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भाग 29

22 जुलाई 2022

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ज्यादा नहीं, हफ्ते दस दिन लगे सोनल को इस घर के एकांत और सन्नाटे के हिसाब से खुद को ढालने में! और जब ढल गई तब मजा आने लगा! अपने 'अकेलेपन' को एंज्वाय करने लगी।

वह डेढ़-दो बिस्वे की रियासत की रानी थी - मालकिन! जब चाहे सोए, जब चाहे जागे, जहाँ चाहे उठे बैठे, जैसे चाहे वैसे रहे घर में, ब्रा और चड्ढी में, लुंगी में, गाउन में, नंगी नहाए, उछले कूदे - न कोई देखनेवाला, न सुननेवाला! जब चाहे - जैसा चाहे खाना पकाए न पकाए, उपास करे, उसकी मर्जी! अगर साथ में यही सास-ससुर हों - तो यह करो, वह करो, ऐसे करो, वैसे न करो! दुनिया भर के लफड़े, टोका-टोकी और बंदिशें!

टेपरेकार्डर है, टी.वी. है, कंप्यूटर है, मोबाइल है, फोन है - अगर खुद को व्यस्त ही रखना चाहो तो इनके सिवा भी किताबें हैं, क्लास की तैयारियाँ हैं, कार है! ज्यादा नहीं, शाम को फ्रेश होने के बाद सिर्फ आधे घंटे की ड्राइव पर निकल जाओ और लौट कर आओ तो बीयर या जिन का एक छोटा पैग और सिगरेट (यह केलिफोर्निया की आदत है जिसे देर-सबेर छोड़नी पड़ेगी इस सड़े-गले नगर में - इसे वह जानती है)।

'लेकिन समीर कहाँ है?' उसने पापा को फोन किया - 'कुछ खास नहीं, बस ऐसे ही!'

जब वह रिसर्च कर रही थी इतिहास में, तभी समीर से परिचय हुआ था। एक तेज-तर्रार आकर्षक युवक। अच्छे खाते-पीते घर का। उससे दो साल सीनियर और राजनीति में पीएच.डी.! नौकरी मिल रही थी लेकिन उसने अपने हित को न देख कर किसानों मजदूरों के हित को देखा! उसमें देश और दुनिया और समाज के हर मुद्दे पर लंबी बहस करने और विश्लेषण करने की दक्षता थी! उसने राजनीतिक 'ऐक्टिविस्ट' होना पसंद किया। उस समय बिहार में ऐसे कई ग्रुप थे! वह उनमें से एक से जुड़ गया और सक्रिय हो गया! वह हफ्ते में एक बार पटना आता और पूरा दिन सोनल के साथ बिताता! उसका सपना था कि वे शादी करेंगे और अपना जीवन किसानों की खुशहाली के लिए समर्पित कर देंगे - साथ-साथ! सोनल ने जब डैडी से बताया तो उन्होंने समझाते हुए कहा कि यह जुनूनी दिमाग का फितूर है! बीवी की कमाई और नौकरीपेशा लोगों के चंदे पर क्रांति करनेवाले ऐसे लोगों की भरमार है बिहार में! वे जल्दी ही नाश्ते और चाय-पानी के लिए दूसरों को ढूँढ़ते सड़क पर दिखाई पड़ने लगते हैं। ऐसे बहकावे में मत आओ। और उन्हीं के समझाने-बुझाने पर उसने संजय से शादी तो कर ली लेकिन समीर को दिल से नहीं निकाल सकी! यहाँ तक कि अमेरिका में भी जब संजय ने उससे 'ब्वायफ्रेंड' की बात की तो वह डर गई कि कहीं उसे समीर की दोस्ती की खबर तो नहीं है?

उसी समीर की याद आ रही थी उसे यहाँ आने के बाद से ही!

वह सुबह छत पर टहल रही थी कि डी-4 के सामने सड़क पर पुलिस वैन दिखाई पड़ी!

उसकी नजर जाने के पहले से खड़ी थी वह वैन!

