्स ले जाता है!'

'लेकिन शादी क्यों नहीं की उससे?'

'शादी जब पिता जी ने करनी चाही, तब मैंने नहीं की और जब मैंने करनी चाही तब काफी देर हो चुकी थी! और यह भाई! अगर कर लेती तो इसकी आय के स्रोत का क्या होता? नहीं होने दी इसने किसी न किसी बहाने।'

'नहीं, मैं यह पूछ रही हूँ कि माइकेल से क्यों नहीं की?'

'माइकेल!' वह उदास हो गई, 'सोचा था कि अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद करूँगी। और खड़ी भी हो गई पैरों पर! उसकी मानसिक हालत मुझसे भी बुरी थी और जल्दी मचा रहा था। हमने योजना बना ली, तारीख तय कर दी - पहले मंदिर, फिर चर्च, कि सुना - विंढम में उसने काफी ऊपर से छलाँग लगा ली! लोग छलाँग लगाते हैं स्विमिंग पूल में, नदी में, तालाब में - नुकीले चुखीले पत्थरों से पटे झरने में छलाँग लगाते कभी किसी को नहीं सुना! वह इतना मूर्ख भी नहीं था। यह रहस्य छोड़ गया वह जाते जाते कि वह छलाँग ही थी या कुछ और?'

'मान लीजिए अगर वह जीवित रहता और उससे शादी कर लेतीं तो?'

'तो?'

'तो संतुष्ट रहतीं, सुखी रहतीं?'

'देखो सल्लो, सवाल तो बेवकूफाना है। यह कौन बता सकता है कि ऐसा होता तो कैसा होता? जो हुआ ही नहीं, उसके बारे में क्या कहना? हाँ, यही सवाल पहले कभी किया होता तो उत्तर शायद दूसरा होता। समय के साथ सोच भी बदलती जाती है। आज मैं यही कह सकती हूँ कि प्यार को प्यार ही रहने दो। उसे ब्याह तक न ले जाओ या ब्याह का विकल्प मत बनाओ। अपने ही बगल में बेला पटेल से पूछो। उसने जिसे प्यार किया उसी से शादी की। अब पाँच साल बाद फिर प्यार के लिए क्यों बेचैन है?

'सुनो, प्यार एक अनवरत खोज है। खोज किसी और की नहीं, खुद की! हम स्वयं को दूसरे में ढूँढ़ते हैं, एक बिछड़ जाता है या छूट जाता है तो लगता है जिंदगी खत्म। जीने का कोई अर्थ नहीं रह जाता! आँखों के आगे शून्य और अँधेरा! हर चीज बेमानी हो जाती है। लेकिन कुछ समय बाद कोई दूसरा मिल जाता है और नए सिर से अँखुआ फूट निकलता है! यह दूसरी बात है कि दूसरा भी स्वयं को ढूँढ़ते हुए टकराता है! सच कहो तो प्यार की खूबसूरती हर बार उसके अधूरेपन में ही है! उसकी यानी प्यार की उम्र जितनी ही छोटी हो उतनी ही चमक और कौंध! अगर लंबी हुई तो सड़ाँध आने लगती है! यह जरूर है कि इसे छोटी या लंबी करना हमारे वश में नहीं होता।'

सरला का दिमाग चकराने लगा। बहुत देर से बैठे-बैठे या सुनते-सुनते जबकि शुरू इसी ने किया था। मीनू ने भाँपा और पूछा 'क्या बात है? क्या सोच रही हो?'

सरला दयनीय हँसी के साथ बोली - 'कुछ नहीं! आपने बढ़ा दी मेरी उलझन!'

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रचनाएँ
रेहन पर रग्घू
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रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है। भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है। उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है
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भाग 1

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवा

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भाग 2

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पहाड़पुर में रघुनाथ एक ही थे। वैसे कहने को तो रामनाथ, शोभनाथ, छविनाथ, शामनाथ, प्रभुनाथ वगैरह वगैरह भी थे लेकिन वे रघुनाथ नहीं थे। और रघुनाथ का यह था कि वे जब कभी जहाँ कहीं नजर आ जाते, गाँव घर के लोग

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भाग 3

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ऐसी मुसीबत में रघुनाथ को किसी और ने नहीं, उन्हीं के बेटों ने डाला था! बेटों में भी संजय ने! खास तौर से संजय ने! और यह लंबी कहानी है - राँची से केलिफोर्निया तक फैली। संजय ने प्यार किया था सोनल को! य

