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भाग 26

22 जुलाई 2022

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जीवनाथ वर्मा जाते-जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो!

यह वह बात थी जो कभी उनके अपने दिमाग में ही नहीं आई! अपनों से अलग भी अपना कुछ होता है क्या? क्या बेटे अपने नहीं थे? बेटी अपनी नहीं थी? बीवी अपनी नहीं थी? खेत-खलिहान अपने नहीं थे? यह जरूर है कि इनमें से हर एक अपने लिए उनका जीवन चाहता था। किसी को इस बात की परवाह नहीं थी कि वे जी रहे हैं या मर रहे हैं? उसकी अपनी जरूरत सबसे ऊपर होती थी और नहीं चाहता था कि कोई उस पर सवाल उठाए! आप उसे अपने रास्ते जाने दें और जाने देने में मदद करें तो आप से अच्छा कोई नहीं!

लेकिन क्या उनकी जिंदगी ही रघुनाथ की अपनी जिंदगी थी?

नहीं; होनी चाहिए थी अपनी अलग से जो नहीं हुई! नहीं रही! और जीवनाथ वर्मा यह तब कह रहे हैं जब कान सुन नहीं सकते, आँखें देख नहीं सकतीं, जबड़े चबा नहीं सकते, कमर सीधी नहीं हो सकती! और यह सारा कुछ अपनों के प्रति पिता और पति के कर्तव्य की भेंट चढ़ गया! वे यह मानने के लिए हरगिज तैयार नहीं कि वे 'अपनों' के वेश में दूसरे थे! वे कहीं से टपके नहीं थे, अनचाहे भी नहीं थे। रघुनाथ स्वयं कृतज्ञ भाव से शीला को दूसरे के घर से लाए थे; यह उसका उन पर उपकार था कि उन्हें न जानते-पहचानते हुए भी उनके साथ आई थी और एक नई दुनिया रचने में उनका साथ दिया था।

आखिर किस उम्मीद से रघुनाथ शीला ने मिल कर रची थी यह दुनिया? वे इतने निःस्पृह और निःस्वार्थ तो नहीं थे और उनकी उम्मीद भी उनसे अलग नहीं थी जो गाँव- घर के थे। कि जब वे अशक्त हो जाएँगे तो ये बच्चे उनकी आँखें बनेंगे, उनके हाथ-पाँव बनेंगे। कि वे बीमार होंगे तो यही बच्चे उनकी सेवा करेंगे, दवा-दारू करेंगे, अस्पताल में भर्ती कराएँगे। कि मरने लगेंगे तो मुँह में गंगा जल, तुलसी दल डालेंगे, अर्थी सजाएँगे, श्मशान ले जाएँगे, क्रिया कर्म करेंगे!

लेकिन देखो तो इससे बड़ी मूर्खता क्या हो सकती है? अरे, मरने के बाद सड़ो- गलो, कौवे-चील खाएँ या कुत्ते - क्या फर्क पड़ता है?

लेकिन यही दुनिया का और दुनिया के चलते रहने का कायदा रहा है - कि जीना तुम्हारा कर्तव्य है। किसी ने यह नहीं पूछा खुद से कि किसके लिए जीना है! वह पैदा होने के बाद से जब तक जी रहा है, जीता रहता है! मरने के दिन तक। मरने के दिन बाप बेटे के हाथ वह सारा कुछ सौंप जाता है जो उसके पास रहता है कि लो, सँभालो अब। मैं चला!

रघुनाथ के पास गाँव की जमीन के सिवा कुछ नहीं था और उस जमीन को वे अनमोल समझते थे। बेटे उसे 'कैश' में भुना कर देखते थे और कह रहे थे कि इससे ज्यादा तो मेरी एक महीने की इनकम है।

संजय की इस टिप्पणी ने रघुनाथ के भीतर का सारा जीवन रस चूस लिया था। वे अपने कमरे में खिड़की के पास बैठे हुए कदंब के पत्तों के पार वह आसमान देख रहे थे जो सूर्यास्त के बाद मटमैला पड़ा था। वहाँ उनकी आँखों के सामने एक मद्धिम तारा था जो हिलते पत्तों की ओट कभी छिप जाता, कभी झाँकने लगता! यह तारा नहीं था उनके पिता थे जो उन पर मुसकराते थे और छिप जाते थे!

