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भाग 17

11 जून 2022

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चपला कोई साधारण औरत न थी। खूबसूरती और नजाकत के अलावा उसमें ताकत भी थी। दो-चार आदमियों से लड़ जाना या उनको गिरफ्तार कर लेना उसके लिए एक अदना-सा काम था, शस्त्र विद्या को पूरे तौर पर जानती थी। ऐयारी के फन के अलावा और भी कई गुण उसमें थे। गाने और बजाने में उस्ताद, नाचने में कारीगर, आतिशबाजी बनाने का बड़ा शौक, कहाँ तक लिखें, कोई फन ऐसा न था जिसको चपला न जानती हो। रंग उसका गोरा, बदन हर जगह सुडौल, नाजुक हाँथ-पाँव की तरफ ख्याल करने से यही जाहिर होता था कि इसे एक फूल से मारना खून करना है। उसको जब कहीं बाहर जाने की जरूरत पड़ती थी तो अपनी खूबसूरती जान-बूझ कर बिगाड़ डालती थी या भेष बदल लेती थी।

अब इस वक्त शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी जा चुकी है। चंद्रमा अपनी पूरी किरणों से निकला हुआ है। चपला अपनी असली सूरत में चली जा रही है, ऐयारी का बटुआ बगल में लटकाए कमंद कमर में कसे और खंजर भी लगाए हुए जंगल-ही-जंगल कदम बढ़ाए जा रही है। तेजसिंह की याद ने उसको ऐसा बेकल कर दिया है कि अपने बदन की भी खबर नहीं। उसको यह मालूम नहीं कि वह किस काम के लिए बाहर निकली है या कहाँ जा रही है, उसके आगे क्या है, पत्थर या गड्ढा, नदी है या नाला, खाली पैर बढ़ाए जाना ही यही उसका काम है। आँखों से आँसू की बूँदे गिर रही हैं, सारा कपड़ा भीग गया है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर ठोकर खाती है, उँगलियों से खून गिर रहा है मगर उसको इसका कुछ ख्याल नहीं। आगे एक नाला आया जिस पर चपला ने कुछ ध्यान न दिया और धम्म से उस नाले में गिर पड़ी, सिर फट गया, खून निकलने लगा, कपड़े बदन के सब भीग गए। अब उसको इस बात का ख्याल हुआ कि तेजसिंह को छुड़ाने या खोजने चली है। उसके मुँह से झट यह बात निकली - ‘हाय प्यारे मैं तुमको बिल्कुल भूल गई, तुम्हारे छुड़ाने की फिक्र मुझको जरा भी न रही, उसी की यह सजा मिली।’

अब चपला सँभल गई और सोचने लगी कि वह किस जगह है। खूब गौर करने पर उसे मालूम हुआ कि रास्ता बिल्कुल भूल गई है और एक भयानक जंगल में आ फँसी है। कुछ क्षण के लिए तो वह बहुत डर गई मगर फिर दिल को सँभाला, उस खतरनाक नाले से पीछे फिरी और सोचने लगी, इसमें तो कोई शक नहीं कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने पकड़ लिया है, तो जरूर चुनारगढ़ ही ले भी गए होंगे। पहले वहीं खोज करनी चाहिए, जब न मिलेंगे तो दूसरी जगह पता लगाऊँगी।

यह विचार कर चुनारगढ़ का रास्ता ढूँढ़ने लगी। हजार खराबी से आधी रात गुजर जाने के बाद रास्ता मिल गया, अब सीधे चुनारगढ़ की तरफ पहाड़-ही-पहाड़ चल निकली, जब सुबह करीब हुई उसने अपनी सूरत एक मर्द सिपाही की-सी बना ली। नहाने–धोने, खाने-पीने की कुछ फिक्र नहीं सिर्फ रास्ता तय करने की उसको धुन थी। आखिर भूखी-प्यासी शाम होते चुनारगढ़ पहुँची। दिल में ठान लिया था कि जब तक तेजसिंह का पता न लगेगा-अन्न जल ग्रहण न करूँगी। कहीं आराम न लिया, इधर-उधर ढूँढ़ने और तलाश करने लगी। एकाएक उसे कुछ चालाकी सूझी, उसने अपनी पूरी सूरत पन्नालाल की बना ली और घसीटासिंह ऐयार के डेरे पर पहुँची।

हम पहले लिख चुके हैं कि छः ऐयारों में से चार ऐयार विजयगढ़ गए हैं और घसीटासिंह और चुन्नीलाल चुनारगढ़ में ही रह गए हैं। घसीटासिंह पन्नालाल को देख कर उठ खड़े हुए और साहब सलामत के बाद पूछा - ‘कहो पन्नालाल, अबकी बार किसको लाए?’

पन्नालाल – ‘इस बार लाए तो किसी को नहीं, सिर्फ इतना पूछने आए हैं कि नाजिम यहाँ है या नहीं, उसका पता नहीं लगता।’

घसीटासिंह – ‘यहाँ तो नहीं आया।’

पन्नालाल – ‘फिर उसको पकड़ा किसने? वहाँ तो अब कोई ऐयार नहीं है।’

घसीटासिंह – ‘यह तो मैं नहीं कह सकता कि वहाँ और कोई भी ऐयार है या नहीं, सिर्फ तेजसिंह का नाम तो मशहूर था सो कैद हो गए, इस वक्त किले में बंद पड़े रोते होंगे।’

पन्नालाल – ‘खैर, कोई हर्ज नहीं, पता लग ही जाएगा, अब जाता हूँ रुक नहीं सकता। यह कह नकली पन्नालाल वहाँ से रवाना हुए।’

