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भाग 4

11 जून 2022

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राजा सुरेंद्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुँचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों को रहने के लिए सुंदर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी-बेड़ी खोल दी गई, मगर हिफाजत के लिए मकान के चारों तरफ सख्त पहरा मुकर्रर कर दिया गया।

दूसरे दिन राजा सुरेंद्रसिंह और जीतसिंह आपस में कुछ राय कर के पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल इन चारों कैदी ऐयारों को साथ ले उस मकान में गए जिसमें महाराज शिवदत्त और उनकी महारानी को रखा था।

राजा सुरेंद्रसिंह के आने की खबर सुन कर महाराज शिवदत्त अपनी रानी को साथ ले कर दरवाजे तक इस्तकबाल (अगवानी) के लिए आए और मकान में ले जा कर आदर के साथ बैठाया। इसके बाद खुद दोनों आदमी सामने बैठे। हथकड़ी और बेड़ी पहने ऐयार भी एक तरफ बैठाए गए। महाराज शिवदत्त ने पूछा - ‘इस वक्त आपने किसलिए तकलीफ की?’

राजा सुरेंद्रसिंह ने इसके जवाब में कहा - ‘आज तक आपके जी में जो कुछ आया किया, क्रूरसिंह के बहकाने से हम लोगों को तकलीफ देने के लिए बहुत कुछ उपाय किया, धोखा दिया, लड़ाई ठानी, मगर अभी तक परमेश्वर ने हम लोगों की रक्षा की। क्रूरसिंह, नाजिम और अहमद भी अपनी सजा को पहुँच गए और हम लोगों की बुराई सोचते-सोचते ही मर गए। अब आपका क्या इरादा है? इसी तरह कैद में पड़े रहना मंजूर है या और कुछ सोचा है?’

महाराज शिवदत्त ने कहा - ‘आपकी और कुँवर वीरेंद्रसिंह की बहादुरी में कोई शक नहीं, जहाँ तक तारीफ की जाए थोड़ी है। परमेश्वर आपको खुश रखे और पोते का सुख दिखलाए, उसे गोद में ले कर आप खिलाएँ और मैंने जो कुछ किया उसे आप माफ करें। मुझे राज्य की अब बिल्कुल अभिलाषा नहीं है। चुनारगढ़ को आपने जिस तरह फतह किया और वहाँ जो कुछ हुआ मुझे मालूम है। मैं अब सिर्फ एक बात चाहता हूँ, परमेश्वर के लिए तथा अपनी जवाँमर्दी और बहादुरी की तरफ ख्याल करके मेरी इच्छा पूरी कीजिए।’ इतना कह हाथ जोड़ कर सामने खड़े हो गए।

राजा सुरेंद्र – ‘जो कुछ आपके जी में हो कहिए, जहाँ तक हो सकेगा मैं उसे पूरा करूँगा।’

शिवदत्त – ‘जो कुछ मैं चाहता हूँ आप सुन लीजिए। मेरे आगे कोई लड़का नहीं है जिसकी मुझे फिक्र हो, हाँ, चुनारगढ़ के किले में मेरे रिश्तेदारों की कई बेवाएँ हैं, जिनकी परवरिश मेरे ही सबब से होती थी, उनके लिए आप कोई ऐसा बंदोबस्त कर दें जिससे उन बेचारियों की जिंदगी आराम से गुजरे। और भी रिश्ते के कई आदमी हैं, लेकिन मैं उनके लिए सिफारिश न करूँगा बल्कि उनका नाम भी न बतलाऊँगा, क्योंकि वे मर्द हैं, हर तरह से कमा-खा सकते हैं, और हमको अब आप कैद से छुट्टी दीजिए। अपनी स्त्री को साथ ले जंगल में चला जाऊँगा, किसी जगह बैठ कर ईश्वर का नाम लूँगा, अब मुँह किसी को दिखाना नहीं चाहता, बस और कोई आरजू नहीं है।’

सुरेंद्र – ‘आपके रिश्ते की जितनी औरतें चुनारगढ़ में हैं, सभी की अच्छी तरह से परवरिश होगी, उनके लिए आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं, मगर आपको छोड़ देने में कई बातों का ख्याल है।’

शिवदत्त – ‘कुछ नहीं, (जनेऊ हाथ में ले कर) मैं धर्म की कसम खाता हूँ, अब जी में किसी तरह की बुराई नहीं है, कभी आपकी बुराई न सोचूँगा।’

सुरेंद्र – ‘अभी आपकी उम्र भी इस लायक नहीं हुई है कि आप तपस्या करें।’

शिवदत्त – ‘जो हो, अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दीजिए।’