'अरे जीवनाथ सुनो, सुनो! अपने दिन तो नहीं बचे जीने के लिए लेकिन जिया है मैंने अपने लिए भी।' वे सहसा चिल्लाए जैसे जीवनाथ अभी गेट के बाहर खड़े हों।

तारा का तुक लारा। तारा ने उन्हें लारा की याद दिला दी, उस लारा की जो उनकी नितांत अपनी जिंदगी का गोपनीय हिस्सा थी।

जिन दिनों रघुनाथ अपने 'कैशोर्य' में दाखिल हो रहे थे उन्हीं दिनों उनसे टकरा गई थी लारा चड्ढा। एक अल्हड़ और मासूम-सी लड़की। अंडाकार चेहरेवाली सलोनी साँवली लड़की। सपनीली आँखें। नाक की नोक पर शरारत। ओठों के कोनों पर मुसकान। लहरों की देह पर जैसे हवा में थर-थर बुलबुले। कमी थी तो बस दो डैनों की जिनके सहारे वह जब चाहे तब उड़ सके।

रघुनाथ मामा के घर रह कर पढ़ाई कर रहे थे और वह सामने रहती थी बँगले में। बड़ी बहन हास्टल में थी और वह माँ-बाप के साथ! रघुनाथ से एक क्लास ऊपर थी! वह जब-तब शाम को बल्ब की रोशनी में पापा के साथ बैडमिंटन खेलती थी तो रघुनाथ अपने दरवाजे पर खड़े हो कर देखा करते थे!

एक दिन जब लारा के माँ-बाप किसी समारोह में बाहर गए थे; उसने इशारे से रघुनाथ को बुलाया। वह घर की ड्रेस में थी - स्कर्ट और ब्लाउज में। वह रघुनाथ के साथ कैरम खेलने बैठ गई और कुछ देर खेलती रही! कि अचानक उठी, दौड़ कर लान में गई, पीले गुलाब के फूल के साथ लौटी और बालों में लगा कर खड़ी हो गई - 'अब बोलो, कैसी लग रही हूँ?' भौंचक रघुनाथ देखते रहे और धीरे से बोले - 'अच्छी!'

'अरे, सिर्फ अच्छी?' लारा की आँखें फटी रह गईं।

रघुनाथ की समझ में नहीं आया कि आगे क्या बोलें?

लारा ने पैर से ठेल कर बोर्ड को एक किनारे किया और हाथ पकड़ कर खड़ा कर दिया रघुनाथ को! उसकी आँखें छलछला आईं, बोली - 'गोबर कहीं के! चाहती हूँ कि अच्छी सिर्फ तुम्हारी आँखें नहीं, तुम्हारे ओठ, तुम्हारी उँगलियाँ, तुम्हारी बाँहें, तुम्हारी पूरी देह बोले!' वह एक-एक करके उनकी कमीज और पैंट के बटन खोलती गई - 'अपना भी मैं ही खोलूँ कि तुम भी कुछ करोगे?' शरमाते हुए उनके कान में बुदबुदाई!

जैसे-जैसे वस्त्र उनकी देह से अलग होते गए, वैसे-वैसे एक अजानी, अदेखी, अकल्पित दुनिया खुलती चली गई उनके आगे - धीरे-धीरे! लेकिन यह 'धीरे-धीरे' असह्य हो गया रघुनाथ को! वे बेसब्र और बर्बर हो उठे! वे लारा के संयम पर चकित भी थे और मुग्ध भी! उसने उन्हें आहिस्ता बिछाया और उन्हीं पर बिछ गई - फूलों से रची हुई गाछ की तरह। उन्हें अपने अंदर लेने से पहले उनके कान में फुसफुसाई - 'बुद्धूराम! कभी मिटाना मत!' और उन्हें ढँके हुए जीभ की नोक से दाईं छाती पर लिखा - 'एल.ए.' जब बाईं छाती पर 'आर' लिख रही थी उसी समय 'कालबेल' बजी!

