जमानिया वाला दलीपशाह का मकान बहुत ही सुन्दर और अमीराना ढंग पर गुजारा करने लायक बना हुआ है। उसमें जनाना और मर्दाना किला इस ढंग से बना है कि भीतर से दरवाजा खोलकर जब चाहे एक कर ले और अगर भीतर रास्ता बंद कर दिया जाय तो एक का दूसरे से कुछ भी संबंध न मालूम पड़े, यहाँ तक कि अगर मर्दाने मकान में कोई मेहमान आकर टिके तो उसे यकायक इस बात का पता भी न लगे कि जनाने लोग कहाँ रहते हैं और उस तरफ आने-जाने के लिये इस तरफ से कोई रास्ता भी है या नहीं।
इस मकान के सामने एक छोटा-सा सुन्दर नजरबाग बना हुआ था और उसके सामने अर्थात् पूरब तरफ ऊँची दीवार और फाटक था। मकान के बाईं तरफ लंबा खपरैल था जिसका एक सिरा तो मकान के साथ सटा हुआ था और दूसरा सिरा सामने अर्थात् फाटक वाली दीवार के साथ। उसके बीच में छोटे-बड़े कई दालान और कोठरियाँ बनी हुई थीं जिनमें दलीपशाह के खिदमतगार और सिपाही लोग रहा करते थे। इसी तरह मकान के दाहिनी तरफ इस सिरे से लेकर उस सिरे तक कुछ ऐसी इमारतें बनी हुई थीं जिनमें कई गृहस्थियों का गुजारा हो सकता था और उनमें दलीपशाह के शागिर्द ऐयार लोग रहा करते थे। इस ढंग पर वह नजरबाग बीच में अर्थात् चारों तरफ से घिरा हुआ था। सरसरी-तौर पर खयाल करने से भी साफ मालूम होता था कि दलीपशाह बहुत ही अमीराना ढंग पर रह कर जिंदगी के दिन बिता रहा है।
इस इमारत के बगल ही में दलीपशाह का एक बहुत बड़ा खुला बाग था जिसमें बड़े-बड़े आम, नींबू और अमरूद तथा इसी तरह के और भी बहुत किस्म के दरख्त लगे हुए थे।
दलीपशाह अपने मर्दाने मकान में एक सुन्दर सजे हुए कमरे के बाहर दालान में चौकी के ऊपर फर्श पर बैठे हुए अपने दोस्त इन्द्रदेव से बातचीत कर रहे हैं। इस जगह से सामने का नजरबाग और उसके बाद फाटक अच्छी तरह दिखाई दे रहा है। आज इन्द्रदेव इनसे मिलने के लिये आये हुए हैं और इस समय इनके पास बैठे हुए कई जरूरी मामलों पर सलाह और बातचीत कर रहे हैं।
दलीपशाह : भाई साहब, गदाधरसिंह आपका दोस्त है इसलिए मैं लाचार होकर उसे अपना दोस्त मानता हूँ, मगर सच तो यों है कि उसके साथ रिश्तेदारी होने पर भी मैं उसे दिल से पसन्द नहीं करता।
इन्द्रदेव : हाँ, उसका चाल-चलन तो कुछ खराब जरूर है मगर आदमी बड़े ही जीवट का है और ऐयारी का ढंग बहुत अच्छा जानता है।
दलीपशाह : इस बात को मैं जरूर मानता हूँ बल्कि जोर देकर कह सकता हूँ कि अगर वह ईमानदारी के साथ काम करता हुआ रणधीरसिंह जी के यहाँ कायदे से बना रहता तो एक दिन ऐयारों का सिरताज गिना जाता।
इन्द्रदेव : ठीक है मगर उसने रणधीरसिंह का साथ छोड़ तो नहीं दिया!