सुरेंद्र – ‘आपकी कसम का तो मुझे कोई भरोसा नहीं, मगर आप जो यह कहते हैं कि अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दें तो मैं छोड़ देता हूँ, जहाँ जी चाहे जाइए और जो कुछ आपको खर्च के लिए चाहिए ले लीजिए।’

शिवदत्त – ‘मुझे खर्च की कोई जरूरत नहीं, बल्कि रानी के बदन पर जो कुछ जेवर हैं, वह भी उतार के दिए जाता हूँ।’

यह कह कर रानी की तरफ देखा, उस बेचारी ने फौरन अपने बदन के सार गहने उतार दिए।

सुरेंद्र – ‘रानी के बदन से गहने उतरवा दिए यह अच्छा नहीं किया।’

शिवदत्त – ‘जब हम लोग जंगल में ही रहना चाहते हैं तो यह हत्या क्यों लिए जाएँ? क्या चोरों और डकैतों के हाथों से तकलीफ उठाने के लिए और रात-भर सुख की नींद न सोने के लिए?’

सुरेंद्र - (उदासी से) ‘देखो शिवदत्तसिंह, तुम हाल ही तक चुनारगढ़ की गद्दी के मालिक थे, आज तुम्हारा इस तरह से जाना मुझे बुरा मालूम होता है। चाहे तुम हमारे दुश्मन थे तो भी मुझको इस बेचारी तुम्हारी रानी पर दया आती है। मैंने तो तुम्हें छोड़ दिया, चाहे जहाँ जाओ, मगर एक दफा फिर कहता हूँ, अगर तुम यहाँ रहना कबूल करो तो मेरे राज्य का कोई काम जो चाहो मैं खुशी से तुमको दूँ, तुम यहीं रहो।’

शिवदत्त – ‘नहीं, अब यहाँ न रहूँगा, मुझे छुट्टी दे दीजिए। इस मकान के चारों तरफ से पहरा हटा दीजिए, रात को जब मेरा जी चाहेगा चला जाऊँगा।’

सुरेंद्र – ‘अच्छा, जैसी तुम्हारी मर्जी।’

महाराज शिवदत्त के चारों ऐयार चुपचाप बैठे सब बातें सुन रहे थे। बात खतम होने पर दोनों राजाओं के चुप हो जाने पर महाराज शिवदत्त की तरफ देख कर पंडित बद्रीनाथ ने कहा - ‘आप तो अब तपस्या करने जाते हैं, हम लोगों के लिए क्या हुक्म होता है?’

शिवदत्त – ‘जो तुम लोगों के जी में आए करो, जहाँ चाहो जाओ, हमने अपनी तरफ से तुम लोगों को छुट्टी दे दी, बल्कि अच्छी बात हो कि तुम लोग कुँवर वीरेंद्रसिंह के साथ रहना पसंद करो, क्योंकि ऐसा बहादुर और धार्मिक राजा तुम लोगों को न मिलेगा।’

बद्रीनाथ - ‘ईश्वर आपको कुशल से रखे, आज से हम लोग कुँवर वीरेंद्रसिंह के हुए, आप अपने हाथों हम लोगों की हथकड़ी-बेड़ी खोल दीजिए।’

महाराज शिवदत्त ने अपने हाथों से चारों ऐयारों की हथकड़ी-बेड़ी खोल दी, राजा सुरेंद्रसिंह और जीतसिंह ने कुछ भी न कहा कि आप इनकी बेड़ी क्यों खोलते हैं। हथकड़ी-बेड़ी खुलने के बाद चारों ऐयार राजा सुरेंद्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए। जीतसिंह ने कहा - ‘अभी एक दफा आप लोग चारों ऐयार, मेरे सामने आइए फिर वहाँ जा कर खड़े होइए, पहले अपनी मामूली रस्म तो अदा कर लीजिए।’

मुस्कुराते हुए पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल जीतसिंह के सामने आए और बिना कहे जनेऊ और ऐयारी का बटुआ हाथ में ले कर कसम खा कर बोले - ‘आज से मैं राजा सुरेंद्रसिंह और उनके खानदान का नौकर हुआ। ईमानदारी और मेहनत से अपना काम किया करूँगा। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी को अपना भाई समझूंगा। बस अब तो रस्म पूरी हो गई?’