वह उछल कर खड़ी हो गई, बोली - 'पहनो और भागो पीछे से!'

फिर तो महीने भर बाद ही चड्ढा साहब का तबादला हो गया और वह चली गई!

इस बात को या तो रघुनाथ जानते हैं या लारा - तीसरा नहीं! ऐसी बहुत-सी बातें हैं उनकी जिंदगी की जिसे सिर्फ वही जानते हैं! क्या यह अपने लिए जीना नहीं था?

किसी को नहीं पता कि शुरू से ही रघुनाथ ने एक चोरी की जिंदगी जी है जो उनकी नजर आनेवाली जिंदगी से कहीं ज्यादा असली और अपनी रही है! न माँ-बाप को पता, न बीवी को, न बेटे-बेटियों को! इसी जिंदगी के भीतर एक दूसरी जिंदगी! जिसे लोग देखते और समझते रहे हैं, वह दूसरों के लिए और दूसरों के काम की भले रही हो - उनकी अपनी जिंदगी नहीं थी! मजे और जोखम उस जिंदगी में थे जो उनकी निजी थी और जो प्यार की खोज में गुजरी। जमाने से बच-बचा के, लोगों की आँखों से चुरा के, अपनों की आँखों में धूल झोंक के, उन्हें धोखा दे के। जिसे उनके सिवा सिर्फ उसे पता है जो उसमें भागीदार रहा है। उसकी भनक भले मिली हो किसी को, मुकम्मल जानकारी किसी को नहीं। बेटी को अलबत्ता रही है लेकिन हलकी-फुलकी।

मुकम्मल जानकारी तो तुम्हारे कमीनेपन की भी नहीं है किसी को रघुनाथ? वह भी चोरी का ही जीवन था तुम्हारा! तुम हास्टल में थे उन दिनों! तुम्हारा जिगरी दोस्त श्रीराम तिवारी भेंट करने आया था तुमसे! आया था तो अस्पताल अपनी माँ को ले कर - उसकी हालत सीरियस थी। माँ को अपने भाई के जिम्मे छोड़ कर तुमसे मुलाकात करने आ गया था! जब वह जाने लगा तो उसकी जेब से गिरे हुए धागे में बँधे नोट तुमने देखे और चुप रहे! बाद में गिने तो एक सौ तीन रुपए! माँ को दिखा कर घंटे भर बाद फिर आया - चिंतित, परेशान और घबड़ाया! आते ही वह - जहाँ बैठा था वहाँ, फिर चौकी के नीचे, मेज पर और उसके नीचे, कमरे में चारों ओर - देखता रहा! समझने के बावजूद तुमने उससे पूछा - 'क्या बात है?' 'कुछ रुपए थे दवा के लिए, मिल नहीं रहे! और कहीं तो गया नहीं। तुमने तो नहीं देखे?' और तुमने जवाब दिया था - 'अस्पताल की भीड़-भाड़ में सँभल कर रहना चाहिए था! वहाँ जितने पेशेंट आते हैं उतने ही चोर और जेबकतरे भी! यह आम शिकायत है!' 'नहीं यार, और कहीं गया ही नहीं। गिरा होगा तो यहीं और कहीं गिरने या जेब कटने का सवाल ही नहीं है!'

'तो देखो न! कहाँ है यहाँ पर?'

तो रघुनाथ! यह भी तुम्हीं थे! वही तुम्हारी निजी जिंदगी! अगर यह जिंदगी लोगों को पता चल गई होती तो तुम इतने 'आदरणीय' और 'गण्यमान' रह गए होते या नहीं, खुद सोचो!

