फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिए। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात-भर लड़ाई होती रही तो सवेरे तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जाएगा। आश्चर्य में पड़े बद्रीनाथ वगैरह ऐयार इधर-उधर घबराए घूम रहे थे कि इतने में एक चोबदार ने आ कर गुल-शोर मचाना शुरू किया जिससे बद्रीनाथ और भी घबरा गए। चोबदार बिल्कुल जख्मी हो रहा था ओैर उसके चेहरे पर इतने जख्म लगे हुए थे कि खून निकलने से उसको पहचानना मुश्किल हो रहा था।
बद्रीनाथ - ‘(घबरा कर) ‘यह क्या, तुमको किसने जख्मी किया?’
चोबदार – ‘आप लोग तो इधर के ख्याल में ऐसा भूले हैं कि और बातों की कोई सुध ही नहीं। पिछवाड़े की तरफ से कुँवर वीरेंद्रसिंह के कई आदमी घुस आए हैं और किले में चारों तरफ घूम-घूम कर न मालूम क्या कर रहे हैं। मैंने एक का मुकाबिला भी किया मगर वह बहुत ही चालाक और फुर्तीला था, मुझे इतना जख्मी किया कि दो घंटे तक बदहोशो-हवास जमीन पर पड़ा रहा, मुश्किल से यहाँ तक खबर देने आया हूँ। आती दफा रास्ते में उसे दीवारों पर कागज चिपकाते देखा, मगर खौफ के मारे कुछ न बोला।’
पन्नालाल – ‘यह बुरी खबर सुनने में आई।’
बद्रीनाथ - ‘वे लोग कितने आदमी हैं, तुमने देखा है?’
चोबदार - ‘कई आदमी मालूम होते हैं मगर मुझे एक ही से वास्ता पड़ा था।’
बद्रीनाथ - ‘तुम उसे पहचान सकते हो?’
चोबदार - ‘हाँ, जरूर पहचान लूँगा क्योंकि मैंने रोशनी में उसकी सूरत बखूबी देखी है।’
बद्रीनाथ - ‘मैं उन लोगों को ढूँढ़ने चलता हूँ, तुम साथ चल सकते हो?’
चोबदार - ‘क्यों न चलूँगा, मुझे उसने अधमरा कर डाला था, अब बिना गिरफ्तार कराए कब चैन पड़ना है।
बद्रीनाथ - ‘अच्छा चलो।’
बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल चारों आदमी अंदर की तरफ चले, साथ-साथ जख्मी चोबदार भी रवाना हुआ। जनाने महल के पास पहुँच कर देखा कि एक आदमी जमीन पर बदहवास पड़ा है, एक मशाल थोड़ी दूर पर पड़ी हुई है जो कुछ जल रही है, पास ही तेल की कुप्पी भी नजर पड़ी, मालूम हो गया कि कोई मशालची है। चोबदार ने चौंक कर कहा - ‘देखो-देखो एक और आदमी उसने मारा।’ यह कह कर मशाल और कुप्पी झट से उठा ली और उसी कुप्पी से मशाल में तेल छोड़ उसके चेहरे के पास ले गया। बद्रीनाथ ने देख कर पहचाना कि यह अपना ही मशालची है। नाक पर हाथ रख के देखा, समझ गए कि इसे बेहोशी की दवा दी गई है।
चोबदार ने कहा - ‘आप इसे छोड़िए, चल कर पहले उस बदमाश को ढुँढ़िए, मैं यही मशाल लिए आपके साथ चलता हूँ। कहीं ऐसा न हो कि वे लोग महाराज जयसिंह को छुड़ा ले जाएँ।’
बद्रीनाथ ने कहा - ‘पहले उसी जगह चलना चाहिए जहाँ महाराज जयसिंह कैद हैं।’ सभी की राय यही हुई और सब उसी जगह पहुँचे। देखा तो महाराज जयसिंह कोठरी में हथकड़ी पहने लेटे हैं। चोबदार ने खूब गौर से उस कोठरी और दरवाजे को देख कर कहा - ‘नहीं, वे लोग यहाँ तक नहीं पहुँचे, चलिए दूसरी तरफ ढूँढ़े।’ चारों तरफ ढूँढ़ने लगे। घूमते-घूमते दीवारों और दरवाजों पर सटे हुए कई पुर्जे दिखे जिसे पढ़ते ही इन ऐयारों के होश जाते रहे, सोच ही रहे थे कि चोबदार चिल्ला उठा और एक कोठरी की तरफ इशारा करके बोला - ‘देखो-देखो, अभी एक आदमी उस कोठरी में घुसा है, जरूर वही है जिसने मुझे जख्मी किया था।’ यह कह, उस कोठरी की तरफ दौड़ा मगर दरवाजे पर रुक गया, तब तक ऐयार लोग भी पहुँच गए।