‘बस और कुछ बाकी नहीं।’ इतना कह कर जीतसिंह ने चारों को गले से लगा लिया, फिर ये चारों ऐयार राजा सुरेंद्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए।

राजा सुरेंद्रसिंह ने महाराज शिवदत्त से कहा - ‘अच्छा अब मैं विदा होता हूँ। पहरा अभी उठाता हूँ, रात को जब जी चाहे चले जाना, मगर आओ गले तो मिल लें।’

शिवदत्त - (हाथ जोड़ कर) ‘नहीं, मैं इस लायक नहीं रहा कि आपसे गले मिलूँ।’

‘नहीं जरूर ऐसा करना होगा।’ कह कर सुरेंद्रसिंह ने शिवदत्त को जबरदस्ती गले लगा लिया और उदास मुख से विदा हो, अपने महल की तरफ रवाना हुए। मकान के चारों तरफ से पहरा उठाते गए।

जीतसिंह, बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को साथ लिए राजा सुरेंद्रसिंह अपने दीवानखाने में जा कर बैठे। घंटों तक महाराज शिवदत्त के बारे में अफसोस भरी बातचीत होती रही। मौका पा कर जीतसिंह ने अर्ज किया - ‘अब तो हमारे दरबार में और चार ऐयार हो गए हैं जिसकी बहुत ही खुशी है। अगर ताबेदार को पंद्रह दिन की छुट्टी मिल जाती तो अच्छी बात थी, यहाँ से दूर बेरादरी में कुछ काम है, जाना जरूरी है।’

सुरेंद्रसिंह – ‘इधर एक-एक, दो-दो रोज की कई दफा तुम छुट्टी ले चुके हो।’

जीतसिंह – ‘जी हाँ, घर ही में कुछ काम था मगर अब की तो दूर जाना है इसलिए पंद्रह दिन की छुट्टी माँगता हूँ। मेरी जगह पर पंडित बद्रीनाथ जी काम करेंगे, किसी बात का हर्ज न होगा।’

सुरेंद्रसिंह – ‘अच्छा जाओ, लेकिन जहाँ तक हो सके जल्द आना।’

राजा सुरेंद्रसिंह से विदा हो जीतसिंह अपने घर गए और बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को भी कुछ समझाने-बुझाने के लिए साथ लेते गए। 

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रचनाएँ
चंद्रकांता
5.0
पहला प्रसिद्ध उपन्यास चंद्रकांता सन्‌ 1888 ई. में काशी में प्रकाशित हुआ था। उसके चारो भागों के कुछ ही दिनों में कई संस्करण हो गए थे। चन्द्रकान्ता सन्तति (1894 - 1904): चन्द्रकान्ता की अभूतपूर्व सफलता से प्रेरित हो कर देवकीनन्दन खत्री ने चौबीस भागों वाले विशाल उपन्यास चंद्रकान्ता सन्तति की रचना की।
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भाग 1

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शाम का वक्त है,  कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर आपस में बातें कर रहे हैं। वीरेंद्रसिंह की उम्र इक्कीस या

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भाग 2

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विजयगढ़ में क्रूरसिंह अपनी बैठक के अंदर नाजिम और अहमद दोनों ऐयारों के साथ बातें कर रहा है। क्रूरसिंह – ‘देखो नाजिम, महाराज का तो यह ख्याल है कि मैं राजा होकर मंत्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और च

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भाग 3

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कुछ-कुछ दिन बाकी है, चंद्रकांता, चपला और चंपा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिल कर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घन

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भाग 4

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तेजसिंह वीरेंद्रसिंह से रुखसत होकर विजयगढ़ पहुँचेगा और चंद्रकांता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए

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भाग 5

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अहमद ने, जो बाग के पेड़ पर बैठा हुआ था जब देखा कि चपला ने नाजिम को गिरफ्तार कर लिया और महल में चली गई तो सोचने लगा कि चंद्रकांता, चपला और चंपा बस यही तीनों महल में गई हैं, नाजिम इन सभी के साथ नहीं गया

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भाग 6

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तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर वीरेंद्रसिंह अपने महल में आए मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चंद्रकांता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चंद्रकांता की तस्वीर अपने

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भाग 7

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अहमद के पकड़े जाने से नाजिम बहुत उदास हो गया और क्रूरसिंह को तो अपनी ही फिक्र पड़ गई कि कहीं तेजसिंह मुझको भी न पकड़ ले जाए। इस खौफ से वह हरदम चौकन्ना रहता था, मगर महाराज जयसिंह के दरबार में रोज आता औ

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भाग 8

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वीरेंद्रसिंह चंद्रकांता से मीठी-मीठी बातें कर रहे हैं, चपला से तेजसिंह उलझ रहे हैं, चंपा बेचारी इन लोगों का मुँह ताक रही है। अचानक एक काला कलूटा आदमी सिर से पैर तक आबनूस का कुंदा, लाल-लाल आँखें, लंगोट