दलीपशाह : अब इसे छोड़ना नहीं तो क्या कहते हैं? दो-दो महीने तक गायब रहना और मालिक को मुँह तक नहीं दिखाना, क्या इसी को नौकरी कहते हैं? आप ही कहिए कि अबकी के महीने के बाद आया था? सिर्फ दो दिन रह कर चला गया। उससे तो उसकी स्त्री अच्छी है जो अपने मालिक अर्थात् रणधीरसिंह की स्त्री का साथ नहीं छोड़ती।
इन्द्रदेव : ठीक है मगर उसने रणधीरसिंह के यहाँ अपने बदले में अपना शागिर्द रख दिया है, इसके अतिरिक्त जब रणधीरसिंह जी को उसकी जरूरत पड़ती है तो उसी शागिर्द की मार्फत उसे बुलवा भेजते हैं। अभी हाल ही में देखिए उसने कैसी बहादुरी के काम किये।
दलीपशाह : अजी यह तो मैं खुद कह रहा हूँ कि वह ऐयार परले सिरे का है, मगर इस जगह बहस तो ईमानदारी की हो रही है।
इन्द्रदेव : (दबी जुबान से) हाँ, वह लालची तो जरूर है मगर अभी नई जवानी है, संभव है आगे चलकर सुधर जाय!
दलीपशाह : (हँसकर) जी हाँ, बात तो यह है कि वह कमबख्त आपके सामने ढोंग रचता है और दयाराम जी के मामले पर उदासी दिखलाकर कहता है कि अब मैं दुनिया ही छोड़ दूंगा, मगर मैं इस बात को कभी नहीं मान सकता, हाँ उसका यह कहना शायद सच हो कि दयाराम जी के मामले में उसने धोखा खाया।
इन्द्रदेव : भाई, उसकी यह बात तो जरूर सच है, वह जान-बूझकर दयाराम को कदापि नहीं मार सकता है।
दलीपशाह : जी हाँ, मैं भी यही सोचता हूँ मगर आप देख लीजिएगा कि कुछ दिन के बाद वह हमारे और आपके ऊपर भी सफाई का हाथ जरूर फेरेगा। आपके ऊपर चाहे मेहरबानी भी कर जाये क्योंकि आपसे डरता है और उसे विश्वास है कि आप ऐयारी में किस तरह उससे कम नहीं हैं मगर मुझे तो कभी न छोड़ेगा।
इन्द्रदेव : अजी भविष्य में जैसा करेगा वैसा पावेगा, इस समय तो वह हमारा-आपका किसी का भी कसूरवार नहीं है!
दलीपशाह : (खिलखिलाकर हँसने के बाद धीरे से) तब क्यों आपने बेचारे के पीछे जमना और सरस्वती को लगा दिया है?
इन्द्रदेव : केवल उन दोनों का प्रण पूरा करने के लिये मैंने यह कार्रवाई कर दी है, नहीं तो तुम ही सोचो कि बेचारी लड़कियाँ उसका क्या बिगाड़ सकती हैं।
दलीपशाह : तो आप उन लड़कियों के साथ धोखेबाजी का काम करते हैं, सच्चे दिल से उनकी मदद नहीं करते!
इन्द्रदेव : (दाँत से जुबान दबाने के बाद) नहीं-नहीं, मैं जरूर उनकी मदद करता हूँ मगर मेरी इच्छा यही है कि गदाधरसिंह मारा न जाये और दोनों लड़कियों की अभिलाषा भी पूरी हो जाये।
दलीपशाह : यह एक अनूठी बात है, खरबूजा खा भी लें और वह काटा भी न जाये! मैं तो समझता हूँ वह एक दिन जरूर जमना और सरस्वती को मार डालेगा।
इन्द्रदेव : नहीं ऐसा तो न करेगा।
दलीपशाह : अजी आप तो निरे ही साधु हैं, इतने बड़े ऐयार होकर भी धोखा खाते हैं। मगर इसमें आपका कोई कसूर नहीं है, ईश्वर ने आपका दिल ही ऐसा नरम बनाया है कि किसी की बुराई पर ध्यान नहीं देते, मगर भाईजान, मैं तो उससे बराबर खटका रहता हूँ। इसमें आप यह न समझिए कि मैं उनका दुश्मन हूँ, आपकी तरह मैं भी यही चाहता हूँ कि वह किसी तरह अच्छे ढर्रे पर आ जाये मगर यह उम्मीद नहीं। अच्छा यह बताइए कि उन लोगों के विषय में आजकल क्या कार्रवाई हो रही है अर्थात् जमना और सरस्वती क्या कर रही हैं?