कुछ लोग थे जो भीतर-बाहर आ जा रहे थे! लेन के एक नुक्कड़ पर उसका डी-1 और दूसरे नुक्कड़ पर डी-4। उसके दो ही मकान बाद! बरतन माँजने और झाडू-पोंछा करनेवाली दाई उसी कालोनी की थी। जैसे ही वह आई, उसने पूछा!

दाई गीता ने जो कुछ बताया, वह भयानक था! यह उस कालोनी की तीसरी घटना थी! इस साल की पहली!

डी-4 राय साहब का बँगला था! राय साहब बागबानी के बेहद शौकीन! उनके लान में मखमली घास क्या थी, हरे रंग का गलीचा था। उसमें जूते-चप्पल पहन कर न वह जाते थे, न दूसरों को जाने देते थे। गलीचे के चारों तरफ फूलों और रंग-बिरंगी पत्तियोंवाले गमले थे! वे दिन भर कैंची-चाकू लिए लान में ही नजर आते थे - काटते-छाँटते हुए। हरे रंग की दीवानगी ऐसी कि बँगले पर भी हरा डिस्टेंपर। यही हरियाली उनके झुर्रियोंदार चेहरे पर भी रहती थी - हमेशा!

एक दिन एक फोन आया राय साहब के नाम - 'इतनी जल्दी क्या है मकान बेचने की, थोड़ा रुक जाते!'

राय साहब 'हलो, हलो' करते रह गए, लेकिन फोन कट गया था!

उस दिन उन्हें आश्चर्य हुआ लेकिन हँसी भी आई!

फिर हर तीसरे-चौथे रोज या तो कोई न कोई फोन आता या कोई न कोई मकान के बारे में जानकारी करने चला आता। फोन करनेवाला कौन है, कहाँ से कर रहा है, मकान बिकने की बात उसे किसने बताई - राय साहब को पता नहीं चल सका! आनेवालों को वे डाँट कर भगा देते, फाटक के अंदर घुसने ही न देते! वे कहते-कहते थक गए कि खबर गलत है, उन्हें बेचना ही नहीं है फिर भी, ये सिलसिले खत्म नहीं हुए!

वे परेशान! लगा कि पागल हो जाएँगे! वे नींद के लिए तरस कर रह जाते और नींद नहीं आती! दोस्तों-मित्रों की सलाह पर उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट की कि उनके पास कैसे-कैसे फोन आते हैं, कैसे-कैसे लफंगे आते हैं, और कैसी-कैसी बातें कर जाते हैं?

चौथे दिन जो आदमी मकान की बाबत उनसे पूछने आया, उसकी बातों से राय साहब को लग गया कि पुलिस रिपोर्ट की उसे जानकारी है - लेकिन इसका न उसे डर है, न खौफ!

जिस मानसिक तनाव और बेचैनी में वे जी रहे थे, उससे उन्हें उस दिन मुक्ति मिली, जिस दिन अचानक उनके बचपन के मित्र राजाराम पांडे उर्फ भुटेले गुरू आए। भुटेले गुरू अब तो नगर के जाने-माने रईस थे लेकिन थे उनके पड़ोसी गाँव के! हाई स्कूल तक उनके साथ गाँव पर ही पढ़ चुके थे! कई मुहल्लों में कई मकान थे उनके! वे इधर से गुजर रहे थे कि उन्हें राय साहब की याद आई और पूछते पाछते डी-4 में चले आए!

'यार, बड़ा शानदार भवन है सुरेश!' उन्होंने गेट के अंदर घुसते ही कहा!

राय साहब ने उत्साह से उन्हें घर दिखाया! वे पहली बार आए थे। उन्होंने घर- आँगन की तारीफ करते हुए बताया कि इस दौरान भेंट भले न हुई हो, दोनों बेटियों की शादी और भाभी के आकस्मिक स्वर्गवास की खबर उन्हें मिली थी! ड्राइंग रूम में लौटते हुए उन्होंने पूछा - 'सुरेश! तुम्हारा वह बेटा कहाँ है आजकल, जिसका इलाज करा रहे थे?'