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भाग 9

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वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह बाग के बाहर से अपने खेमे की तरफ रवाना हुए। जब खेमे में पहुँचे तो आधी रात बीत चुकी थी, मगर तेजसिंह को कब चैन पड़ता था, वीरेंद्रसिंह को पहुँचा कर फिर लौटे और अहमद की सूरत बना क्र

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भाग 10

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क्रूरसिंह की तबाही का हाल शहर-भर में फैल गया। महारानी रत्नगर्भा (चंद्रकांता की माँ) और चंद्रकांता इन सभी ने भी सुना। कुमारी और चपला को बड़ी खुशी हुई। जब महाराज महल में गए तो हँसी-हँसी में महारानी ने क

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भाग 11

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क्रूरसिंह को बस एक यही फिक्र लगी हुई थी कि जिस तरह बने वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह को मार डालना ही नहीं चाहिए, बल्कि नौगढ़ का राज्य ही गारत कर देना चाहिए। नाजिम को साथ लिए चुनारगढ़ पहुँचा और शिवदत्त के दर

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भाग 12

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वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह नौगढ़ के किले के बाहर निकल बहुत से आदमियों को साथ लिए चंद्रप्रभा नदी के किनारे बैठ शोभा देख रहे थे। एक तरफ से चंद्रप्रभा दूसरी तरफ से करमनाशा नदी बहती हुई आई हैं और किले के नीच

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भाग 13

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तीन पहर रात गुजर गई, उनके सब दोस्त जो बेहोश पड़े थे वह भी होश में आए मगर अपनी हालत देख-देख हैरान थे। लोगों ने पूछा - ‘आप लोग कैसे बेहोश हो गए और दीवान साहब कहाँ हैं?’ उन्होंने कहा - ‘एक गंधी इत्र बेच

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भाग 14

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नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियाँ चंद्रप्रभा और कर्मनाशा घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जाबूजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों

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भाग 15

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हम पहले यह लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त के यहाँ जितने ऐयार हैं सभी को तेजसिंह पहचानते हैं। अब तेजसिंह को यह जानने की फिक्र हुई कि उनमें से कौन-कौन चार आए हैं, इसलिए दूसरे दिन शाम के वक्त उन्होंने अप

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भाग 16

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एक दिन तेजसिंह बालादवी के लिए विजयगढ़ के बाहर निकले। पहर दिन बाकी था जब घूमते-फिरते बहुत दूर निकल गए। देखा कि एक पेड़ के नीचे कुँवर वीरेंद्रसिंह बैठे हैं। उनकी सवारी का घोड़ा पेड़ से बँधा हुआ है, सामन

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भाग 17

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चपला कोई साधारण औरत न थी। खूबसूरती और नजाकत के अलावा उसमें ताकत भी थी। दो-चार आदमियों से लड़ जाना या उनको गिरफ्तार कर लेना उसके लिए एक अदना-सा काम था, शस्त्र विद्या को पूरे तौर पर जानती थी। ऐयारी के फ

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भाग 18

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अब महाराज शिवदत्त की महफिल का हाल सुनिए। महाराज शिवदत्तसिंह महफिल में आ विराजे। रंभा के आने में देर हुई तो एक चोबदार को कहा कि जा कर उसको बुला लाएँ और चेतराम ब्राह्मण को तेजसिंह को लाने के लिए भेजा।

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भाग 19

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तेजसिंह को छुड़ाने के लिए जब चपला चुनारगढ़ गई तब चंपा ने जी में सोचा कि ऐयार तो बहुत से आए हैं और मैं अकेली हूँ, ऐसा न हो, कभी कोई आफत आ जाए। ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिसमें ऐयारों का डर न रहे और रात को भ

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भाग 20

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महाराज शिवदत्तसिंह ने घसीटासिंह और चुन्नीलाल को तेजसिंह को पकड़ने के लिए भेज कर दरबार बर्खास्त किया और महल में चले गए, मगर दिल उनका रंभा की जुल्फों में ऐसा फँस गया था कि किसी तरह निकल ही नहीं सकता था।

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भाग 21

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दूसरे दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे हरदयालसिंह से तेजसिंह का हाल पूछ रहे थे कि अभी तक पता लगा या नहीं, कि इतने में सामने से तेजसिंह एक बड़ा भारी गट्ठर पीठ पर लादे हुए आ पहुँचे। गठरी तो दरबार के बीच

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भाग 22

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सुबह होते ही कुमार नहा-धो कर जंगी कपड़े पहन हथियारों को बदन पर सजा माँ-बाप से विदा होने के लिए महल में गए। रानी से महाराज ने रात ही सब हाल कह दिया था। वे इनका फौजी ठाठ देख कर दिल में बहुत खुश हुईं। कु