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भाग 4

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जुलाई में शादी हो गई चिरंजीवी संजय और आयुष्मती सोनल की - कोर्ट में। न बारात, न बाजा-गाजा! प्रीतिभोज के लिए न्यौता आया था रघुनाथ के नाम भी, पर वे नहीं गए! ऐसी चोट लगी थी रघुनाथ और शीला को जिसे न वे

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भाग 5

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सरला दुविधा में थी - ब्याह करे या न करे? पक्का सिर्फ इतना था कि उसे वह शादी नहीं करनी है जो पापा तय करेंगे! कई लोचे थे उसकी दुविधा में! अब से कोई सात आठ साल पहले। उसने अपने अंदर कुछ अजब सा बदलाव मह

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भाग 6

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सरला के इस दुःस्वप्न को और भी बदरंग बना दिया था उसकी पड़ोसिनों ने! वह जिस बहुमंजिली इमारत के प्रथम तल के किराए के फ्लैट में रहती थी, उसके अगल बगल भी दो दो छोटे कमरों के फ्लैट थे। उनमें उसी के स्कूल क

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भाग 7

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जिस दिन मैनेजर कालेज आए उस दिन रघुनाथ गाजीपुर गए थे - सरला के लिए लड़का देखने! बीसेक रोज बाद फिर मैनेजर कालेज आए, अबकी फिर रघुनाथ बाहर। आजमगढ़ गए थे लड़का देखने। यह पाँचवाँ या छठा साल था! शादी हाथ म

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भाग 8

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सरला घर आई - छुट्टी के दिन। रविवार को। पहले वह अकसर आती थी। शनिवार की शाम को आती थी, रविवार को रहती थी और सोमवार को तड़के चली जाती थी! मिर्जापुर से घर की दूरी है ही कितनी? बीच में बनारस में एक बस बदल

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भाग 9

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सरला चली तो गई, लेकिन रघुनाथ का सुकून और चैन लिए गई। रघुनाथ कई रातों तक सो नहीं सके! उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी! जाने किन जन्मों का पाप था जो इस जन्म में भोग रहे थे। बच्चों को ऐसे संस्कार कहाँ से म

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भाग 10

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काफी समय लग गया रघुनाथ को घर पर रहने की आदत डालने में। वे रहे तो गाँव में ही, लेकिन गाँव के नहीं रहे। गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बँसवार और पोखर क

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भाग 11

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रात घिर आई थी। गाँव में सन्नाटा पसरा था। हलकी-हलकी झीसियाँ पड़ रही थीं! सिवान मेढकों की टर्र-टर्र और झींगुरों के झन्न्‌-झन्न्‌ से गूँज रहा था। ट्रैक्टर के काम शुरू कर देने के बावजूद ठाकुर हारा हुआ मह

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भाग 12

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पहलवान माने छब्बू पहलवान। पहाड़पुर के ही दक्खिनी हिस्से में घर था बजरंगी सिंह का। वे छब्बू पहलवान के नाम से जाने जाते थे इलाके में। गाँव का नाम दूर-दूर तक रोशन किया था उन्होंने! दंगलों में जहाँ-जहाँ

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भाग 13

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छब्बू के मारे जाने का सदमा जिसे सबसे ज्यादा था, वह रघुनाथ थे! जाने क्या था कि छब्बू जब कभी बगीचे की तरफ आते, नहर या अखाड़े पर आते या अपनी भैंस के साथ उत्तरी सिवान में आते - रघुनाथ के दुआर को जरूर देख

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भाग 14

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रघुनाथ दालान में करवट लेटे थे! 'नहीं-नहीं' करने के बावजूद शीला कमर की उभरी हुई हड्डी के आसपास हल्दी प्याज चूना का घोल छोप रही थी! और मुँह के अंदर ही अंदर कुछ बुदबुदाती भी जा रही थी नाक सुड़कते हुए।

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भाग 15

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इन्हीं दिनों रघुनाथ को एक इलहाम हुआ। कि 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी; भले आदमी का मतलब है 'कायर' आदमी। जब कोई आपको 'विद्वान' कहे तो उसका अर्थ 'मूर्ख' समझिए, और जब कोई 'सम्मानित' कहे तो 'दयनीय