भुटेले जैसे ही सोफे पर बैठे, राय साहब उनके आगे बैठ कर - फूट-फूट कर रोने लगे। भुटेले भी सोफे से नीचे आ गए और सुरेश राय को बाँहों में भर कर सामने दीवान की ओर देखते रहे - दीवान पर गठरी की तरह एक युवक लेटा था। वह टुकुर-टुकुर कुतूहल से उन्हें ताक रहा था। दाढ़ी-मूँछ बेतरतीब बढ़ी हुई थी! सिर्फ चेहरा खुला था, शरीर ढँका था! एक सूखी बेजान बाँह लकड़ी की तरह बिस्तर पर पड़ी थी! लगता ही नहीं था कि धड़ के नीचे कुछ है!

'यह बोलता तो उस वक्त भी नहीं था, लेकिन यह याद नहीं कि समझता भी था या नहीं!' भुटेले ने पूछा!

राय साहब बगैर बोले हिचकी लेने लगे।

भुटेले ने सांत्वना देते हुए उन्हें उठाया और सोफे पर अपने बगल में बैठाया। थोड़ी देर बाद राय साहब उठे और अंदर चले गए। जब वे चाय के साथ लौटे तो सहज थे! चाय पीते हुए उन्होंने बताया कि कैसे पेट काट कर, गाँव की जमीनें बेच कर, बैंक से कर्ज ले कर किसी तरह यह घर खड़ा किया और दो साल पहले, रिटायर होने के बाद इसमें आया! मैंने कभी सोचा ही नहीं कि किसके लिए घर? बस यह था कि अपना एक घर हो! इसके खड़ा होते-होते पत्नी भी चल बसीं। लेकिन लगा रहा मैं बिना सोचे कि घर हो तो किसके लिए? ... देख रहे हो इस बेटे को? न चल-फिर सकता है, न सुन सकता है, न बोल सकता है! क्या होगा इसका जब मैं नहीं रहूँगा! जाने किस जनम के पाप की सजा दे रहा है भगवान!

'मैं हूँ न! चिंता काहे करते हो?' भुटेले ने उनके कंधे पर हाथ रखा!

'चिंता का तो ये है भुटेले कि छह-सात महीनों से सोया नहीं। जाने कहाँ-कहाँ से, कैसे-कैसे लोगों के रात-बिरात फोन आते रहते हैं - धमकी भरे! पता नहीं किसने उड़ा दिया है कि सुरेश राय अपना घर बेच रहे हैं! नतीजा यह कि गुंडे-मवाली तक घर के अंदर घुसे चले आ रहे हैं और सलाह दे रहे हैं कि जितने में बेचोगे उतने में दो कमरों का फ्लैट भी ले सकते हो और बाकी के सूद से बीस-पच्चीस साल चैन से काट भी लोगे! पूछो कि तुम हो कौन? तो कहते हैं - 'प्रापर्टी डीलर'! प्रापर्टी हमारी; डील तुम कर रहे हो! बिना यह पूछे कि तुम बेच भी रहे हो या नहीं? दलाल साले! हिम्मत तो देखो उनकी! अगर आज नरेश सही होता तो यह नौबत नहीं आती!'

भुटेले गंभीरता से सब कुछ सुनते रहे और सोचने-विचारने के बाद बोले - 'ऐसा है सुरेश! मैं दो तीन दिन के अंदर एक दरबान या आदमी भेज देता हूँ। बड़े भरोसे का आदमी! वह तुम्हारी सारी समस्याएँ दूर कर देगा! ठीक?'

तीसरे दिन सचमुच आदमी आया और राय साहब की चिंता खत्म हो गई!

न कभी फोन आया और न गुंडे-मवालियों का साहस हुआ कि आस पास कहीं दिखाई पड़ें!

लेकिन जो होनी थी, वह हो कर रही। तीन महीने बाद! रात-दिन पूरे घर की देखभाल करनेवाला दरबान रात भर की छुट्टी ले कर भतीजी की शादी में अपने गाँव गया था और इधर उसी रात यह हादसा हो गया! उसी पलंग पर लेटा राय साहब का बेटा टुकुर-टुकुर ताकता रहा और उनका कतल हो गया!