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भाग 23

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शाम को महाराज से मिलने के लिए वीरेंद्रसिंह गए। महाराज उन्हें अपनी बगल में बैठा कर बातचीत करने लगे। इतने में हरदयालसिंह और तेजसिंह भी आ पहुँचे। महाराज ने हाल पूछा। उन्होंने अर्ज किया कि फौज मुकाबले में

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चंद्रकांता दूसरा - भाग 1

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इस आदमी को सभी ने देखा मगर हैरान थे कि यह कौन है, कैसे आया और क्या कह गया। तेजसिंह ने जोर से पुकार के कहा - ‘आप लोग चुप रहें, मुझको मालूम हो गया कि यह सब ऐयारी हुई है, असल में कुमारी और चपला दोनों जीत

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भाग 2

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मामूली वक्त पर आज महाराज ने दरबार किया। कुमार और तेजसिंह भी हाजिर हुए। आज का दरबार बिल्कुल सुस्त और उदास था, मगर कुमार ने लड़ाई पर जाने के लिए महाराज से इजाजत ले ली और वहाँ से चले गए। महाराज भी उदासी

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भाग 3

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कुछ दिन बाकी है, एक मैदान में हरी-हरी दूब पर पंद्रह-बीस कुर्सियाँ रखी हुई हैं और सिर्फ तीन आदमी कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह और फतहसिंह सेनापति बैठे हैं, बाकी कुर्सियाँ खाली पड़ी हैं। उनके पूरब की तरफ

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भाग 4

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महाराज शिवदत्त का शमला लिए हुए देवीसिंह कुँवर वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे और जो कुछ हुआ था बयान किया। कुमार यह सुन कर हँसने लगे और बोले - ‘चलो सगुन तो अच्छा हुआ?’ तेजसिंह ने कहा - ‘सबसे ज्यादा अच्छा

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भाग 5

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‘चंद्रकांता को ले जा कर कहाँ रखा होगा? अच्छे कमरे में या अँधेरी कोठरी में? उसको खाने को क्या दिया होगा और वह बेचारी सिवाय रोने के क्या करती होगी। खाने-पीने की उसे कब सुध होगी। उसका मुँह दु:ख और भय से

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भाग 6

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तेजसिंह चंद्रकांता और चपला का पता लगाने के लिए कुँवर वीरेंद्रसिंह से विदा हो फौज के हाते के बाहर आए और सोचने लगे कि अब किधर जाएँ, कहाँ ढूँढ़े? दुश्मन की फौज में देखने की तो कोई जरूरत नहीं क्योंकि वहाँ

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भाग 7

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अब सवेरा होने ही वाला था, महल में लौंडियों की आँखें खुलीं तो महारानी को न देख कर घबरा गईं, इधर-उधर देखा, कहीं नहीं। आखिर खूब गुल-शोर मचा, चारों तरफ खोज होने लगी, पर कहीं पता न लगा। यह खबर बाहर तक फैल

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भाग 8

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जिस जंगल में कुमार और देवीसिंह बैठे थे और उस सिपाही को पेड़ से बाँधा था वह बहुत ही घना था। वहाँ जल्दी किसी की पहुँच नहीं हो सकती थी। तेजसिंह के चले जाने पर कुमार और देवीसिंह एक साफ पत्थर की चट्टान पर

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भाग 9

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तेजसिंह पहरे वाले सिपाही की सूरत में किले के दरवाजे पर पहुँचे। कई सिपाहियों ने जो सवेरा हो जाने के सबब जाग उठे थे तेजसिंह की तरफ देख कर कहा - ‘जैरामसिंह, तुम कहाँ चले गए थे? यहाँ पहरे में गड़बड़ पड़ ग

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भाग 10

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चुनारगढ़ के किले के अंदर महाराज शिवदत्त के खास महल में एक कोठरी के अंदर जिसमें लोहे के छड़दार किवाड़ लगे हुए थे, हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी पड़ी हुई, दरवाजे के सहारे उदास मुख वीरेंद्रसिंह बैठे

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भाग 11

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कुमारी के पास आते हुए चपला को नीचे से कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह सभी ने देखा। ऊपर से चपला पुकार कर कहने लगी - ‘जिस खोह में हम लोगों को शिवदत्त ने कैद किया था उसके लगभग सात कोस दक्षिण एक पुराने खँडहर में

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भाग 12

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चार दिन रास्ते में लगे, पाँचवे दिन चुनारगढ़ की सरहद में फौज पहुँची। महाराज शिवदत्त के दीवान ने यह खबर सुनी तो घबरा उठे, क्योंकि महाराज शिवदत्त तो कैद हो ही चुके थे, लड़ने की ताकत किसे थी। बहुत-सी नजर

