तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर वीरेंद्रसिंह अपने महल में आए मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चंद्रकांता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चंद्रकांता की तस्वीर अपने सामने रख कर बातें किया करना, या पलँग पर लेट मुँह ढाँप खूब रोना, बस यही उनका कम था। अगर कोई पूछता तो बातें बना देते। वीरेंद्रसिंह के बाप सुरेंद्रसिंह को वीरेंद्रसिंह का सब हाल मालूम था मगर क्या करते, कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि विजयगढ़ का राजा उनसे बहुत जबर्दस्त था और हमेशा उन पर हुकूमत रखता था।
वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह को विजयगढ़ जाती बार कह दिया था कि तुम आज ही लौट आना। रात बारह बजे तक वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह की राह देखी, जब वह न आए तो उनकी घबराहट और भी ज्यादा हो गई। आखिर अपने को सँभाला और मसहरी पर लेट दरवाजे की तरफ देखने लगे। सवेरा होने ही वाला था कि तेजसिंह पीठ पर एक गट्ठा लादे आ पहुँचे। पहरे वाले इस हालत में इनको देख हैरान थे, मगर खौफ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजसिंह ने वीरेंद्रसिंह के केमरे में पहुँच कर देखा कि अभी तक वे जाग रहे हैं।
वीरेंद्रसिंह तेजसिंह को देखते ही वह उठ खड़े हुए और बोले - ‘कहो भाई, क्या खबर लाए?’
तेजसिंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चंद्रकांता की चिट्ठी हाथ पर रख दी, अहमद को गठरी खोल कर दिखा दिया और कहा - ‘यह चिट्ठी है, और यह सौगात है।’
वीरेंद्रसिंह बहुत खश हुए। चिट्ठी को कई मर्तबा पढ़ा और आँखों से लगाया, फिर तेजसिंह से कहा - ‘सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रखो जहाँ किसी को मालूम न हो, अगर जयसिंह को खबर लगेगी तो फसाद बढ़ जाएगा।
तेजसिंह – ‘इस बात को मैं पहले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता हूँ।’
यह कह कर तेजसिंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेज कर देवीसिंह नामी ऐयार को बुलाया जो तेजसिंह का शागिर्द, दिली दोस्त और रिश्ते में साला लगता था, तथा ऐयारी के फन में भी तेजसिंह से किसी तरह कम न था। जब देवीसिंह आ गए तब तेजसिंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लादी और देवीसिंह से कहा - ‘आओ, हमारे साथ चलो, तुमसे एक काम है।’
देवीसिंह ने कहा - ‘गुरु जी वह गठरी मुझको दो, मैं चलूँ, मेरे रहते यह काम आपको अच्छा नहीं लगता।’
आखिर देवीसिंह ने वह गठरी पीठ पर लाद ली और तेजसिंह के पीछे चल पड़े।
वे दोनों शहर के बाहर ही जंगल और पहाड़ियों में पेचीदे रास्तों में जाते-जाते दो कोस के करीब पहुँच कर एक अँधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी मिली। वहाँ जा कर तेजसिंह ठहर गए और देवीसिंह से बोले - ‘गठरी रख दो।’
देवीसिंह - (गठरी रख कर) गुरु जी, यह तो अजीब जगह है, अगर कोई आए भी तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाए।
तेजसिंह - सुनो देवीसिंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता, तुमको अपना दिली दोस्त समझ कर ले आया हूँ, तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा।
देवीसिंह – ‘मैं आपका ताबेदार हूँ, तुम गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम्हीं ने मुझको सिखाई है, अगर मेरी जान की जरूरत पड़े तो मैं देने को तैयार हूँ।’