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भाग 16

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घर में फोन अब जी का जंजाल हो गया था! जब रघुनाथ ने कनेक्शन लिया था तो राजू की जिद पर - कि संजू अमेरिका से जब बात करना चाहेगा तो कैसे करेगा? कोई संदेश ही देना हो तो? भाभी ही मम्मी से कुछ बोलना या पूछना

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भाग 17

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रघुनाथ ने कहा था पाँच दिन लेकिन लग गए पचास दिन! इसमें उनका कोई दोष नहीं था। सोचा था कि जब जाना ही है तो यहाँ की सारी समस्याएँ निपटा कर जाएँ, यह न हो कि रहें वहाँ और मन लगा रहे यहाँ! बहुत सोच-विचार क

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भाग 18

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वह घर जिसे राँची के प्रोफेसर राजीव सक्सेना ने रिटायर होने के बाद अपने रहने के लिए बनारस में बनवाया था और जिसे अपनी बेटी सोनल के नाम कर दिया था, वह 'अशोक विहार' में था। बनारस में मुहल्ले थे, नगर, विहा

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भाग 19

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इसी छोटे से-अशोक विहार के लेन नं. 4 के डी-1 में अमेरिका से आई सोनल सक्सेना रघुवंशी। तीन साल बाद। उसके डैडी आए थे सोनल की 'सैंट्रो' पहुँचाने और विश्वविद्यालय में ज्वाइन कराने। इतना ही नहीं किया उन्हो

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भाग 20

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शीला को सोनल ने वह मान-सम्मान दिया जो कोई बहू क्या देगी अपनी सास को? सुबह-शाम 'मम्मी', दोपहर-रात 'मम्मी', घर में 'मम्मी' बाहर 'मम्मी' - बस हर तरफ मम्मी की गूँज! जब कि शीला सोनल के साथ आई थी लोकलाज के

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भाग 21

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शीला सोनल के आग्रह पर तब तक रुकी रही जब तक खाना बनानेवाली नौकरानी की व्यवस्था नहीं हो गई। जिस दिन शीला गई, उसी दिन सोनल ने गेट और घर की तालियों के 'डुप्लिकेट' बनवाए और उन्हें रघुनाथ को दे दिया। दोपहर

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भाग 22

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>रघुनाथ जब भी शाम को घूमते, टहलते या मिलने-जुलने बाहर जाते थे, कोशिश करते थे कि नौ बजे तक लौट आएँ! रात का खाना वे हमेशा सोनल के साथ खाते थे। यह सोनल की जिद थी! दोपहर को ऐसा तभी संभव हो पाता था जब उसकी

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भाग 23

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रघुनाथ गाँव से लौटे लेकिन 'खुदगर्ज और कृतघ्न' बेटे के जाने के बाद! यह उनकी राय थी अपने छोटे बेटे धनंजय के बारे में। उसे पता था कि इसी नगर के 'अशोक विहार' में उसकी भाभी के साथ बाप भी रहता है लेकिन ठहर

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भाग 24

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भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के सोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल छलछल! कभी-कभी लगता है कि ये अलग-अलग दो सोते नहीं है। सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिए या भरोसा। यह न ह

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भाग 25

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रघुनाथ अपने जीवन की लंबाई नापते थे अपने पैरों से - उसकी चाल और ताकत से; फेफड़ों में आती-जाती साँसों से। एक समय था जब वे पंद्रह-सोलह मील चले जाते थे ननिहाल। धूप में! बिना थके, बिना कहीं बैठे - और तरोता

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भाग 26

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जीवनाथ वर्मा जाते-जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो! यह वह बात थी जो कभी उनके अपने दिमाग में ही नहीं आई! अपनों से अलग भी अपना कुछ होता ह

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भाग 27

22 जुलाई 2022
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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की-दरवा

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भाग 28

22 जुलाई 2022
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रघुनाथ को कुछ पता नहीं कि वे अपने कमरे में कैसे पहुँचे ? कौन ले गया? कब ले गया? कैसे ले गया? कपड़े किसने उतारे? बदन किसने पोंछा और तीस साल पुराना खादी आश्रमवाला वह गाउन या ओवरकोट किसने पहनाया जिसके रो

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भाग 29

22 जुलाई 2022
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ज्यादा नहीं, हफ्ते दस दिन लगे सोनल को इस घर के एकांत और सन्नाटे के हिसाब से खुद को ढालने में! और जब ढल गई तब मजा आने लगा! अपने 'अकेलेपन' को एंज्वाय करने लगी। वह डेढ़-दो बिस्वे की रियासत की रानी थी -

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