भुटेले गुरु इस हादसे के दो दिन पहले से अस्पताल में थे - रूटीन चेकअप के लिए। दरबान ने ही उन्हें खबर की थी! वे अस्पताल से सीधे अपनी गाड़ी में आए! दरवाजे पर खड़ी भीड़ को वहाँ से हटाया-बढ़ाया, डाँटा-डपटा और अंदर जा कर पुलिस से जानकारी ली! फिर उस कमरे में गए जहाँ बिस्तर पर राय साहब लेटे थे। वहीं बगल में एक तख्त पर उनका बेटा भी था जो निश्चल पड़ा था। मूक दर्शक। हादसे का चश्मदीद बेबस गवाह! वे पुलिस के साथ अंदर गए थे, उसी के साथ लौट भी आए!

बाहर अटकलों की कानाफूँसी चल रही थी - या तो मुँह और नाक पर तकिया दबा कर मारा गया है या गला दबा कर! शरीर पर कहीं चोट का निशान नहीं। हाथापाई का कोई चिह्न नहीं। बिस्तर पर कोई सिलवट नहीं! तकिए पर महज खून का छोटा-सा धब्बा था जो नाक और मुँह से निकला था।

लाश जब पोस्टमार्टम के लिए जा रही थी, सोनल अपने गेट पर खड़ी उसे जाते हुए देख रही थी! कालोनी में मकान कब्जा करने की तीसरी घटना! घर में तो वह भी अकेली थी। विश्वविद्यालय आने-जाने का समय अनिश्चित। किसी दिन दोपहर से पहले क्लासेज, किसी दिन दोपहर बाद। घर में कोई नहीं। दिन में तो चोरियाँ ही हो सकती हैं लेकिन रात में तो हत्या तक संभव है। इस कल्पना से ही उसे कँपकपी छूट आई! आँखों में उतरनेवाली सिहरन पूरे बदन में फैल गई! वह इसी उधेड़बुन में पूरे दिन पड़ी रही! नौकर न मिल रहे थे, न रखना मुनासिब था! नौकरानी झाड़ू बुहारू पोंछा से आगे के लिए तैयार नहीं। बार-बार उसका ध्यान जा रहा था ससुराल पर।

रात में उसने पहाड़पुर का कोड ढूँढ़ा और फोन किया - 'पापा! मैं सोनल। आ रही हूँ कल आप दोनों को लेने के लिए! तैयार रहिए। नहीं, कुछ नहीं सुनूँगी। मम्मी को फोन दीजिए!...'

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रचनाएँ
रेहन पर रग्घू
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रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है। भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है। उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है
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भाग 1

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवा

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भाग 2

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पहाड़पुर में रघुनाथ एक ही थे। वैसे कहने को तो रामनाथ, शोभनाथ, छविनाथ, शामनाथ, प्रभुनाथ वगैरह वगैरह भी थे लेकिन वे रघुनाथ नहीं थे। और रघुनाथ का यह था कि वे जब कभी जहाँ कहीं नजर आ जाते, गाँव घर के लोग

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भाग 3

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ऐसी मुसीबत में रघुनाथ को किसी और ने नहीं, उन्हीं के बेटों ने डाला था! बेटों में भी संजय ने! खास तौर से संजय ने! और यह लंबी कहानी है - राँची से केलिफोर्निया तक फैली। संजय ने प्यार किया था सोनल को! य

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भाग 4

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जुलाई में शादी हो गई चिरंजीवी संजय और आयुष्मती सोनल की - कोर्ट में। न बारात, न बाजा-गाजा! प्रीतिभोज के लिए न्यौता आया था रघुनाथ के नाम भी, पर वे नहीं गए! ऐसी चोट लगी थी रघुनाथ और शीला को जिसे न वे

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भाग 5

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सरला दुविधा में थी - ब्याह करे या न करे? पक्का सिर्फ इतना था कि उसे वह शादी नहीं करनी है जो पापा तय करेंगे! कई लोचे थे उसकी दुविधा में! अब से कोई सात आठ साल पहले। उसने अपने अंदर कुछ अजब सा बदलाव मह