इन्द्रदेव : बस गदाधरसिंह के पीछे पड़ी हुई है, आज कई दिन हुए कि उसे गिरफ्तार भी कर लिया था मगर सिर्फ डरा-धमका के छोड़ दिया, क्योंकि मैंने अच्छी तरह समझा दिया है कि दुश्मन को सता के और दुःख दे के बदला लेना चाहिए न कि जान से मार के। वे बेचारियाँ तो मेरी बात मान जाएँगी मगर गदाधरसिंह की तरफ से मैं डरता हूँ, ऐसा न हो कि वह उन दोनों का सफाया कर दे।
दलीपशाह : (मुस्कराकर) मगर आप तो उसे नेक बना रहे हैं, उस पर भरोसा कर रहे हैं! अभी-अभी कह चुके हैं कि वह उन दोनों के साथ बुराई कभी न करेगा।
इन्द्रदेव : आशा तो ऐसी ही है जो मैं कह चुका हूँ, फिर भी डरता हूँ क्योंकि आजकल उसका रंग-ढंग और रहन-सहन ठीक नहीं है।
दलीपशाह : आप तो अच्छा दोतर्फी बात करते हैं!
इन्द्रदेव : ऐसा नहीं है मेरे दोस्त, मैं खूब समझता हूँ कि वह आजकल बिगड़ा हुआ है मगर मैं उसे सुधारना चाहता हूँ, मेरा खयाल है कि वह दुःख भोगकर सुधर सकता है, मगर उसकी यातना की जाये तो ताज्जुब नहीं कि वह राह पर आ जाये।
दलीपशाह : तो क्या बेचारी जमना और सरस्वती ही के हाथ से उसकी यातना कराइएगा?
इन्द्रदेव : नहीं, वे बेचारियाँ भला क्या कर सकेंगी। मैं अब आपके पास इसीलिए आया हूँ कि इस काम में आपसे मदद लूँ।
दलीपशाह : वह क्या? मैं आपके लिए हर तरह से तैयार हूँ।
इन्द्रदेव : आप जानते ही हैं कि मैं अपना स्थान किसी तरह छोड़ नहीं सकता।
दलीपशाह : बेशक् ऐसा ही है।
इन्द्रदेव : इसलिए मैं चाहता था कि आप कुछ दिनों तक उन लड़कियों के साथ रहकर उनकी मदद करें मगर देखता हूँ कि आप बेतरह गदाधरसिंह पर टूटे हुए हैं। मैं यह नहीं चाहता कि वह जान से मारा जाय।
दलीपशाह : तो क्या आप समझते हैं कि मैं आपकी इच्छा के विपरीत चलूँगा?
इन्द्रदेव : नहीं-नहीं, ऐसा तो मुझे स्वप्न में भी गुमान नहीं हो सकता। हाँ यह सोचता हूँ कि मेरा कहना आपकी इच्छा के विरुद्ध कहीं न हो।
दलीपशाह : चाहे जो हो मगर मैं आपकी बात कभी न टालूँगा, इसके अतिरिक्त आप जानते हैं कि वह मेरा रिश्तेदार है, उसकी स्त्री शान्ता है तो मेरी साली, मगर मैं उसे बहिन की तरह मानता और प्यार करता हूँ, ऐसी अवस्था में मैं कब चाहूँगा कि गदाधरसिंह मारा जाये और उसकी स्त्री विधवा होकर मेरी आँखों के सामने आये! मगर बात जो असल है वह जरूर करने में आती है।
इन्द्रदेव : ठीक है मगर गदाधरसिंह खुद अपने पैर में कुल्हाड़ी मार रहा है। खैर जैसा करेगा वैसा पावेगा। हम लोग जहाँ तक हो सकेगा उसके सुधारने की कोशिश करेंगे, आगे जो ईश्वर की मर्जी।
दलीपशाह : खैर मुझे आप क्या काम सुपुर्द करते हैं सो कहिए?
इन्द्रदेव : मैं चाहता हूँ कि आप कुछ दिनों तक जमना और सरस्वती के साथ रहकर उनकी मदद कीजिए, मगर इस तरह पर नहीं कि जो कुछ वे कहती जाएँ आप करते जाएँ।
दलीपशाह : तब किस तरह से?
