दिन अनुमानतः पहर भर के आया होगा कि फतहसिंह की फौज लड़ती हुई, फिर किले के दरवाजे तक पहुँची। शिवदत्त की फौज बुर्जियों पर से गोलों की बौछार मार कर उन लोगों को भगाना चाहती थी कि यकायक किले का दरवाजा खुल गया और जर्द रंग की चार झंडियाँ दिखाई पड़ीं जिन्हें राजा सुरेंद्रसिंह, महाराज जयसिंह और उनकी कुल फौज ने दूर से देखा। मारे खुशी के फतहसिंह अपनी फौज के साथ धड़ाधड़ कर फाटक के अंदर घुस गया और बाद इसके धीरे-धीरे कुल फौज किले में दाखिल हुई। फिर किसी को मुकाबले की ताब न रही, साथ वाले आदमी चारों तरफ दिखाई देने लगे। फतहसिंह ने बुर्ज पर से महाराज शिवदत्त का सब्ज झंडा गिरा कर अपना जर्द झंडा खड़ा कर दिया और अपने हाथ से चोब उठा कर जोर से तीन चोट डंके पर लगाई जो उसी झंडे के नीचे रखा हुआ था। ‘क्रूम-धूम फतह’ की आवाज निकली जिसके साथ ही किले वालों का जी टूट गया और कुँवर वीरेंद्रसिंह की मुहब्बत दिल में असर कर गई।
अपने हाथ से कुमार ने फाटक पर चालीस आदमियों के सिर काटे थे, मगर ऐयारों के सहित वे भी जख्मी हो गए थे। राजा सुरेंद्रसिंह किले के अंदर घुसे ही थे कि कुमार, तेजसिंह और देवीसिंह झंडियाँ लिए चरणों पर गिर पड़े, ज्योतिषी जी ने आशीर्वाद दिया। इससे ज्यादा न ठहर सके, जख्मों के दर्द से चारों बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़े और बदन से खून निकलने लगा।
जीतसिंह ने पहुँच कर चारों के जख्मों पर पट्टी बाँधी, चेहरा धुलने से ये चारों पहचाने गए। थोड़ी देर में ये सब होश में आ गए। राजा सुरेंद्रसिंह अपने प्यारे लड़के को देर तक छाती से लगाए रहे और तीनों ऐयारों पर भी बहुत मेहरबानी की। महाराज जयसिंह कुमार की दिलावरी पर मोहित हो तारीफ करने लगे। कुमार ने उनके पैरों को हाथ लगाया और खुशी-खुशी दूसरे लोगों से मिले। हमारा कोई आदमी जनाने महल में नहीं गया बल्कि वहाँ इंतजाम करके पहरा मुकर्रर कर दिया गया।
कई दिन के बाद महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह कुँवर वीरेंद्रसिंह को तिलिस्म तोड़ने की ताकीद करके खुशी-खुशी विजयगढ़ और नौगढ़ रवाना हुए। उनके जाने के बाद कुँवर वीरेंद्रसिंह अपने ऐयारों और कुछ फौज साथ ले तिलिस्म की तरफ रवाना हुए।