अब चपला का जी ठिकाने हुआ। यह सोच कर कि तेजसिंह का पता लग गया और वे यहीं मौजूद हैं, कोई हर्ज नहीं। जिस तरह होगा छुड़ा लेगी, वह मैदान में निकल गई और गंगाजी के किनारे बैठ अपने बटुए में से कुछ मेवा निकाल के खाया, गंगाजल पी के निश्चिंत हुई और, तब अपनी सूरत एक गाने वाली औरत की बनाई। चपला को खूबसूरत बनाने की कोई जरूरत नहीं थी, वह खुद ऐसी थी कि हजार खुबूसूरतों का मुकाबला करे, मगर इस सबब से कोई पहचान ले उसको अपनी सूरत बदलनी पड़ी। जब हर तरह से लैस हो गई, एक बंशी हाथ में ले राजमहल के पिछवाड़े की तरफ जा एक साफ जगह देख बैठ गई और चढ़ी आवाज में एक बिरहा गाने लगी, एक बार फिर स्वयं गा कर फिर उसी गत को बंशी पर बजाती।

रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, राजमहल में शिवदत्त महल की छत पर मायारानी के साथ मीठी-मीठी बातें कर रहे थे, एकाएक गाने की आवाज उनके कानों में गई और महारानी ने भी सुनी। दोनों ने बातें करना छोड़ दिया और कान लगा कर गौर से सुनने लगे। थोड़ी देर बाद बंशी की आवाज आने लगी जिसका बोल साफ मालूम पड़ता था। महाराज की तबीयत बेचैन हो गई, झट लौंडी को बुला कर हुक्म दिया - ‘किसी को कहो, अभी जा कर उसको इस महल के नीचे ले आए जिसके गाने की आवाज आ रही है।’

हुक्म पाते ही पहरेदार दौड़ गए, देखा कि एक नाजुक बदन बैठी गा रही है। उसकी सूरत देख कर लोगों के होशो-हवास ठिकाने न रहे, बहुत देर के बाद बोले - ‘महाराज ने महल के करीब आपको बुलाया है और आपका गाना सुनने के बहुत मुश्तहक (बैचेन) हैं’

चपला ने कुछ इनकार न किया, उन लोगों के साथ-साथ महल के नीचे चली आई और गाने लगी। उसके गाने ने महाराज को बेताब कर दिया। दिल को रोक न सके, हुक्म दिया कि उसको दीवान खाने में ले जा कर बैठाया जाए और रोशनी का बंदोबस्त हो, हम भी आते हैं।

महारानी ने कहा - ‘आवाज से यह औरत मालूम होती है, क्या हर्ज है अगर महल में बुला ली जाए।’

महाराज ने कहा - ‘पहले उसको देख-समझ लें तो फिर जैसा होगा किया जाएगा, अगर यहाँ आने लायक होगी तो तुम्हारी भी खातिर कर दी जाएगी।’

हुक्म की देर थी, सब सामान लैस हो गया। महाराज दीवान खाने में जा विराजे। बीबी चपला ने झुक कर सलाम किया। महाराज ने देखा कि एक औरत निहायत हसीन, रंग गोरा, सुरमई रंग की साड़ी और धानी बूटीदार चोली दक्षिणी ढंग पर पहने पीछे से लांग बाँधे, खुलासा गड़ारीदार जूड़ा कांटे से बाँधे, जिस पर एक छोटा-सा सोने का फूल, माथे पर एक बड़ा-सा रोली का टीका लगाए, कानों में सोने की निहायत खूबसूरत जड़ाऊ बालियाँ पहने, नाक में सरजा की नथ, एक टीका सोने का और घूँघरुदार पटड़ी गूथन के गले में पहने, हाथ में बिना घुंडी का कड़ा व छंदेली जिसके ऊपर काली चूड़ियाँ, कमर में लच्छेदार कर्धनी और पैर में साँकङा पहने, अजब आनबान से सामने खड़ी है। गहना तो मुख्तसर ही है मगर बदन की गठाई और सुडौली पर इतना ही आफत हो रहा है। गौर से निगाह करने पर एक छोटा-सा तिल ठुड्डी के बगल में देखा जो चेहरे को और भी रौनक दे रहा था।

महाराज के होश जाते रहे, अपनी महारानी साहब को भूल गए जिस पर रीझे हुए थे, झट मुँह से निकल पड़ा – ‘वाह। क्या कहना है।’ टकटकी बँध गई। महाराज ने कहा - ‘आओ, यहाँ बैठो।’ बीबी चपला कमर को बल देती हुई अठखेलियों के साथ कुछ नजदीक जा, सलाम करके बैठ गई। महाराज उसके हुस्न के रोब में आ गए, ज्यादा कुछ कह न सके एकटक सूरत देखने लगे। फिर पूछा - ‘तुम्हारा मकान कहाँ है? कौन हो? क्या काम है? तुम्हारी जैसी औरत का अकेली रात के समय घूमना ताज्जुब में डालता है।’ उसने जवाब दिया - ‘मैं ग्वालियर की रहने वाली पटलापा कत्थक की लड़की हूँ। रंभा मेरा नाम है। मेरा बाप भारी गवैया था। एक आदमी पर मेरा जी आ गया, बात-की-बात में वह मुझसे गुस्सा हो के चला गया, उसी की तलाश में मारी-मारी फिरती हूँ। क्या करूँ, अकसर दरबारों में जाती हूँ कि शायद कहीं मिल जाए क्योंकि वह भी बड़ा भारी गवैया है, सो ताज्जुब नहीं, किसी दरबार में हो, इस वक्त तबीयत की उदासी में यों ही कुछ गा रही थी कि सरकार ने याद किया, हाजिर हुई।’

महाराज ने कहा - ‘तुम्हारी आवाज बहुत भली है, कुछ गाओ तो अच्छी तरह सुनूँ।’

चपला ने कहा - ‘महाराज ने इस नाचीज पर बड़ी मेहरबानी की जो नजदीक बुला कर बैठाया और लौंडी को इज्जत दी। अगर आप मेरा गाना सुनना चाहते हैं तो अपने मुलाजिम सपर्दारों (साज बजाने वाले) को तलब करें, वे लोग साथ दें तो कुछ गाने का लुत्फ आए, वैसे तो मैं हर तरह से गाने को तैयार हूँ।’

यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और हुक्म दिया कि - ‘सपर्दा हाजिर किए जाएँ।’ प्यादे दौड़ गए और सपर्दाओं का सरकारी हुक्म सुनाया। वे सब हैरान हो गए कि तीन पहर रात गुजरे महाराज को क्या सूझी है। मगर लाचार हो कर आना ही पड़ा। आ कर जब एक चाँद के टुकड़े को सामने देखा तो तबीयत खुश हो गई। कुढ़े हुए आए थे मगर अब खिल गए। झट साज मिला करीने से बैठे, चपला ने गाना शुरू किया। अब क्या था, साज व सामान के साथ गाना, पिछली रात का समा, महाराज को बुत बना दिया, सपर्दा भी दंग रह गए, तमाम इल्म आज खर्च करना पड़ा। बेवक्त की महफिल थी इस पर भी बहुत-से आदमी जमा हो गए। दो चीज दरबारी की गाई थी कि सुबह हो गई। फिर भैरवी गाने के बाद चपला ने बंद करके अर्ज किया - ‘महाराज, अब सुबह हो गई, मैं भी कल की थकी हूँ क्योंकि दूर से आई थी, अब हुक्म हो तो रुखसत होऊँ?’