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महाराज जयसिंह, कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी खँडहर की सैर करने के लिए उसके अंदर गए। जाते ही यकीन हो गया कि बेशक यह तिलिस्म है। हर एक तरफ वे लोग घुसे और एक-एक चीज को अच्छी तरह दे

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भाग 14

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रात-भर जगन्नाथ ज्योतिषी रमल फेंकने और विचार करने में लगे रहे। कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह और देवीसिंह भी रात-भर पास ही बैठे रहे। सब बातों को देख-भाल कर ज्योतिषी जी ने कहा - ‘रमल से मालूम होता है कि इस

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दूसरे दिन स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी फिर उस खँडहर में घुसे, सिरका साथ में लेते गए। कल जो पत्थर निकला था उस पर जो कुछ लिखा था फिर पढ़ के याद कर लिया

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इन फूलों को पा कर तेजसिंह जितने खुश हुए शायद अपनी उम्र में आज तक कभी ऐसे खुश न हुए होंगे। एक तो पहले ही ऐयारी में बढ़े-चढ़े थे, आज इन फूलों ने इन्हें और बढ़ा दिया। अब कौन है जो इनका मुकाबला करे? हाँ ए

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भाग 17

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तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी के चले जाने पर कुमार बहुत देर तक सुस्त बैठे रहे। तरह-तरह के ख्याल पैदा होते रहे, जरा खटका हुआ और दरवाजे की तरफ देखने लगते कि शायद तेजसिंह या देवीसिंह आते हों, जब किसी

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चंद्रकांता तीसरा भाग -1

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वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और जो सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहाँ की रहने वाली है, जब तक यह न मालूम हो जाए तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे। धीरे-धीरे चल कर वनकन्या जब उन पेड

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भाग 2

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कुँवर वीरेंद्रसिंह बैठे फतहसिंह से बातें कर रहे थे कि एक मालिन जो जवान और कुछ खूबसूरत भी थी हाथ में जंगली फूलों की डाली लिए कुमार के बगल से इस तरह निकली जैसे उसको यह मालूम नहीं कि यहाँ कोई है। मुँह से

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भाग 3

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कल रात से आज की रात कुमार को और भी भारी गुजरी। बार-बार उस बरवे को पढ़ते रहे। सवेरा होते ही उठे, स्नान-पूजा कर जंगल में जाने के लिए तेजसिंह को बुलाया, वे भी आए। आज फिर तेजसिंह ने मना किया मगर कुमार ने

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भाग 4

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तिलिस्मी खँडहर में घुस कर पहले वे उस दालान में गए जहाँ पत्थर के चबूतरे पर पत्थर ही का आदमी सोया हुआ था। कुमार ने इसी जगह से तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाया। जिस चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था उसके सिरह

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भाग 5

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तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी के जाने के बाद कुँवर वीरेंद्रसिंह इन लोगों के वापस आने के इंतजार में रात-भर जागते रह गए। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी कुमार की तबीयत घबराती थी। सवेरा होने ही वाला था जब य

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भाग 6

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देवीसिंह और ज्योतिषी जी वनकन्या की टोह में निकल कर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक नकाबपोश सवार मिला। जिसने पुकार कर कहा - ‘देवीसिंह कहाँ जाते हो? तुम्हारी चालाकी हम लोगों से न चलेगी, अभी कल आप लोगों की ख

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भाग 7

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आज तेजसिंह के वापस आने और बाँके-तिरछे जवान के पहुँच कर बातचीत करने और खत लिखने में देर हो गई, दो पहर दिन चढ़ आया। तेजसिंह ने बद्रीनाथ को होश में ला कर पहरे में किया और कुमार से कहा - ‘अब स्नान-पूजा कर

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भाग 8

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देवीसिंह उस बुढ़िया के पीछे रवाना हुए। जब तक दिन बाकी रहा बुढ़िया चलती गई। उन्होंने भी पीछा न छोड़ा। कुछ रात गए तक वह चुड़ैल एक छोटे से पहाड़ के दर्रे में पहुँची जिसके दोनों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ थी

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भाग 9

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जब दरबार बर्खास्त हुआ आधी रात जा चुकी थी। फतहसिंह दीवान साहब को ले कर अपने खेमे में गए। थोड़ी देर बाद कुमार के खेमे में तेजसिंह, देवीसिंह, और ज्योतिषी जी फिर इकट्ठे हुए। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों

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भाग 10

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सुबह को कुमार ने स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर तिलिस्म तोड़ने का इरादा किया और तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में घुसे। कल की तरह तहखाने और कोठरियों में से होते हुए उसी बाग में पहुँचे। स्याह पत्थर के दाल