बद्रीनाथ - (चोबदार से) ‘चलो, अंदर चलो।’
चोबदार - ‘पहले तुम लोग हाथों में खंजर या तलवार ले लो, क्योंकि वह जरूर वार करेगा।’
बद्रीनाथ - ‘हम लोग होशियार हैं, तुम अंदर चलो क्योंकि तुम्हारे हाथ में मशाल है।’
चोबदार - ‘नहीं बाबा, मैं अंदर नहीं जाऊँगा, एक दफा किसी तरह जान बची, अब कौन-सी कंबख्ती सवार है कि जान-बूझ कर भाड़ में जाऊँ।’
बद्रीनाथ - ‘वाह रे डरपोक! इसी जीवट पर महाराजों के यहाँ नौकरी करता है? ला मेरे हाथ में मशाल दे, मत जा अंदर।’
चोबदार - ‘लो मशाल लो, मैं डरपोक सही, इतने जख्म खाए अभी डरपोक ही रह गया, अपने को लगती तो मालूम होता, इतनी मदद कर दी यही बहुत है।’
इतना कह चोबदार मशाल और कुप्पी बद्रीनाथ के हाथ में दे कर अलग हो गया। चारों ऐयार कोठरी के अंदर घुसे। थोड़ी दूर गए होंगे कि बाहर से चोबदार ने किवाड़ बंद करके जंजीर चढ़ा दी, तब अपनी कमर से पथरी निकाल आग झाड़ कर बत्ती जलाई और चौखट के नीचे जो एक छोटी-सी बारूद की चुपड़ी हुई पलीती निकाली हुई थी, उसमें आग लगा दी। वह रस्सी बन कर सुरसुराती हुई अंदर घुस गई।
पाठक समझ गए होंगे कि यह चोबदार साहब कौन थे। ये ऐयारों के सिरताज जीतसिंह थे। चोबदार बन ऐयारों को खौफ दिला कर अपने साथ ले आए और घुमाते-फिराते वह जगह देख ली जहाँ महाराज जयसिंह कैद थे, फिर धोखा दे कर इन ऐयारों को उस कोठरी में बंद कर दिया जिसे पहले ही से अपने ढंग का बना रखा था।
इस कोठरी के अंदर पहले ही से बेहोशी की बारूद पाव भर के अंदाज कोने में रख दी थी और लंबी पलीती बारूद के साथ लगा कर, चौखट के बाहर निकाल दी थी।
पलीती में आग लगा और दरवाजे को उसी तरह बंद छोड़, उस जगह गए जहाँ महाराज जयसिंह कैद थे। वहाँ बिल्कुल सन्नाटा था, दरवाजा खोल बेड़ी और हथकड़ी काट कर उन्हें बाहर निकाला और अपना नाम बता कर कहा - ‘जल्द यहाँ से चलिए।’
जिधर से जीतसिंह कमंद लगा कर किले में आए थे उसी राह से महाराज जयसिंह को नीचे उतारा और तब कहा - ‘आप नीचे ठहरिए, मैंने ऐयारों को भी बेहोश किया है, एक-एक करके कमंद में बाँध कर उन लोगों को लटकाता जाता हूँ आप खोलते जाइए। अंत में मैं भी उतर कर आपके साथ लश्कर में चलूँगा।’ महाराज जयसिंह ने खुश हो कर इसे मंजूर किया।
जीतसिंह ने लौट कर उस कोठरी की जंजीर खोली जिसमें बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को फँसाया था। अपने नाक में लखलखे से तर की हुई रूई डाल कोठरी के अंदर घुसे, तमाम कोठरी को धुएँ से भरा हुआ पाया, बत्ती जला बद्रीनाथ वगैरह बेहोश ऐयारों को घसीट कर बाहर लाए और किले की पिछली दीवार की तरफ ले जा कर एक-एक करके सभी को नीचे उतार आप भी उतर आए। चारो ऐयारो को एक तरफ छिपा, महाराज जयसिंह को लश्कर में पहुँचाया, फिर कई कहारों को साथ ले उस जगह जा, ऐयारों को उठवा लाए, हथकड़ी-बेड़ी डाल कर खेमे में कैद कर पहरा मुकर्रर कर दिया।
महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह गले मिले, जीतसिंह की बहुत कुछ तारीफ करके दोनों राजों ने कई इलाके उनको दिए, जिनकी सनद भी उसी वक्त मुहर करके उनके हवाले की गई।
रात बीत गई, पूरब की तरफ से धीरे-धीरे सफेदी निकलने लगी और लड़ाई बंद कर दी गई।