चपला की बात सुन कर महाराज चौंक पड़े। देखा तो सचमुच सवेरा हो गया है। अपने गले से मोती की माला उतार कर इनाम में दी और बोले - ‘अभी हमारा जी तुम्हारे गाने से बिल्कुल नहीं भरा है, कुछ रोज यहाँ ठहरो, फिर जाना।’

रंभा ने कहा - ‘अगर महाराज की इतनी मेहरबानी लौंडी के हाल पर है तो मुझको कोई हर्ज रहने में नहीं।’

महाराज ने हुक्म दिया कि रंभा के रहने का पूरा बंदोबस्त हो और आज रात को आम महफिल का सामान किया जाए। हुक्म पाते ही सब सरंजाम हो गया, एक सुंदर मकान में रंभा का डेरा पड़ गया, नौकर मजदूर सब तयनात कर दिए गए।

आज की रात आज की महफिल थी। अच्छे आदमी सब इकट्ठे हुए, रंभा भी हाजिर हुई, सलाम करके बैठ गई। महफिल में कोई ऐसा न था जिसकी निगाह रंभा की तरफ न हो। जिसको देखो लंबी साँसें भर रहा है, आपस में सब यही कहते हैं कि वाह, क्या भोली सूरत है, क्यों?, कभी आज तक ऐसी हसीना तुमने देखी थी?’

रंभा ने गाना शुरू किया। अब जिसको देखिए मिट्टी की मूरत हो रहा है। एक गीत गा कर चपला ने अर्ज किया - ‘महाराज एक बार नौगढ़ में राजा सुरेंद्रसिंह की महफिल में लौंडी ने गाया था। वैसा गाना आज तक मेरा फिर न जमा, वजह यह थी कि उनके दीवान के लड़के तेजसिंह ने मेरी आवाज के साथ मिल कर बीन बजाई थी, हाय, मुझको वह महफिल कभी न भूलेगी। दो-चार रोज हुआ, मैं फिर नौगढ़ गई थी, मालूम हुआ कि वह गायब हो गया। तब मैं भी वहाँ न ठहरी, तुरंत वापस चली आई।’ इतना कह रंभा अटक गई। महाराज तो उस पर दिलोजान दिए बैठे थे। बोले - ‘आजकल तो वह मेरे यहाँ कैद है पर मुश्किल तो यह है कि मैं उसको छोड़ूँगा नहीं और कैद की हालत में वह कभी बीन न बजाएगा।’

रंभा ने कहा - ‘जब वह मेरा नाम सुनेगा तो जरूर इस बात को कबूल करेगा मगर उसको एक तरीके से बुलाया जाए, वह अलबत्ता मेरा संग देगा नहीं तो मेरी भी न सुनेगा क्योंकि वह बड़ा जिद्दी है।’

महाराज ने पूछा - ‘वह कौन-सा तरीका है?’

रंभा ने कहा - ‘एक तो उसके बुलाने के लिए ब्राह्मण जाए और वह उम्र में बीस वर्ष से ज्यादा न हो, दूसरे जब वह उसको लावे, दूसरा कोई संग न हो, अगर भागने का खौफ हो तो बेड़ी उसके पैर में पड़ी रहे इसका कोई मुजाएका (आपति) नहीं, तीसरे यह कि बीन कोई उम्दा होनी चाहिए।’

महाराज ने कहा - ‘यह कौन-सी बड़ी बात है।’ इधर-उधर देखा तो एक ब्राह्मण का लड़का चेतराम नामी उस उम्र का नजर आया, उसे हुक्म दिया कि तू जा कर तेजसिंह को ले आ, मीर मुंशी ने कहा - ‘तुम जा कर पहरे वालों को समझा दो कि तेजसिंह के आने में कोई रोक-टोक न करे, हाँ, एक बेड़ी उसके पैर में जरूर पड़ी रहे।’

हुक्म पा चेतराम तेजसिंह को लेने गया और मीरमुंशी ने भी पहरेवालों को महाराज का हुक्म सुनाया। उन लोगों को क्या हर्ज था, तेजसिंह को अकेले रवाना कर दिया। तेजसिंह तुरंत समझ गए कि कोई दोस्त जरूर यहाँ आ पहुँचा है तभी तो उसने ऐसी चालाकी की शर्त से मुझको बुलाया है। खुशी-खुशी चेतराम के साथ रवाना हुए। जब महफिल में आए, अजब तमाशा नजर आया। देखा कि एक बहुत ही खूबसूरत औरत बैठी है और सब उसी की तरफ देख रहे हैं। जब तेजसिंह महफिल के बीच में पहुँचेगा, रंभा ने आवाज दी - ‘आओ, आओ तेजसिंह, रंभा कब से आपकी राह देख रही है। भला वह बीन कब भूलेगी जो आपने नौगढ़ में बजाई थी।’ यह कहते हुए रंभा ने तेजसिंह की तरफ देख कर बाईं आँख बंद की। तेजसिंह समझ गए कि यह चपला है, बोले - ‘रंभा, तू आ गई। अगर मौत भी सामने नजर आती हो तो भी तेरे साथ बीन बजा के मरूँगा, क्योंकि तेरे जैसे गाने वाली भला कहाँ मिलेगी।’

तेजसिंह और रंभा की बात सुन कर महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ मगर धुन तो यह थी कि कब बीन बजे और कब रंभा गाए। बहुत उम्दी बीन तेजसिंह के सामने रखी गई और उन्होंनें बजाना शुरू किया, रंभा भी गाने लगी। अब जो समा बँधा उसकी क्या तारीफ की जाए। महाराज तो सकते की-सी हालत में हो गए। औरों की कैफियत दूसरी हो गई।

एक ही गीत का साथ दे कर तेजसिंह ने बीन हाथ से रख दी।

महाराज ने कहा – ‘क्यों और बजाओ?’