रघुनाथ ने सोचा और वर्मा की 'अपने लिए जियो' की सलाह पर अविचलित रहे! कि इस दगाबाज 'आदर' और 'प्रतिष्ठा' के मुकाबले आत्मा का यह नंगापन और खुलापन कहीं ज्यादा अच्छा है। अपने लिए भी और समाज के लिए भी! यह सिर्फ आदमी का नहीं, समाज की विसंगतियों का चेहरा है जो ढँका-तुपा है! समाज जाने कि अगर मैं कमीना हूँ तो इस कमीनेपन का गुनहगार अकेला मैं नहीं हूँ, वह भी है बल्कि कहिए कि उसी की वजह से मैं हूँ।

'पापा!' सोनल ने दरवाजे से आवाज दी - 'आप अभी तक अँधेरे में लेटे हैं?' उसने स्विच ऑन किया और कमरा रोशन हो गया!

रघुनाथ की आँखें चौंधियाईं, फिर फैल गईं - पहली बार सोनल के साथ एक नौजवान। लंबा, खूबसूरत, आँखों पर नहीं, माथे पर चश्मा, कंधे पर झोला, खादी के कुर्ते और जींस की पतलून में। एक हाथ में लिपटा हुआ अखबार! रघुनाथ उठ कर बिस्तर पर आ गए!

'पापा, यह है समीर! दैनिक भारत का उप-संपादक!'

रघुनाथ के पैर छुए समीर ने!

'मेरा कजिन है! मैंने बताया था आपको, भूल गए होंगे! जिन दिनों पटना में रिसर्च कर रही थी, उन दिनों यह भी वहीं था! आज अचानक सेमिनार में मिल गया। ले आई अपने साथ!'

'कहाँ रहते हो, बेटा?'

'यहीं पास में ही। संजय नगर में!'

'अरे, वहाँ तो मैं गया हूँ। अपने दोस्त बापट के यहाँ!'

'मैं उन्हीं के फ्लैट के नीचे रहता हूँ! अब तो उनके फ्लैट में उनका बेटा आ गया है बीवी-बच्चे के साथ!'

चौंके रघुनाथ - 'उनका बेटा? बेटा कहाँ था उनके?'

समीर ने सोनल को देखा! सोनल ने बताया कि उन दिनों पापा गाँव गए थे। उन्हें कुछ नहीं पता!

समीर ने कहा - 'पापा जी, क्या आप को खबर है कि बापट का मर्डर हो गया पिछले दिनों? नहर में उनकी लाश मिली थी? और आप आश्चर्य करेंगे कि एफ.आई.आर. इसी बेटे के नाम दर्ज हुई है। पेपर में आया था यह समाचार! इस बेटे को उन्होंने अनाथालय से एडाप्ट किया था जब वह बच्चा था! पढ़ाया-लिखाया था, कोई नौकरी भी दिला दी इसको। चूँकि इसका चाल-चलन अच्छा नहीं था इसलिए निकाल दिया था उन्होंने घर से! यह चाहता था कि अपने रहते फ्लैट उसके नाम लिख दें! शायद लिखवा भी लिया था इसने; इस शर्त पर कि वह इसमें तभी आएगा जब वह नहीं रहेंगे! ... कहना मुश्किल है कि कैसे क्या हुआ?'

रघुनाथ काठ की तरह बैठे रहे - बिना हिले-डुले! थोड़ी देर बाद चश्मा उतारा, गले में लिपटे मफलर से पोंछा, फिर लगा लिया! जैसे वे बापट को देखना चाहते हों। इस नगर में आने के बाद जो आदमी अकेला दोस्त हुआ था उनका वह बापट थे। उनके मुँह से आश्चर्य की तरह नहीं, एक 'आह' की तरह निकले ये वाक्य - 'यह क्या होता जा रहा है लोगों को! यह कैसी होती जा रही है दुनिया! हम बहुत अच्छे नहीं थे लेकिन इतने बुरे तो नहीं थे!'