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भाग 11

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तेजसिंह को तिलिस्म में से खजाने के संदूकों को निकलवा कर नौगढ़ भेजवाने में कई दिन लगे क्योंकि उसके साथ पहरे वगैरह का बहुत कुछ इंतजाम करना पड़ा। रोज तिलिस्म में जाते और पहर दिन जब बाकी रहता तिलिस्म से ब

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भाग 12

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कुँवर वीरेंद्रसिंह के गायब होने से उनके लश्कर में खलबली पड़ गई। तेजसिंह और देवीसिंह ने घबरा कर चारों तरफ खोज की मगर कुछ पता न लगा। दिन भर बीत जाने पर ज्योतिषी जी ने तेजसिंह से कहा - ‘रमल से जान पड़ता

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भाग 13

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कुँवर वीरेंद्रसिंह धीरे-धीरे बेहोश हो कर उस गद्दी पर लेट गए। जब आँख खुली अपने को एक पत्थर की चट्टान पर सोए पाया। घबरा कर इधर-उधर देखने लगे। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ी, बीच में बहता चश्मा, किनारे-किनार

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भाग 14

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कुमार के गायब हो जाने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी उनकी खोज में निकले हैं। इस खबर को सुन कर महाराज शिवदत्त के जी में फिर बेईमानी पैदा हुई। एकांत में अपने ऐयारों और दीवान को बुला कर उसने कहा

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भाग 15

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चुनारगढ़ के पास दो पहाड़ियों के बीच के एक नाले के किनारे शाम के वक्त पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल, नाजिम और अहमद बैठे आपस में बातें कर रहे हैं। नाजिम – ‘क्या कहें हमारा मालिक तो बहिश्त में चला

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भाग 16

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राजा सुरेंद्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो, दौड़े-दौड़े बिना मुकाम किए दो रोज में चुनारगढ़ के पास पहुँचे। शाम के वक्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को, जो उनके लश्कर के साथ थे, इस्तकबाल के लिए

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भाग 17

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फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिए। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात-भर लड़ाई होती रही तो सवेरे तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जाएगा। आश्चर्य में पड़े बद्रीनाथ वगैर

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भाग 18

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तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकल कर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिता कर दूसरे दिन सवेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा, जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब

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भाग 19

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दिन अनुमानतः पहर भर के आया होगा कि फतहसिंह की फौज लड़ती हुई, फिर किले के दरवाजे तक पहुँची। शिवदत्त की फौज बुर्जियों पर से गोलों की बौछार मार कर उन लोगों को भगाना चाहती थी कि यकायक किले का दरवाजा खुल ग

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भाग 20

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तिलिस्म के दरवाजे पर कुँवर वीरेंद्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे, एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था, दूसरे अजदहे वाले द

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चंद्रकांता चौथा भाग 1

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वनकन्या को यकायक जमीन से निकल कर पैर पकड़ते देख वीरेंद्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहाँ वनकन्या क्यों कर आ पहुँची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं? आखिर बहुत द

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भाग 2

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आखिर कुँवर वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह से कहा - ‘मुझे अभी तक यह न मालूम हुआ कि योगी जी ने उँगली के इशारे से तुम्हें क्या दिखाया और इतनी देर तक तुम्हारा ध्यान कहाँ अटका रहा, तुम क्या देखते रहे और अब वे दोन

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भाग 3

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यह तो मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकांता जीती है, मगर कहाँ है और उस खोह में से क्यों कर निकल गई, वनकन्या कौन है, योगी जी कहाँ से आए, तेजसिंह को उन्होंने क्या दिखाया इत्यादि बातों को सोचते और ख्याल दौड़ाते

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भाग 4

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राजा सुरेंद्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुँचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों को रहने के लिए सुंदर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी-बेड़ी खोल दी गई, मगर हिफाजत के लिए मकान के च

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भाग 5

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कुँवर वीरेंद्रसिंह तीनों ऐयारों के साथ खोह के अंदर घूमने लगे। तेजसिंह ने इधर-उधर के कई निशानों को देख कर कुमार से कहा - ‘बेशक यहाँ का छोटा तिलिस्म तोड़ कर कोई खजाना ले गया। जरूर कुमारी चंद्रकांता को भ

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भाग 7

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विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकांता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती-जागती है और उसी की खोज में वीरेंद्रसिंह फिर खोह के अंदर ग