तेजसिंह ने कहा - ‘बस, मैं एक रोज में एक ही गीत या बोल बजाता हूँ इससे ज्यादा नहीं। अगर आपको सुनने का ज्यादा शौक हो तो कल फिर सुन लीजिएगा।’

रंभा ने भी कहा - ‘हाँ, महाराज यही तो इनमें ऐब है। राजा सुरेंद्रसिंह, जिनके यह नौकर थे, कहते-कहते थक गए मगर इन्होंने एक न मानी, एक ही बोल बजा कर रह गए। क्या हर्ज है कल फिर सुन लीजिएगा।’

महाराज सोचने लगे कि अजब आदमी है, भला इसमें इसने क्या फायदा सोचा है, अफसोस। मेरे दरबार में यह न हुआ। रंभा ने भी बहुत कुछ हर्ज करके गाना मौकूफ (स्थगित) किया। सभी के दिल में हसरत बनी रह गई। महाराज ने अफसोस के साथ मजलिस बर्खास्त की और तेजसिंह फिर उसी चेतराम ब्राह्मण के साथ जेल भेज दिए गए।

महाराज को तो अब इश्क को हो गया कि तेजसिंह के बीन के साथ रंभा का गाना सुनें। फिर दूसरे रोज महफिल हुई और उसी चेतराम ब्राह्मण को भेज कर तेजसिंह बुलाए गए। उस रोज भी एक बोल बजा कर उन्होंने बीन रख दी। महाराज का दिल न भरा, हुक्म दिया कि कल पूरी महफिल हो। दूसरे दिन फिर महफिल का सामान हुआ। सब कोई आ कर पहले ही से जमा हो गए, मगर रंभा महफिल में जाने के वक्त से घंटे भर पहले दाँव बचा चेतराम की सूरत बना कैदखाने में पहुँची। पहरेवाले जानते ही थे कि चेतराम अकेला तेजसिंह को ले जाएगा, महाराज का हुक्म ही ऐसा है। उन्होंने ताला खोल कर तेजसिंह को निकाला और पैर में बेड़ी डाल चेतराम के हवाले कर दिया। चेतराम (चपला) उनको ले कर चलते बने। थोड़ी दूर जा कर चेतराम ने तेजसिंह की बेड़ी खोल दी। अब क्या था, दोनों ने जंगल का रास्ता लिया।

कुछ दूर जा कर चपला ने अपनी सूरत बदल ली और असली सूरत में हो गई, अब तेजसिंह उसकी तारीफ करने लगे।

चपला ने कहा - ‘आप मुझको शर्मिंदा न करें क्योंकि मैं अपने को इतना चालाक नहीं समझती जितनी आप तारीफ कर रहे हैं, फिर मुझको आपको छुड़ाने की कोई गरज भी न थी, सिर्फ चंद्रकांता की बेमुरव्वत से मैंने यह काम किया।’

तेजसिंह ने कहा - ‘ठीक है, तुमको मेरी गरज काहे हो होगी। गरजूँ तो मैं ठहरा कि तुम्हारे साथ सपर्दा बना, जो काम बाप-दादों ने न किया था सो करना पड़ा।’ यह सुन चपला हँस पड़ी और बोली - ‘बस माफ कीजिए, ऐसी बातें न करिए।’

तेजसिंह ने कहा - ‘वाह, माफ क्या करना, मैं बगैर मजदूरी लिए न छोडूँगा।’

चपला ने कहा - ‘मेरे पास क्या है जो मैं दूँ?’

उन्होंने कहा - ‘जो कुछ तुम्हारे पास है वही मेरे लिए बहुत है।’

चपला ने कहा - ‘खैर, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि यहाँ से खाली ही चलिएगा या महाराज शिवदत्त को कुछ हाथ भी दिखाइएगा?’

तेजसिंह ने कहा - ‘इरादा तो मेरा यही था, आगे तुम जैसा कहो।’

चपला ने कहा - ‘जरूर कुछ करना चाहिए।’

बहुत देर तक आपस में सोच-विचार कर दोनों ने एक चालाकी ठहराई जिसे करने के लिए ये दोनों उस जगह से दूसरे घने जंगल में चले गए। 

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रचनाएँ
चंद्रकांता
5.0
पहला प्रसिद्ध उपन्यास चंद्रकांता सन्‌ 1888 ई. में काशी में प्रकाशित हुआ था। उसके चारो भागों के कुछ ही दिनों में कई संस्करण हो गए थे। चन्द्रकान्ता सन्तति (1894 - 1904): चन्द्रकान्ता की अभूतपूर्व सफलता से प्रेरित हो कर देवकीनन्दन खत्री ने चौबीस भागों वाले विशाल उपन्यास चंद्रकान्ता सन्तति की रचना की।
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भाग 1

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शाम का वक्त है,  कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर आपस में बातें कर रहे हैं। वीरेंद्रसिंह की उम्र इक्कीस या

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भाग 2

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विजयगढ़ में क्रूरसिंह अपनी बैठक के अंदर नाजिम और अहमद दोनों ऐयारों के साथ बातें कर रहा है। क्रूरसिंह – ‘देखो नाजिम, महाराज का तो यह ख्याल है कि मैं राजा होकर मंत्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और च

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भाग 3

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कुछ-कुछ दिन बाकी है, चंद्रकांता, चपला और चंपा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिल कर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घन

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भाग 4

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तेजसिंह वीरेंद्रसिंह से रुखसत होकर विजयगढ़ पहुँचेगा और चंद्रकांता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए

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भाग 5

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अहमद ने, जो बाग के पेड़ पर बैठा हुआ था जब देखा कि चपला ने नाजिम को गिरफ्तार कर लिया और महल में चली गई तो सोचने लगा कि चंद्रकांता, चपला और चंपा बस यही तीनों महल में गई हैं, नाजिम इन सभी के साथ नहीं गया

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भाग 6

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तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर वीरेंद्रसिंह अपने महल में आए मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चंद्रकांता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चंद्रकांता की तस्वीर अपने

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भाग 7

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अहमद के पकड़े जाने से नाजिम बहुत उदास हो गया और क्रूरसिंह को तो अपनी ही फिक्र पड़ गई कि कहीं तेजसिंह मुझको भी न पकड़ ले जाए। इस खौफ से वह हरदम चौकन्ना रहता था, मगर महाराज जयसिंह के दरबार में रोज आता औ

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भाग 8

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वीरेंद्रसिंह चंद्रकांता से मीठी-मीठी बातें कर रहे हैं, चपला से तेजसिंह उलझ रहे हैं, चंपा बेचारी इन लोगों का मुँह ताक रही है। अचानक एक काला कलूटा आदमी सिर से पैर तक आबनूस का कुंदा, लाल-लाल आँखें, लंगोट

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भाग 9

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वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह बाग के बाहर से अपने खेमे की तरफ रवाना हुए। जब खेमे में पहुँचे तो आधी रात बीत चुकी थी, मगर तेजसिंह को कब चैन पड़ता था, वीरेंद्रसिंह को पहुँचा कर फिर लौटे और अहमद की सूरत बना क्र

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भाग 10

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क्रूरसिंह की तबाही का हाल शहर-भर में फैल गया। महारानी रत्नगर्भा (चंद्रकांता की माँ) और चंद्रकांता इन सभी ने भी सुना। कुमारी और चपला को बड़ी खुशी हुई। जब महाराज महल में गए तो हँसी-हँसी में महारानी ने क

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भाग 11

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क्रूरसिंह को बस एक यही फिक्र लगी हुई थी कि जिस तरह बने वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह को मार डालना ही नहीं चाहिए, बल्कि नौगढ़ का राज्य ही गारत कर देना चाहिए। नाजिम को साथ लिए चुनारगढ़ पहुँचा और शिवदत्त के दर

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भाग 12

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वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह नौगढ़ के किले के बाहर निकल बहुत से आदमियों को साथ लिए चंद्रप्रभा नदी के किनारे बैठ शोभा देख रहे थे। एक तरफ से चंद्रप्रभा दूसरी तरफ से करमनाशा नदी बहती हुई आई हैं और किले के नीच

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भाग 13

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तीन पहर रात गुजर गई, उनके सब दोस्त जो बेहोश पड़े थे वह भी होश में आए मगर अपनी हालत देख-देख हैरान थे। लोगों ने पूछा - ‘आप लोग कैसे बेहोश हो गए और दीवान साहब कहाँ हैं?’ उन्होंने कहा - ‘एक गंधी इत्र बेच

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भाग 14

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नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियाँ चंद्रप्रभा और कर्मनाशा घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जाबूजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों

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भाग 15

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हम पहले यह लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त के यहाँ जितने ऐयार हैं सभी को तेजसिंह पहचानते हैं। अब तेजसिंह को यह जानने की फिक्र हुई कि उनमें से कौन-कौन चार आए हैं, इसलिए दूसरे दिन शाम के वक्त उन्होंने अप

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भाग 16

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एक दिन तेजसिंह बालादवी के लिए विजयगढ़ के बाहर निकले। पहर दिन बाकी था जब घूमते-फिरते बहुत दूर निकल गए। देखा कि एक पेड़ के नीचे कुँवर वीरेंद्रसिंह बैठे हैं। उनकी सवारी का घोड़ा पेड़ से बँधा हुआ है, सामन

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भाग 17

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चपला कोई साधारण औरत न थी। खूबसूरती और नजाकत के अलावा उसमें ताकत भी थी। दो-चार आदमियों से लड़ जाना या उनको गिरफ्तार कर लेना उसके लिए एक अदना-सा काम था, शस्त्र विद्या को पूरे तौर पर जानती थी। ऐयारी के फ

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भाग 18

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अब महाराज शिवदत्त की महफिल का हाल सुनिए। महाराज शिवदत्तसिंह महफिल में आ विराजे। रंभा के आने में देर हुई तो एक चोबदार को कहा कि जा कर उसको बुला लाएँ और चेतराम ब्राह्मण को तेजसिंह को लाने के लिए भेजा।

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भाग 19

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तेजसिंह को छुड़ाने के लिए जब चपला चुनारगढ़ गई तब चंपा ने जी में सोचा कि ऐयार तो बहुत से आए हैं और मैं अकेली हूँ, ऐसा न हो, कभी कोई आफत आ जाए। ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिसमें ऐयारों का डर न रहे और रात को भ

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भाग 20

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महाराज शिवदत्तसिंह ने घसीटासिंह और चुन्नीलाल को तेजसिंह को पकड़ने के लिए भेज कर दरबार बर्खास्त किया और महल में चले गए, मगर दिल उनका रंभा की जुल्फों में ऐसा फँस गया था कि किसी तरह निकल ही नहीं सकता था।

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भाग 21

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दूसरे दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे हरदयालसिंह से तेजसिंह का हाल पूछ रहे थे कि अभी तक पता लगा या नहीं, कि इतने में सामने से तेजसिंह एक बड़ा भारी गट्ठर पीठ पर लादे हुए आ पहुँचे। गठरी तो दरबार के बीच

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भाग 22

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सुबह होते ही कुमार नहा-धो कर जंगी कपड़े पहन हथियारों को बदन पर सजा माँ-बाप से विदा होने के लिए महल में गए। रानी से महाराज ने रात ही सब हाल कह दिया था। वे इनका फौजी ठाठ देख कर दिल में बहुत खुश हुईं। कु