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भाग 6

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सरला के इस दुःस्वप्न को और भी बदरंग बना दिया था उसकी पड़ोसिनों ने! वह जिस बहुमंजिली इमारत के प्रथम तल के किराए के फ्लैट में रहती थी, उसके अगल बगल भी दो दो छोटे कमरों के फ्लैट थे। उनमें उसी के स्कूल क

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भाग 7

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जिस दिन मैनेजर कालेज आए उस दिन रघुनाथ गाजीपुर गए थे - सरला के लिए लड़का देखने! बीसेक रोज बाद फिर मैनेजर कालेज आए, अबकी फिर रघुनाथ बाहर। आजमगढ़ गए थे लड़का देखने। यह पाँचवाँ या छठा साल था! शादी हाथ म

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भाग 8

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सरला घर आई - छुट्टी के दिन। रविवार को। पहले वह अकसर आती थी। शनिवार की शाम को आती थी, रविवार को रहती थी और सोमवार को तड़के चली जाती थी! मिर्जापुर से घर की दूरी है ही कितनी? बीच में बनारस में एक बस बदल

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भाग 9

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सरला चली तो गई, लेकिन रघुनाथ का सुकून और चैन लिए गई। रघुनाथ कई रातों तक सो नहीं सके! उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी! जाने किन जन्मों का पाप था जो इस जन्म में भोग रहे थे। बच्चों को ऐसे संस्कार कहाँ से म

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भाग 10

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काफी समय लग गया रघुनाथ को घर पर रहने की आदत डालने में। वे रहे तो गाँव में ही, लेकिन गाँव के नहीं रहे। गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बँसवार और पोखर क

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भाग 11

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रात घिर आई थी। गाँव में सन्नाटा पसरा था। हलकी-हलकी झीसियाँ पड़ रही थीं! सिवान मेढकों की टर्र-टर्र और झींगुरों के झन्न्‌-झन्न्‌ से गूँज रहा था। ट्रैक्टर के काम शुरू कर देने के बावजूद ठाकुर हारा हुआ मह

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भाग 12

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पहलवान माने छब्बू पहलवान। पहाड़पुर के ही दक्खिनी हिस्से में घर था बजरंगी सिंह का। वे छब्बू पहलवान के नाम से जाने जाते थे इलाके में। गाँव का नाम दूर-दूर तक रोशन किया था उन्होंने! दंगलों में जहाँ-जहाँ

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भाग 13

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छब्बू के मारे जाने का सदमा जिसे सबसे ज्यादा था, वह रघुनाथ थे! जाने क्या था कि छब्बू जब कभी बगीचे की तरफ आते, नहर या अखाड़े पर आते या अपनी भैंस के साथ उत्तरी सिवान में आते - रघुनाथ के दुआर को जरूर देख

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भाग 14

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रघुनाथ दालान में करवट लेटे थे! 'नहीं-नहीं' करने के बावजूद शीला कमर की उभरी हुई हड्डी के आसपास हल्दी प्याज चूना का घोल छोप रही थी! और मुँह के अंदर ही अंदर कुछ बुदबुदाती भी जा रही थी नाक सुड़कते हुए।

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भाग 15

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इन्हीं दिनों रघुनाथ को एक इलहाम हुआ। कि 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी; भले आदमी का मतलब है 'कायर' आदमी। जब कोई आपको 'विद्वान' कहे तो उसका अर्थ 'मूर्ख' समझिए, और जब कोई 'सम्मानित' कहे तो 'दयनीय

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भाग 16

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घर में फोन अब जी का जंजाल हो गया था! जब रघुनाथ ने कनेक्शन लिया था तो राजू की जिद पर - कि संजू अमेरिका से जब बात करना चाहेगा तो कैसे करेगा? कोई संदेश ही देना हो तो? भाभी ही मम्मी से कुछ बोलना या पूछना