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भाग 8

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बद्रीनाथ, जालिम खाँ की फिक्र में रवाना हुए। वह क्या करेंगे, कैसे जालिम खाँ को गिरफ्तार करेंगे इसका हाल किसी को मालूम नहीं। जालिम खाँ ने आखिरी इश्तिहार में महाराज को धमकाया था कि अब तुम्हारे महल में डा

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भाग 9

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कुँवर वीरेंद्रसिंह तीसरे बाग की तरफ रवाना हुए, जिसमें राजकुमारी चंद्रकांता की दरबारी तस्वीर देखी थी और जहाँ कई औरतें कैदियों की तरह इनको गिरफ्तार करके ले गई थीं। उसमें जाने का रास्ता इनको मालूम था। ज

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भाग 10

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जो कुछ दिन बाकी था, दीवान हरदयालसिंह ने जासूसों को इकट्ठा करने और समझाने-बुझाने में बिताया। शाम को सब जासूसों को साथ ले हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह के पास बाग में हाजिर हुए। खुद महाराज जयसिंह ने ज

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भाग 11

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विजयगढ़ के पास भयानक जंगल में नाले के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर दो आदमी आपस में धीरे-धीरे बातचीत कर रहे हैं। चाँदनी खूब छिटकी हुई है जिसमें इन लोगों की सूरत और पोशाक साफ दिखाई पड़ती है। दोनों आदमिय

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भाग 12

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वह दिन आ गया कि जब बारह बजे रात को बद्रीनाथ का सिर ले कर आफत खाँ महल में पहुँचे। आज शहर भर में खलबली मची हुई थी। शाम ही से महाराज जयसिंह खुद सब तरह का इंतजाम कर रहे थे। बड़े-बड़े बहादुर और फुर्तीले जव

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भाग 13

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खोह वाले तिलिस्म के अंदर बाग में कुँवर वीरेंद्रसिंह और योगी जी मे बातचीत होने लगी जिसे वनकन्या और इनके ऐयार बखूबी सुन रहे थे। कुमार - ‘पहले यह कहिए चंद्रकांता जीती है या मर गई?’ योगी – ‘राम-राम, चंद

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भाग 14

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सुबह को खुशी-खुशी महाराज ने दरबार किया। तेजसिंह और बद्रीनाथ भी बड़ी इज्जत से बैठाए गए। महाराज के हुक्म से जालिम खाँ और उसके चारों साथी दरबार में लाए गए जो हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े हुए थे। हुक्म पा तेजसिं

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भाग 15

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दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज आने लगी। सभी का ख्याल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आ कर अर्ज किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिए आ रहे हैं। उस खूनी को कमंद से बाँधे साथ लिए हुए पंडित

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भाग 16

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पाठक, अब वह समय आ गया कि आप भी चंद्रकांता और कुँवर वीरेंद्रसिंह को खुश होते देख खुश हों। यह तो आप समझते ही होंगे कि महाराज जयसिंह विजयगढ़ से रवाना होकर नौगढ़ जाएँगे और वहाँ से राजा सुरेंद्रसिंह और कुम

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भाग 17

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अपनी जगह पर दीवान हरदयालसिंह को छोड़, तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ ले कर महाराज जयसिंह विजयगढ़ से नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। साथ में सिर्फ पाँच सौ आदमियों का झमेला था। एक दिन रास्ते में लगा, दूसरे दिन नौगढ

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भाग 18

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दिन दोपहर से कुछ ज्यादा जा चुका था। उस वक्त तक कुमार ने स्नान-पूजा कुछ नहीं की थी। लश्कर में जा कर कुमार राजा सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का संदेशा दिया। दोनों ने पूछा कि ब

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भाग 19

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बहुत सवेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आए। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जा

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भाग 20

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महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चंद्रकांता का हाल कहना शुरू किया। बाबा जी – ‘मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा-सा तिलिस्म है और चुनारगढ़ के इला

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भाग 21

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सिद्धनाथ योगी ने कहा - ‘पहले इस खोह का दरवाजा खोल मैं इसके अंदर पहुँचा और पहाड़ी के ऊपर एक दर्रे में बेचारी चंद्रकांता को बेबस पड़े हुए देखा। अपने गुरु से मैं सुन चुका था कि इस खोह में कई छोटे-छोटे बा

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भाग 22

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बाबा जी यहाँ से उठ कर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुँचे और वहाँ घूम-फिर कर तमाम बाग, इमारत, खजाना और सब असबाबों को दिखाने लगे जो इस तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था। महाराज जयसिंह उन

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भाग 23

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जिस राह से कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह आया-जाया करते थे और महाराज जयसिंह वगैरह आए थे, वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी, घोड़ा या पालकी पर सवार हो कर आए और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाजे तक जाने म

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