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भाग 23

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शाम को महाराज से मिलने के लिए वीरेंद्रसिंह गए। महाराज उन्हें अपनी बगल में बैठा कर बातचीत करने लगे। इतने में हरदयालसिंह और तेजसिंह भी आ पहुँचे। महाराज ने हाल पूछा। उन्होंने अर्ज किया कि फौज मुकाबले में

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चंद्रकांता दूसरा - भाग 1

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इस आदमी को सभी ने देखा मगर हैरान थे कि यह कौन है, कैसे आया और क्या कह गया। तेजसिंह ने जोर से पुकार के कहा - ‘आप लोग चुप रहें, मुझको मालूम हो गया कि यह सब ऐयारी हुई है, असल में कुमारी और चपला दोनों जीत

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भाग 2

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मामूली वक्त पर आज महाराज ने दरबार किया। कुमार और तेजसिंह भी हाजिर हुए। आज का दरबार बिल्कुल सुस्त और उदास था, मगर कुमार ने लड़ाई पर जाने के लिए महाराज से इजाजत ले ली और वहाँ से चले गए। महाराज भी उदासी

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भाग 3

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कुछ दिन बाकी है, एक मैदान में हरी-हरी दूब पर पंद्रह-बीस कुर्सियाँ रखी हुई हैं और सिर्फ तीन आदमी कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह और फतहसिंह सेनापति बैठे हैं, बाकी कुर्सियाँ खाली पड़ी हैं। उनके पूरब की तरफ

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भाग 4

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महाराज शिवदत्त का शमला लिए हुए देवीसिंह कुँवर वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे और जो कुछ हुआ था बयान किया। कुमार यह सुन कर हँसने लगे और बोले - ‘चलो सगुन तो अच्छा हुआ?’ तेजसिंह ने कहा - ‘सबसे ज्यादा अच्छा

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भाग 5

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‘चंद्रकांता को ले जा कर कहाँ रखा होगा? अच्छे कमरे में या अँधेरी कोठरी में? उसको खाने को क्या दिया होगा और वह बेचारी सिवाय रोने के क्या करती होगी। खाने-पीने की उसे कब सुध होगी। उसका मुँह दु:ख और भय से

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भाग 6

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तेजसिंह चंद्रकांता और चपला का पता लगाने के लिए कुँवर वीरेंद्रसिंह से विदा हो फौज के हाते के बाहर आए और सोचने लगे कि अब किधर जाएँ, कहाँ ढूँढ़े? दुश्मन की फौज में देखने की तो कोई जरूरत नहीं क्योंकि वहाँ

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भाग 7

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अब सवेरा होने ही वाला था, महल में लौंडियों की आँखें खुलीं तो महारानी को न देख कर घबरा गईं, इधर-उधर देखा, कहीं नहीं। आखिर खूब गुल-शोर मचा, चारों तरफ खोज होने लगी, पर कहीं पता न लगा। यह खबर बाहर तक फैल

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भाग 8

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जिस जंगल में कुमार और देवीसिंह बैठे थे और उस सिपाही को पेड़ से बाँधा था वह बहुत ही घना था। वहाँ जल्दी किसी की पहुँच नहीं हो सकती थी। तेजसिंह के चले जाने पर कुमार और देवीसिंह एक साफ पत्थर की चट्टान पर

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भाग 9

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तेजसिंह पहरे वाले सिपाही की सूरत में किले के दरवाजे पर पहुँचे। कई सिपाहियों ने जो सवेरा हो जाने के सबब जाग उठे थे तेजसिंह की तरफ देख कर कहा - ‘जैरामसिंह, तुम कहाँ चले गए थे? यहाँ पहरे में गड़बड़ पड़ ग

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भाग 10

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चुनारगढ़ के किले के अंदर महाराज शिवदत्त के खास महल में एक कोठरी के अंदर जिसमें लोहे के छड़दार किवाड़ लगे हुए थे, हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी पड़ी हुई, दरवाजे के सहारे उदास मुख वीरेंद्रसिंह बैठे

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भाग 11

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कुमारी के पास आते हुए चपला को नीचे से कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह सभी ने देखा। ऊपर से चपला पुकार कर कहने लगी - ‘जिस खोह में हम लोगों को शिवदत्त ने कैद किया था उसके लगभग सात कोस दक्षिण एक पुराने खँडहर में

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भाग 12

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चार दिन रास्ते में लगे, पाँचवे दिन चुनारगढ़ की सरहद में फौज पहुँची। महाराज शिवदत्त के दीवान ने यह खबर सुनी तो घबरा उठे, क्योंकि महाराज शिवदत्त तो कैद हो ही चुके थे, लड़ने की ताकत किसे थी। बहुत-सी नजर

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भाग 13

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महाराज जयसिंह, कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी खँडहर की सैर करने के लिए उसके अंदर गए। जाते ही यकीन हो गया कि बेशक यह तिलिस्म है। हर एक तरफ वे लोग घुसे और एक-एक चीज को अच्छी तरह दे

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भाग 14

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रात-भर जगन्नाथ ज्योतिषी रमल फेंकने और विचार करने में लगे रहे। कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह और देवीसिंह भी रात-भर पास ही बैठे रहे। सब बातों को देख-भाल कर ज्योतिषी जी ने कहा - ‘रमल से मालूम होता है कि इस

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भाग 15

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दूसरे दिन स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी फिर उस खँडहर में घुसे, सिरका साथ में लेते गए। कल जो पत्थर निकला था उस पर जो कुछ लिखा था फिर पढ़ के याद कर लिया

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भाग 16

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इन फूलों को पा कर तेजसिंह जितने खुश हुए शायद अपनी उम्र में आज तक कभी ऐसे खुश न हुए होंगे। एक तो पहले ही ऐयारी में बढ़े-चढ़े थे, आज इन फूलों ने इन्हें और बढ़ा दिया। अब कौन है जो इनका मुकाबला करे? हाँ ए

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भाग 17

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तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी के चले जाने पर कुमार बहुत देर तक सुस्त बैठे रहे। तरह-तरह के ख्याल पैदा होते रहे, जरा खटका हुआ और दरवाजे की तरफ देखने लगते कि शायद तेजसिंह या देवीसिंह आते हों, जब किसी