'पापा, समीर से कह रही हूँ कि इसी नगर में जब अपना घर है तो वहाँ क्यों है? ऊपर तो एक कमरा खाली ही पड़ा है!'

रघुनाथ ने कातर हो कर हाथ जोड़े - 'जो करना हो करो, मुझे अकेला छोड़ दो! प्लीज!'

रघुनाथ ने बिना खाए-पिए रात गुजारी। नींद ही नहीं आई! वे कमरे की बत्ती बुझा कर सोते थे, लेकिन आज जलती हुई छोड़ दी। एक बजे रात तक उनकी आँखों के आगे बापट का चेहरा घूमता रहा और कानों में उनके गाने - हाये हाये ये जालिम जमाना । लेकिन इसके बाद - इसी के बाद उनके दिल ने कान में 'धक्‌-धक्‌' के बजाय 'कत्ल-कत्ल' धड़कना शुरू कर दिया तो रोशनी का रंग पीला से लाल होने लगा। फिर तो वे जिधर नजरें घुमाते, उधर ही फावड़ा, कुल्हाड़ा, हँसिया, चाकू, कटार, ईंट, पत्थर, तमंचा, उछलते-कूदते ललकारते दिखाई पड़ने लगे। थोड़ी ही देर में बल्ब से रोशनी नहीं जैसे खून के फव्वारे छूटने लगे और चारो दीवारें लाल हो गईं! वे उठ कर बैठ गए और खुद से बुदबुदाए - 'इसी दुनिया में कभी हरा रंग भी होता था भाई, वह कहाँ गया?'

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रचनाएँ
रेहन पर रग्घू
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रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है। भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है। उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है
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भाग 1

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवा

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भाग 2

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पहाड़पुर में रघुनाथ एक ही थे। वैसे कहने को तो रामनाथ, शोभनाथ, छविनाथ, शामनाथ, प्रभुनाथ वगैरह वगैरह भी थे लेकिन वे रघुनाथ नहीं थे। और रघुनाथ का यह था कि वे जब कभी जहाँ कहीं नजर आ जाते, गाँव घर के लोग

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भाग 3

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ऐसी मुसीबत में रघुनाथ को किसी और ने नहीं, उन्हीं के बेटों ने डाला था! बेटों में भी संजय ने! खास तौर से संजय ने! और यह लंबी कहानी है - राँची से केलिफोर्निया तक फैली। संजय ने प्यार किया था सोनल को! य

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भाग 4

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जुलाई में शादी हो गई चिरंजीवी संजय और आयुष्मती सोनल की - कोर्ट में। न बारात, न बाजा-गाजा! प्रीतिभोज के लिए न्यौता आया था रघुनाथ के नाम भी, पर वे नहीं गए! ऐसी चोट लगी थी रघुनाथ और शीला को जिसे न वे

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भाग 5

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सरला दुविधा में थी - ब्याह करे या न करे? पक्का सिर्फ इतना था कि उसे वह शादी नहीं करनी है जो पापा तय करेंगे! कई लोचे थे उसकी दुविधा में! अब से कोई सात आठ साल पहले। उसने अपने अंदर कुछ अजब सा बदलाव मह

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भाग 6

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सरला के इस दुःस्वप्न को और भी बदरंग बना दिया था उसकी पड़ोसिनों ने! वह जिस बहुमंजिली इमारत के प्रथम तल के किराए के फ्लैट में रहती थी, उसके अगल बगल भी दो दो छोटे कमरों के फ्लैट थे। उनमें उसी के स्कूल क

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भाग 7

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जिस दिन मैनेजर कालेज आए उस दिन रघुनाथ गाजीपुर गए थे - सरला के लिए लड़का देखने! बीसेक रोज बाद फिर मैनेजर कालेज आए, अबकी फिर रघुनाथ बाहर। आजमगढ़ गए थे लड़का देखने। यह पाँचवाँ या छठा साल था! शादी हाथ म