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भाग 17

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रघुनाथ ने कहा था पाँच दिन लेकिन लग गए पचास दिन! इसमें उनका कोई दोष नहीं था। सोचा था कि जब जाना ही है तो यहाँ की सारी समस्याएँ निपटा कर जाएँ, यह न हो कि रहें वहाँ और मन लगा रहे यहाँ! बहुत सोच-विचार क

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वह घर जिसे राँची के प्रोफेसर राजीव सक्सेना ने रिटायर होने के बाद अपने रहने के लिए बनारस में बनवाया था और जिसे अपनी बेटी सोनल के नाम कर दिया था, वह 'अशोक विहार' में था। बनारस में मुहल्ले थे, नगर, विहा

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भाग 19

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इसी छोटे से-अशोक विहार के लेन नं. 4 के डी-1 में अमेरिका से आई सोनल सक्सेना रघुवंशी। तीन साल बाद। उसके डैडी आए थे सोनल की 'सैंट्रो' पहुँचाने और विश्वविद्यालय में ज्वाइन कराने। इतना ही नहीं किया उन्हो

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भाग 20

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शीला को सोनल ने वह मान-सम्मान दिया जो कोई बहू क्या देगी अपनी सास को? सुबह-शाम 'मम्मी', दोपहर-रात 'मम्मी', घर में 'मम्मी' बाहर 'मम्मी' - बस हर तरफ मम्मी की गूँज! जब कि शीला सोनल के साथ आई थी लोकलाज के

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शीला सोनल के आग्रह पर तब तक रुकी रही जब तक खाना बनानेवाली नौकरानी की व्यवस्था नहीं हो गई। जिस दिन शीला गई, उसी दिन सोनल ने गेट और घर की तालियों के 'डुप्लिकेट' बनवाए और उन्हें रघुनाथ को दे दिया। दोपहर

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भाग 22

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>रघुनाथ जब भी शाम को घूमते, टहलते या मिलने-जुलने बाहर जाते थे, कोशिश करते थे कि नौ बजे तक लौट आएँ! रात का खाना वे हमेशा सोनल के साथ खाते थे। यह सोनल की जिद थी! दोपहर को ऐसा तभी संभव हो पाता था जब उसकी

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भाग 23

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रघुनाथ गाँव से लौटे लेकिन 'खुदगर्ज और कृतघ्न' बेटे के जाने के बाद! यह उनकी राय थी अपने छोटे बेटे धनंजय के बारे में। उसे पता था कि इसी नगर के 'अशोक विहार' में उसकी भाभी के साथ बाप भी रहता है लेकिन ठहर

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भाग 24

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भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के सोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल छलछल! कभी-कभी लगता है कि ये अलग-अलग दो सोते नहीं है। सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिए या भरोसा। यह न ह

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रघुनाथ अपने जीवन की लंबाई नापते थे अपने पैरों से - उसकी चाल और ताकत से; फेफड़ों में आती-जाती साँसों से। एक समय था जब वे पंद्रह-सोलह मील चले जाते थे ननिहाल। धूप में! बिना थके, बिना कहीं बैठे - और तरोता

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भाग 26

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जीवनाथ वर्मा जाते-जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो! यह वह बात थी जो कभी उनके अपने दिमाग में ही नहीं आई! अपनों से अलग भी अपना कुछ होता ह

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भाग 27

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की-दरवा

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भाग 28

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रघुनाथ को कुछ पता नहीं कि वे अपने कमरे में कैसे पहुँचे ? कौन ले गया? कब ले गया? कैसे ले गया? कपड़े किसने उतारे? बदन किसने पोंछा और तीस साल पुराना खादी आश्रमवाला वह गाउन या ओवरकोट किसने पहनाया जिसके रो

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भाग 29

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ज्यादा नहीं, हफ्ते दस दिन लगे सोनल को इस घर के एकांत और सन्नाटे के हिसाब से खुद को ढालने में! और जब ढल गई तब मजा आने लगा! अपने 'अकेलेपन' को एंज्वाय करने लगी। वह डेढ़-दो बिस्वे की रियासत की रानी थी -

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