तेजसिंह - ‘सुनो और जो बातें मैं तुमसे कहता हूँ उनका अच्छी तरह ख्याल रखो। यह सामने जो पत्थर का दरवाजा देखते हो इसको खोलना सिवाय मेरे कोई भी नहीं जानता, या फिर मेरे उस्ताद जिन्होंने मुझको ऐयारी सिखाई, वे जानते थे। वे तो अब नहीं हैं, मर गए, इस समय सिवाय मेरे कोई नहीं जानता, और मैं तुमको इसका खोलना बतलाए देता हूँ। इसका खोलना बतलाए देता हूँ। जिस-जिस को मैं पकड़ कर लाया करूँगा इसी जगह ला कर कैद किया करूँगा जिससे किसी को मालूम न हो और कोई छुड़ा के भी न ले जा सके। इसके अंदर कैद करने से कैदियों के हाथ-पैर बाँधने की जरूरत नहीं रहेगी, सिर्फ हिफाजत के लिए एक खुलासी बेड़ी उनके पैरों में डाल देनी पड़ेगी जिससे वह धीरे-धीरे चल-फिर सकें। कैदियों के खाने-पीने की भी फिक्र तुमको नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसके अंदर एक छोटी-सी कुदरती नहर है जिसमें बराबर पानी रहता है, यहाँ मेवों के दरख्त भी बहुत हैं। इस ऐयार को इसी में कैद करते हैं, बाद इसके महाराज से यह बहाना करके कि आजकल मैं बीमार रहता हूँ, अगर एक महीने की छुट्टी मिले तो आबोहवा बदल आऊँ, महीने भर की छुट्टी ले लो। मैं कोशिश करके तुम्हें छुट्टी दिला दूँगा। तब तुम भेष बदल कर विजयगढ़ जाओ और बराबर वहीं रह कर इधर-उधर की खबर लिया करो, जो कुछ हाल हो मुझसे कहा करो और जब मौका देखो तो बदमाशों को गिरफ्तार करके इसी जगह ला उनको कैद भी कर दिया करो।’
और भी बहुत-सी बातें देवीसिंह को समझाने के बाद तेजसिंह दरवाजा खोलने चले। दरवाजे के ऊपर एक बड़ा-सा चेहरा शेर का बना हुआ था जिसके मुँह में हाथ बखूबी जा सकता था। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा - ‘इस चेहरे के मुँह में हाथ डाल कर इसकी जुबान बाहर खींचो।’ देवीसिंह ने वैसा ही किया और हाथ-भर के करीब जुबान खींच ली। उसके खिंचते ही एक आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। अहमद की गठरी लिए हुए दोनों अंदर गए। देवीसिंह ने देखा कि वह खूब खुलासा जगह, बल्कि कोस भर का साफ मैदान है। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ जिन पर किसी तरह आदमी चढ़ नहीं सकता, बीच में एक छोटा-सा झरना पानी का बह रहा है और बहुत से जंगली मेवों के दरख्तों से अजब सुहावनी जगह मालूम होती है। चारों तरफ की पहाड़ियाँ, नीचे से ऊपर तक छोटे-छोटे करजनी, घुमची, बेर, मकोइए, चिरौंजी वगैरह के घने दरख्तों और लताओं से भरी हुई हैं। बड़े-बड़े पत्थर के ढोंके मस्त हाथी की तरह दिखाई देते हैं। ऊपर से पानी गिर रहा है जिसकी आवाज बहुत भली मालूम होती है। हवा चलने से पेड़ों की सरसराहट और पानी की आवाज तथा बीच में मोरों का शोर और भी दिल को खींच लेता है। नीचे जो चश्मा पानी का पश्चिम से पूरब की तरफ घूमता हुआ बह रहा है उसके दोनों तरफ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं और पके जामुन उस चश्मे के पानी में गिर रहे हैं। पानी भी चश्मे का इतना साफ है कि जमीन दिखाई देती है, कहीं हाथ भर, कहीं कमर बराबर, कहीं उससे भी ज्यादा होगा। पहाड़ों में कुदरती खोह बने हैं जिनके देखने से मालूम होता है कि मानों ईश्वर ने यहाँ सैलानियों के रहने के लिए कोठरियाँ बना दी हैं। चारों तरफ की पहाड़ियाँ ढलवाँ और बनिस्बत नीचे के, ऊपर से ज्यादा खुलासा थीं और उन पर बादलों के टुकड़े छोटे-छोटे शामियानों का मजा दे रहे थे। यह जगह ऐसी सुहावनी थी कि वर्षों रहने पर भी किसी की तबीयत न घबराए बल्कि खुशी मालूम हो।
सुबह हो गई। सूरज निकल आया। तेजसिंह ने अहमद की गठरी खोली। उसका ऐयारी का बटुआ और खंजर जो कमर में बँधा था, ले लिया और एक बेड़ी उसके पैर में डालने के बाद होशियार किया। जब अहमद होश में आया और उसने अपने को इस दिलचस्प मैदान में देखा तो यकीन हो गया कि वह मर गया है और फरिश्ते उसको यहाँ ले आए हैं। लगा कलमा पढ़ने।
तेजसिंह के उसके कलमा पढ़ने पर हँसी आई, बोले - ‘मियाँ साहब, आप हमारे कैदी हैं, इधर देखिए।’
अहमद ने तेजसिंह की तरफ देखा, पहचानते ही जान सूख गई, समझ गया कि तब न मरे तो अब मरे। बीवी केतकी की सूरत आँखों के सामने फिर गई, खौफ ने उसका गला ऐसा दबाया कि एक हर्फ भी मुँह से न निकल सका।
अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़ दोनों ऐयार बाहर निकल आए। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा - ‘इस शेर की जुबान जो तुमने बाहर खींच ली है उसी के मुँह में डाल दो।’ देवीसिंह ने वैसा ही किया। जुबान उसके मुँह में डालते ही जोर से दरवाजा बंद हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीदी राह से घर की तरफ रवाना हुए।