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भाग 8

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सरला घर आई - छुट्टी के दिन। रविवार को। पहले वह अकसर आती थी। शनिवार की शाम को आती थी, रविवार को रहती थी और सोमवार को तड़के चली जाती थी! मिर्जापुर से घर की दूरी है ही कितनी? बीच में बनारस में एक बस बदल

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भाग 9

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सरला चली तो गई, लेकिन रघुनाथ का सुकून और चैन लिए गई। रघुनाथ कई रातों तक सो नहीं सके! उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी! जाने किन जन्मों का पाप था जो इस जन्म में भोग रहे थे। बच्चों को ऐसे संस्कार कहाँ से म

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भाग 10

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काफी समय लग गया रघुनाथ को घर पर रहने की आदत डालने में। वे रहे तो गाँव में ही, लेकिन गाँव के नहीं रहे। गाँव ही वह नहीं रहा तो वह गाँव के क्या रहते ? पहाड़पुर जाना जाता था अपने बगीचों, बँसवार और पोखर क

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भाग 11

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रात घिर आई थी। गाँव में सन्नाटा पसरा था। हलकी-हलकी झीसियाँ पड़ रही थीं! सिवान मेढकों की टर्र-टर्र और झींगुरों के झन्न्‌-झन्न्‌ से गूँज रहा था। ट्रैक्टर के काम शुरू कर देने के बावजूद ठाकुर हारा हुआ मह

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भाग 12

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पहलवान माने छब्बू पहलवान। पहाड़पुर के ही दक्खिनी हिस्से में घर था बजरंगी सिंह का। वे छब्बू पहलवान के नाम से जाने जाते थे इलाके में। गाँव का नाम दूर-दूर तक रोशन किया था उन्होंने! दंगलों में जहाँ-जहाँ

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भाग 13

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छब्बू के मारे जाने का सदमा जिसे सबसे ज्यादा था, वह रघुनाथ थे! जाने क्या था कि छब्बू जब कभी बगीचे की तरफ आते, नहर या अखाड़े पर आते या अपनी भैंस के साथ उत्तरी सिवान में आते - रघुनाथ के दुआर को जरूर देख

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भाग 14

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रघुनाथ दालान में करवट लेटे थे! 'नहीं-नहीं' करने के बावजूद शीला कमर की उभरी हुई हड्डी के आसपास हल्दी प्याज चूना का घोल छोप रही थी! और मुँह के अंदर ही अंदर कुछ बुदबुदाती भी जा रही थी नाक सुड़कते हुए।

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भाग 15

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इन्हीं दिनों रघुनाथ को एक इलहाम हुआ। कि 'शरीफ' इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी; भले आदमी का मतलब है 'कायर' आदमी। जब कोई आपको 'विद्वान' कहे तो उसका अर्थ 'मूर्ख' समझिए, और जब कोई 'सम्मानित' कहे तो 'दयनीय

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भाग 16

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घर में फोन अब जी का जंजाल हो गया था! जब रघुनाथ ने कनेक्शन लिया था तो राजू की जिद पर - कि संजू अमेरिका से जब बात करना चाहेगा तो कैसे करेगा? कोई संदेश ही देना हो तो? भाभी ही मम्मी से कुछ बोलना या पूछना

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भाग 17

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रघुनाथ ने कहा था पाँच दिन लेकिन लग गए पचास दिन! इसमें उनका कोई दोष नहीं था। सोचा था कि जब जाना ही है तो यहाँ की सारी समस्याएँ निपटा कर जाएँ, यह न हो कि रहें वहाँ और मन लगा रहे यहाँ! बहुत सोच-विचार क