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चंद्रकांता तीसरा भाग -1

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वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और जो सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहाँ की रहने वाली है, जब तक यह न मालूम हो जाए तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे। धीरे-धीरे चल कर वनकन्या जब उन पेड

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भाग 2

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कुँवर वीरेंद्रसिंह बैठे फतहसिंह से बातें कर रहे थे कि एक मालिन जो जवान और कुछ खूबसूरत भी थी हाथ में जंगली फूलों की डाली लिए कुमार के बगल से इस तरह निकली जैसे उसको यह मालूम नहीं कि यहाँ कोई है। मुँह से

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भाग 3

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कल रात से आज की रात कुमार को और भी भारी गुजरी। बार-बार उस बरवे को पढ़ते रहे। सवेरा होते ही उठे, स्नान-पूजा कर जंगल में जाने के लिए तेजसिंह को बुलाया, वे भी आए। आज फिर तेजसिंह ने मना किया मगर कुमार ने

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भाग 4

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तिलिस्मी खँडहर में घुस कर पहले वे उस दालान में गए जहाँ पत्थर के चबूतरे पर पत्थर ही का आदमी सोया हुआ था। कुमार ने इसी जगह से तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाया। जिस चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था उसके सिरह

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भाग 5

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तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी के जाने के बाद कुँवर वीरेंद्रसिंह इन लोगों के वापस आने के इंतजार में रात-भर जागते रह गए। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी कुमार की तबीयत घबराती थी। सवेरा होने ही वाला था जब य

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भाग 6

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देवीसिंह और ज्योतिषी जी वनकन्या की टोह में निकल कर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक नकाबपोश सवार मिला। जिसने पुकार कर कहा - ‘देवीसिंह कहाँ जाते हो? तुम्हारी चालाकी हम लोगों से न चलेगी, अभी कल आप लोगों की ख

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भाग 7

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आज तेजसिंह के वापस आने और बाँके-तिरछे जवान के पहुँच कर बातचीत करने और खत लिखने में देर हो गई, दो पहर दिन चढ़ आया। तेजसिंह ने बद्रीनाथ को होश में ला कर पहरे में किया और कुमार से कहा - ‘अब स्नान-पूजा कर

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भाग 8

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देवीसिंह उस बुढ़िया के पीछे रवाना हुए। जब तक दिन बाकी रहा बुढ़िया चलती गई। उन्होंने भी पीछा न छोड़ा। कुछ रात गए तक वह चुड़ैल एक छोटे से पहाड़ के दर्रे में पहुँची जिसके दोनों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ थी

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भाग 9

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जब दरबार बर्खास्त हुआ आधी रात जा चुकी थी। फतहसिंह दीवान साहब को ले कर अपने खेमे में गए। थोड़ी देर बाद कुमार के खेमे में तेजसिंह, देवीसिंह, और ज्योतिषी जी फिर इकट्ठे हुए। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों

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भाग 10

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सुबह को कुमार ने स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर तिलिस्म तोड़ने का इरादा किया और तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में घुसे। कल की तरह तहखाने और कोठरियों में से होते हुए उसी बाग में पहुँचे। स्याह पत्थर के दाल

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भाग 11

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तेजसिंह को तिलिस्म में से खजाने के संदूकों को निकलवा कर नौगढ़ भेजवाने में कई दिन लगे क्योंकि उसके साथ पहरे वगैरह का बहुत कुछ इंतजाम करना पड़ा। रोज तिलिस्म में जाते और पहर दिन जब बाकी रहता तिलिस्म से ब

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भाग 12

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कुँवर वीरेंद्रसिंह के गायब होने से उनके लश्कर में खलबली पड़ गई। तेजसिंह और देवीसिंह ने घबरा कर चारों तरफ खोज की मगर कुछ पता न लगा। दिन भर बीत जाने पर ज्योतिषी जी ने तेजसिंह से कहा - ‘रमल से जान पड़ता

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भाग 13

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कुँवर वीरेंद्रसिंह धीरे-धीरे बेहोश हो कर उस गद्दी पर लेट गए। जब आँख खुली अपने को एक पत्थर की चट्टान पर सोए पाया। घबरा कर इधर-उधर देखने लगे। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ी, बीच में बहता चश्मा, किनारे-किनार

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भाग 14

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कुमार के गायब हो जाने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी उनकी खोज में निकले हैं। इस खबर को सुन कर महाराज शिवदत्त के जी में फिर बेईमानी पैदा हुई। एकांत में अपने ऐयारों और दीवान को बुला कर उसने कहा

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भाग 15

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चुनारगढ़ के पास दो पहाड़ियों के बीच के एक नाले के किनारे शाम के वक्त पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल, नाजिम और अहमद बैठे आपस में बातें कर रहे हैं। नाजिम – ‘क्या कहें हमारा मालिक तो बहिश्त में चला

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भाग 16

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राजा सुरेंद्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो, दौड़े-दौड़े बिना मुकाम किए दो रोज में चुनारगढ़ के पास पहुँचे। शाम के वक्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को, जो उनके लश्कर के साथ थे, इस्तकबाल के लिए

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भाग 17

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फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिए। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात-भर लड़ाई होती रही तो सवेरे तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जाएगा। आश्चर्य में पड़े बद्रीनाथ वगैर

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भाग 18

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तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकल कर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिता कर दूसरे दिन सवेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा, जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब

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भाग 19

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दिन अनुमानतः पहर भर के आया होगा कि फतहसिंह की फौज लड़ती हुई, फिर किले के दरवाजे तक पहुँची। शिवदत्त की फौज बुर्जियों पर से गोलों की बौछार मार कर उन लोगों को भगाना चाहती थी कि यकायक किले का दरवाजा खुल ग

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भाग 20

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तिलिस्म के दरवाजे पर कुँवर वीरेंद्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे, एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था, दूसरे अजदहे वाले द

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चंद्रकांता चौथा भाग 1

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वनकन्या को यकायक जमीन से निकल कर पैर पकड़ते देख वीरेंद्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहाँ वनकन्या क्यों कर आ पहुँची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं? आखिर बहुत द