पहर भर दिन चढ़ा होगा, जब ये दोनों लौट कर वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे।
वीरेंद्रसिंह ने पूछा - ‘अहमद को कहाँ कैद करने ले गए थे जो इतनी देर लगी?’ तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूँ, आज आपको भी वह जगह दिखाऊँगा, पर मेरी राय है कि देवीसिंह थोड़े दिन भेष बदल कर विजयगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझको बड़ी मदद मिलेगी।’ इसके बाद वह सब बातें भी वीरेंद्रसिंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीसिंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी वह भी कहा जिसे वीरेंद्रसिंह ने बहुत पसंद किया।
स्नान-पूजा और मामूली कामों से फुरसत-पा दोनों आदमी देवीसिंह को साथ लिए राजदरबार में गए। देवीसिंह ने छुट्टी के लिए अर्ज किया। राजा देवीसिंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंजूर न था, कहने लगे – ‘हम तुम्हारी दवा यहाँ ही कराएँगे।’
आखिर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह की सिफारिश से छुट्टी मिली। दरबार बर्खास्त होने पर वीरेंद्रसिंह राजा के साथ महल में चले गए और तेजसिंह अपने पिता जीतसिंह के साथ घर आए, देवीसिंह को भी साथ लाए और सफर की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाती दफा उन्हें और भी बातें समझा दीं।
दूसरे दिन तेजसिंह अपने साथ वीरेंद्रसिंह को उस घाटी में ले गए जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देख कर बहुत ही खुश हुए और बोले - ‘भाई इस जगह को देख कर तो मेरे दिल में बहुत-सी बातें पैदा होती हैं।’
तेजसिंह ने कहा - ‘पहले-पहल इस जगह को देख कर मैं तो आपसे भी ज्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जीने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझा कर मेरी दिलजमई कर दी थी जो किसी दूसरे वक्त आपसे कहूँगा।’
वीरेंद्रसिंह इस बात को सुन कर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहाँ का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुन कर वीरेंद्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने वीरेंद्रसिंह से कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जाएगा।
वे दोनों वहाँ से रवाना होकर अपने महल आए। कुमार ने कहा - ‘भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयसिंह से लड़ जाऊँ।’
तेजसिंह ने कहा - ‘आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चंद्रकांता की जान का खौफ है। आप इतना घबराते क्यों है? देखिए, तो क्या होता है? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कैफियत हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूँगा।’ वीरेंद्रसिंह ने कहा - ‘नहीं, अब की बार मैं जरूर चलूँगा, इस तरह एकदम डरपोक हो कर बैठे रहना मर्दों का काम नहीं।’
तेजसिंह ने कहा - ‘अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना जरूरी है जो यह कि महाराज से पाँच-चार रोज के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए, वहाँ से कुल ढाई कोस चंद्रकांता का महल रह जाएगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।’
इस बात को वीरेंद्रसिंह ने भी पसंद किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी।
कुछ दिन बाद वीरेंद्रसिंह ने अपने पिता सुरेंद्रसिंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े-से अपने दिली आदमियों को, जो खास उन्हीं के खिदमती थे और उनको जान से ज्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और विजयगढ़ के सिवाने पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात-भर वहाँ मुकाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजसिंह विजयगढ़ जा कर हाल-चाल ले आएँ।