इन्द्रदेव : इस तरह से कि दोनों जिस तरह चाहें स्वयं काम करके अपना हौसला पूरा करें और यही उनकी इच्छा भी है, मगर इस तरह पर नहीं कि जो कुछ वे कहती जाएँ या किसी मुसीबत में फँस जाएँ तब आप उनकी रक्षा करें।
दलीपशाह : यह तो बड़ा कठिन काम है!
इन्द्रदेव : बेशक् कठिन है और इसे सिवाय आपके दूसरा पूरा नहीं कर सकता।
दलीपशाह : (कुछ सोचकर) बहुत अच्छा, मैं तैयार हूँ।
इन्द्रदेव : तो बस आज ही आप मेरे साथ चलिए. मैं उन दोनों को आपके सुपुर्द कर दूँ और उस घाटी के भेद भी आपको बता दूँ तथा जो कुछ मैं कर आया हूँ उसे भी समझा हूँ।
दलीपशाह : जब आपकी इच्छा हो चलिए। (फाटक की तरफ खयाल करके) देखिए गुलाबसिंह चले आ रहे हैं, इन्हें चुनार से क्यों कर छुट्टी मिली!
इन्द्रदेव : इनका हाल आपको मालूम नहीं है पर मैं सुन चुका हूँ और इस समय आपसे कहने ही वाला था कि इंदुमति भी आजकल जमना और सरस्वती के पास पहुंची हुई हैं, मगर अब कहने की कोई जरूरत नहीं, खुद गुलाबसिंह की जुबानी आप सब कुछ सुन लेंगे और शायद इसीलिए वह यहाँ आए भी हैं।
दलीपशाह : शिवदत्त भी नया राज्य पाकर आजकल अंधा हो रहा है।
इन्द्रदेव : बेशक् ऐसा ही है।
इतने ही में दरबान ने ऊपर आकर गुलाबसिंह के आने की इत्तिला की और इन्हें ले आने का हुक्म पाकर चला गया। थोड़ी ही देर में गुलाबसिंह वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने बड़े अदब के साथ इन्द्रदेव को सलाम किया और दलीपशाह से मिले।
इशारा पाकर गुलाबसिंह एक कुर्सी पर बैठ गए और इस तरह बातचीत होने लगी-
दलीपशाह : कहो भाई गुलाबसिंह जी, आज तो बहुत दिनों के बाद आपसे मुलाकात हुई है, सब कुशल तो है?
गुलाबसिंह : जी कुशलता तो नहीं है, और इसीलिए मुझे चुनारगढ़ से भागना पड़ा।
दलीपशाह : क्या महाराज शिवदत्त की नौकरी आपने छोड़ दी?
गुलाबसिंह : हाँ, मजबूर होकर मुझे ऐसा करना पड़ा, क्योंकि मैं प्रभाकर सिंह के साथ किसी तरह का बुरा बर्ताव नहीं कर सकता था।
दलीपशाह : प्रभाकर सिंह भी तो उन्हीं के यहाँ सेनापति का काम करते हैं?
गुलाबसिंह : हाँ, मगर महाराज ने उनके साथ बहुत ही बुरा बर्ताव किया, उनकी इंदुमति पर हजरत आशिक हो गए और बड़ी-बड़ी चालबाजियों से अपने महल में बुलवा लिया, मगर जब वह किसी तरह राजी न हुई और जान देने पर तैयार हो गई तब लाचार उसे महल के अंदर कैद करके रखा और प्रभाकर सिंह को मार डालने का बंदोबस्त करने लगे जिसमें निश्चिन्त होकर इंदुमति को काम में लावें, परंतु प्रभाकर सिंह को इस बात का पता लग गया और वे महल में घुसकर बड़ी बहादुरी से इंदुमति को छुड़ा लाए। तो भी शिवदत्त का मुकाबला नहीं कर सकते थे इसलिए अपनी स्त्री को साथ लेकर वहाँ से भाग खड़े हुए। इसके बाद शिवदत्त ने उनकी गिरफ्तारी के लिए मुझे मुकर्रर किया, मैंने इसी बात का गनीमत समझा और कई आदमियों को साथ लेकर उनकी खोज में निकला। आखिर उनसे मुलाकात हो गई और तब से उनकी ताबेदारी में रहने लगा क्योंकि उनके बुजुर्गों ने जो कुछ भलाई मेरे साथ की है उसे मैं भूल नहीं सकता। नौगढ़ की सरहद के पास ही उनसे मुलाकात हुई थी और अकस्मात् उसी जगह भूतनाथ भी मुझसे मिल गया। मैंने भूतनाथ से मदद माँगी और वह मदद देने के लिए तैयार होकर हम लोगों को अपना डेरे पर ले गया, मगर कई मामले ऐसे हो गए कि भूतनाथ दोस्ती का इस्तीफा देकर दुश्मन बन बैठा और उसे सबब से भी हमें तकलीफ ही उठानी पड़ी!