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भाग 2

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आखिर कुँवर वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह से कहा - ‘मुझे अभी तक यह न मालूम हुआ कि योगी जी ने उँगली के इशारे से तुम्हें क्या दिखाया और इतनी देर तक तुम्हारा ध्यान कहाँ अटका रहा, तुम क्या देखते रहे और अब वे दोन

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भाग 3

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यह तो मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकांता जीती है, मगर कहाँ है और उस खोह में से क्यों कर निकल गई, वनकन्या कौन है, योगी जी कहाँ से आए, तेजसिंह को उन्होंने क्या दिखाया इत्यादि बातों को सोचते और ख्याल दौड़ाते

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राजा सुरेंद्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुँचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों को रहने के लिए सुंदर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी-बेड़ी खोल दी गई, मगर हिफाजत के लिए मकान के च

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भाग 5

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कुँवर वीरेंद्रसिंह तीनों ऐयारों के साथ खोह के अंदर घूमने लगे। तेजसिंह ने इधर-उधर के कई निशानों को देख कर कुमार से कहा - ‘बेशक यहाँ का छोटा तिलिस्म तोड़ कर कोई खजाना ले गया। जरूर कुमारी चंद्रकांता को भ

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भाग 7

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विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकांता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती-जागती है और उसी की खोज में वीरेंद्रसिंह फिर खोह के अंदर ग

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भाग 8

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बद्रीनाथ, जालिम खाँ की फिक्र में रवाना हुए। वह क्या करेंगे, कैसे जालिम खाँ को गिरफ्तार करेंगे इसका हाल किसी को मालूम नहीं। जालिम खाँ ने आखिरी इश्तिहार में महाराज को धमकाया था कि अब तुम्हारे महल में डा

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भाग 9

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कुँवर वीरेंद्रसिंह तीसरे बाग की तरफ रवाना हुए, जिसमें राजकुमारी चंद्रकांता की दरबारी तस्वीर देखी थी और जहाँ कई औरतें कैदियों की तरह इनको गिरफ्तार करके ले गई थीं। उसमें जाने का रास्ता इनको मालूम था। ज

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भाग 10

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जो कुछ दिन बाकी था, दीवान हरदयालसिंह ने जासूसों को इकट्ठा करने और समझाने-बुझाने में बिताया। शाम को सब जासूसों को साथ ले हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह के पास बाग में हाजिर हुए। खुद महाराज जयसिंह ने ज

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भाग 11

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विजयगढ़ के पास भयानक जंगल में नाले के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर दो आदमी आपस में धीरे-धीरे बातचीत कर रहे हैं। चाँदनी खूब छिटकी हुई है जिसमें इन लोगों की सूरत और पोशाक साफ दिखाई पड़ती है। दोनों आदमिय

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भाग 12

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वह दिन आ गया कि जब बारह बजे रात को बद्रीनाथ का सिर ले कर आफत खाँ महल में पहुँचे। आज शहर भर में खलबली मची हुई थी। शाम ही से महाराज जयसिंह खुद सब तरह का इंतजाम कर रहे थे। बड़े-बड़े बहादुर और फुर्तीले जव

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भाग 13

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खोह वाले तिलिस्म के अंदर बाग में कुँवर वीरेंद्रसिंह और योगी जी मे बातचीत होने लगी जिसे वनकन्या और इनके ऐयार बखूबी सुन रहे थे। कुमार - ‘पहले यह कहिए चंद्रकांता जीती है या मर गई?’ योगी – ‘राम-राम, चंद

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भाग 14

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सुबह को खुशी-खुशी महाराज ने दरबार किया। तेजसिंह और बद्रीनाथ भी बड़ी इज्जत से बैठाए गए। महाराज के हुक्म से जालिम खाँ और उसके चारों साथी दरबार में लाए गए जो हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े हुए थे। हुक्म पा तेजसिं

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भाग 15

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दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज आने लगी। सभी का ख्याल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आ कर अर्ज किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिए आ रहे हैं। उस खूनी को कमंद से बाँधे साथ लिए हुए पंडित

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भाग 16

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पाठक, अब वह समय आ गया कि आप भी चंद्रकांता और कुँवर वीरेंद्रसिंह को खुश होते देख खुश हों। यह तो आप समझते ही होंगे कि महाराज जयसिंह विजयगढ़ से रवाना होकर नौगढ़ जाएँगे और वहाँ से राजा सुरेंद्रसिंह और कुम

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भाग 17

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अपनी जगह पर दीवान हरदयालसिंह को छोड़, तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ ले कर महाराज जयसिंह विजयगढ़ से नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। साथ में सिर्फ पाँच सौ आदमियों का झमेला था। एक दिन रास्ते में लगा, दूसरे दिन नौगढ

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भाग 18

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दिन दोपहर से कुछ ज्यादा जा चुका था। उस वक्त तक कुमार ने स्नान-पूजा कुछ नहीं की थी। लश्कर में जा कर कुमार राजा सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का संदेशा दिया। दोनों ने पूछा कि ब

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भाग 19

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बहुत सवेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आए। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जा

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भाग 20

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महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चंद्रकांता का हाल कहना शुरू किया। बाबा जी – ‘मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा-सा तिलिस्म है और चुनारगढ़ के इला

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भाग 21

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सिद्धनाथ योगी ने कहा - ‘पहले इस खोह का दरवाजा खोल मैं इसके अंदर पहुँचा और पहाड़ी के ऊपर एक दर्रे में बेचारी चंद्रकांता को बेबस पड़े हुए देखा। अपने गुरु से मैं सुन चुका था कि इस खोह में कई छोटे-छोटे बा

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भाग 22

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बाबा जी यहाँ से उठ कर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुँचे और वहाँ घूम-फिर कर तमाम बाग, इमारत, खजाना और सब असबाबों को दिखाने लगे जो इस तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था। महाराज जयसिंह उन

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भाग 23

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जिस राह से कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह आया-जाया करते थे और महाराज जयसिंह वगैरह आए थे, वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी, घोड़ा या पालकी पर सवार हो कर आए और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाजे तक जाने म

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