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भाग 18

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वह घर जिसे राँची के प्रोफेसर राजीव सक्सेना ने रिटायर होने के बाद अपने रहने के लिए बनारस में बनवाया था और जिसे अपनी बेटी सोनल के नाम कर दिया था, वह 'अशोक विहार' में था। बनारस में मुहल्ले थे, नगर, विहा

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भाग 19

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इसी छोटे से-अशोक विहार के लेन नं. 4 के डी-1 में अमेरिका से आई सोनल सक्सेना रघुवंशी। तीन साल बाद। उसके डैडी आए थे सोनल की 'सैंट्रो' पहुँचाने और विश्वविद्यालय में ज्वाइन कराने। इतना ही नहीं किया उन्हो

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भाग 20

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शीला को सोनल ने वह मान-सम्मान दिया जो कोई बहू क्या देगी अपनी सास को? सुबह-शाम 'मम्मी', दोपहर-रात 'मम्मी', घर में 'मम्मी' बाहर 'मम्मी' - बस हर तरफ मम्मी की गूँज! जब कि शीला सोनल के साथ आई थी लोकलाज के

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शीला सोनल के आग्रह पर तब तक रुकी रही जब तक खाना बनानेवाली नौकरानी की व्यवस्था नहीं हो गई। जिस दिन शीला गई, उसी दिन सोनल ने गेट और घर की तालियों के 'डुप्लिकेट' बनवाए और उन्हें रघुनाथ को दे दिया। दोपहर

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भाग 22

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>रघुनाथ जब भी शाम को घूमते, टहलते या मिलने-जुलने बाहर जाते थे, कोशिश करते थे कि नौ बजे तक लौट आएँ! रात का खाना वे हमेशा सोनल के साथ खाते थे। यह सोनल की जिद थी! दोपहर को ऐसा तभी संभव हो पाता था जब उसकी

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भाग 23

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रघुनाथ गाँव से लौटे लेकिन 'खुदगर्ज और कृतघ्न' बेटे के जाने के बाद! यह उनकी राय थी अपने छोटे बेटे धनंजय के बारे में। उसे पता था कि इसी नगर के 'अशोक विहार' में उसकी भाभी के साथ बाप भी रहता है लेकिन ठहर

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भाग 24

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भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के सोत! इन्हीं सोतों से फूटती है जिंदगी और फिर बह निकलती है - कलकल छलछल! कभी-कभी लगता है कि ये अलग-अलग दो सोते नहीं है। सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिए या भरोसा। यह न ह

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रघुनाथ अपने जीवन की लंबाई नापते थे अपने पैरों से - उसकी चाल और ताकत से; फेफड़ों में आती-जाती साँसों से। एक समय था जब वे पंद्रह-सोलह मील चले जाते थे ननिहाल। धूप में! बिना थके, बिना कहीं बैठे - और तरोता

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भाग 26

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जीवनाथ वर्मा जाते-जाते एक नई मुसीबत खड़ी कर गए थे यह कहते हुए कि अपनों के लिए बहुत जी चुके रग्घू, अब अपने लिए जियो! यह वह बात थी जो कभी उनके अपने दिमाग में ही नहीं आई! अपनों से अलग भी अपना कुछ होता ह

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जनवरी की वह शाम कभी नहीं भूलेगी! शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया था और खा कर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की-दरवा

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रघुनाथ को कुछ पता नहीं कि वे अपने कमरे में कैसे पहुँचे ? कौन ले गया? कब ले गया? कैसे ले गया? कपड़े किसने उतारे? बदन किसने पोंछा और तीस साल पुराना खादी आश्रमवाला वह गाउन या ओवरकोट किसने पहनाया जिसके रो

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भाग 29

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ज्यादा नहीं, हफ्ते दस दिन लगे सोनल को इस घर के एकांत और सन्नाटे के हिसाब से खुद को ढालने में! और जब ढल गई तब मजा आने लगा! अपने 'अकेलेपन' को एंज्वाय करने लगी। वह डेढ़-दो बिस्वे की रियासत की रानी थी -

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