इतना कहकर गुलाबसिंह ने इन्द्रदेव की तरफ देखा।
इन्द्रदेव : हाँ-हाँ गुलाबसिंह, तुम कहते जाओ रुको, मत, दलीपशाह से कोई बात छिपी हुई नहीं है।
गुलाबसिंह : (हाथ जोड़कर) जी नहीं, अब जो कुछ कहना बाकी है आप ही इन्हें समझा दें, मैं डरता हूँ कि कदाचित् मेरी जबान से ऐसी कोई बात निकल पड़े जिसे आप नापसंद करते हों तो…
इन्द्रदेव : (मुसकराकर) अजी नहीं गुलाबसिंह, मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ तुम बड़े ही नेक और सज्जन आदमी हो, जमना और सरस्वती ने जो कुछ भेद की बातें प्रभाकर सिंह से कहीं हैं सो मुझे मालूम हैं और प्रभाकर सिंह ने जो कुछ तुम्हें बताया है उसे भी मैं कदाचित् जानता हूँ, अस्तु तुम जो कहना चाहते हो बेधड़क कहते जाओ।
गुलाबसिंह : जो आज्ञा। अच्छा तो मैं संक्षेप में कह डालता हूँ, (दलीपशाह से) भूतनाथ जिस घाटी में रहता है उसके पास ही जमना और सरस्वती भी रहती हैं। वह किसी तरह प्रभाकर सिंह को अपने यहाँ ले गईं मगर इसके बाद ही इंदुमति पुन: दुश्मनों के हाथ में फँस गई, उसे भी दोनों बहिनें छुड़ाकर अपने यहाँ ले गईं। तब से इंदुमति उन्हीं के यहाँ रहती हैं। प्रभाकर सिंह उस खोह के बाहर आए और कई दिनों के बाद हम दोनों आदमी चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए इसलिए कि कुछ सिपाहियों का बंदोबस्त करके दुश्मन से बदला लें। मगर भूतनाथ जिसे जमना और सरस्वती ने गिरफ्तार करके नीचा दिखाया था हम लोगों का दुश्मन बन बैठा और धोखा देकर प्रभाकर सिंह को कैद कर अपने घर ले गया, कहाँ रखा मुझे मालूम नहीं।
इसके बाद गुलाबसिंह ने वह किस्सा खुलासे-तौर पर दलीपशाह और इन्द्रदेव से बयान किया। इन्द्रदेव को प्रभाकर सिंह की गिरफ्तारी का हाल अभी तक मालूम नहीं हुआ था अस्तु उन्हें यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने दलीपशाह से कहा, “मेरे दोस्त, मुझे प्रभाकर सिंह के हाल पर अफसोस होता है। भूतनाथ ने भी यह काम अच्छा नहीं किया। खैर कोई चिंता नहीं, प्रभाकर सिंह को उसके कब्जे से निकाल लेना कोई बड़ी बात नहीं है। अब तुम सफर की तैयारी करो, और जमना तथा सरस्वती के साथ-ही-साथ प्रभाकर सिंह की मदद करो, मैं खुद तुम्हारे साथ चल कर प्रभाकर सिंह को कैद से छुट्टी दिलाऊँगा!”
इतना कहकर इन्द्रदेव दलीपशाह को कमरे के अंदर ले गये और आधे घंटे तक एकांत में न मालूम क्या समझाते रहे, इसे बाद बाहर आए और बहुत देर तक गुलाबसिंह से बातचीत करते रहे।