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भाग -13

7 जून 2022

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प्रेमी पाठक महाशय, अभी तक भूतनाथ के विषय में जो कुछ हम लिख आये हैं उसे आप भूतनाथ के जीवनी की भूमिका ही समझें, भूतनाथ का मजेदार हाल जो अद्भुत घटनाओं से भरा हुआ है पढ़ने के लिए अभी आप थोड़ा-सा और सब्र कीजिए, अब उसका अनूठा किस्सा आया ही चाहता है, यद्यपि चन्द्रकान्ता सन्तति में प्रभाकर सिंह और इंदुमति का नाम नहीं आया है मगर भूतनाथ की जीवनी का इन दोनों व्यक्तियों से बहुत ही घना संबंध है और भूतनाथ की बराबरी या ढिठाई का जमाना शुरू होने से बहुत दिन पहिले ही से भूतनाथ का इन दोनों से वास्ता पड़ चुका था और इन्हीं दोनों के सबब से इन्द्रदेव और दलीपशाह के ऊपर भी भूतनाथ की निगाह पड़ चुकी थी इसलिए हमें सबसे पहिले प्रभाकर सिंह और इंदुमति का परिचय देना पड़ा, तथापि आपको आगे चलकर प्रभाकर सिंह और इंदुमति की अवस्था पर आश्चर्य करना पड़ेगा।

यद्यपि इंदुमति का पता न लगने से प्रभाकर सिंह को बहुत दुःख हुआ परंतु इन्द्रदेव का खयाल उन्हें ढाँढस दे रहा था। वे समझते थे कि इंदुमति अपनी दोनों बहिनों के साथ जरूर इन्द्रदेव के यहाँ चली गई होगी, अस्तु सबसे पहिले इन्द्रदेव के यहाँ चलकर उसका पता लगाना चाहिए, इस बात का निश्चय कर गुलाबसिंह को साथ लिए हुए प्रभाकर सिंह इन्द्रदेव से मिलने के लिए रवाना हुए।

जमना और सरस्वती की जुबानी प्रभाकर सिंह को मालूम हो चुका था कि इन्द्रदेव वास्तव में किसी तिलिस्म के दारोगा हैं परंतु इन्द्रदेव ने अपने को ऐसा मशहूर नहीं किया था और न साधारण लोगों को उनके विषय में ऐसा खयाल ही था। उसके मुलाकातियों में से भी बहुत कम आदमियों को यह बात मालूम थी कि इन्द्रदेव किसी तिलिस्म के दारोगा हैं और यदि कोई इस बात को जानता भी था तो उसे तिलिस्म के विषय में कुछ ज्ञान ही न था। अगर कोई इन्द्रदेव से तिलिस्म के विषय में कुछ पूछता भी तो इन्द्रदेव समझा देते कि यह सब दिल्लगी की बातें हैं। हाँ, दो-चार आदमियों को इस बात का पूरा-पूरा विश्वास था कि इन्द्रदेव किसी भारी तिलिस्म के दारोगा हैं, मगर अपनी जुबान से उन्हें भी पूरा-पूरा पता नहीं लगने देते थे। इसके अतिरिक्त इन्द्रदेव का रहन-सहन ऐसा था कि किसी को उनके विषय में जानने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी और न वे विशेष दुनियादारी के मामले में ही पड़ते थे, वह वास्तव में साधु और महात्मा की तरह अपनी जिंदगी बिताते थे मगर ढंग उनका अमीराना था। मतलब यह है कि सर्वसाधारण को इन्द्रदेव के विषय में पूरा-पूरा ज्ञान नहीं था, हाँ इतना जरूर मशहूर था कि इन्द्रदेव ऊँचे दर्जे के ऐयार हैं और उनके बुजुर्गों ने ऐयारी के फन में बहुत दौलत पैदा की है जिसकी बदौलत आज तक इन्द्रदेव बहुत रईस और अमीर बने हुए हैं।

यह सब कुछ था सही परंतु इन्द्रदेव के दो-चार दोस्त ऐसे भी थे जिन्हें इन्द्रदेव का पूरा-पूरा हाल मालूम था। मगर इन्द्रदेव की तरह वे लोग भी इस बात को मंत्र की भाँति छिपाए रहते थे।

इन्द्रदेव का रहने का स्थान कैसा था और वहाँ जाने के लिए कैसी-कैसी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती थीं इसका हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है यहाँ पुन: लिखने की आवश्यकता नहीं है, हाँ इतना कह देना आवश्यक जान पड़ता है कि जिन दिनों का हाल इस जगह लिखा जा रहा है उन दिनों इन्द्रदेव निश्चित रूप से उस तिलिस्मी घटी में नहीं रहा करते थे बल्कि अपने लिए उन्होंने एक मकान तिलिस्मी घाटी के बाहर उसके पास ही एक पहाड़ी पर बनवाया हुआ था जिसका नाम “कैलाश” रखा था और इसी मकान में वह ज्यादा रहा करते थे, हाँ, जब जमाने के हाथों से वह ज्यादा सताए गये और उन्होंने उदास होकर दुनिया ही को तुच्छ समझ लिया तब उन्होंने बाहर का रहना एकदम से बंद कर दिया जैसा कि चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है।

प्रभाकर सिंह जब इन्द्रदेव से मिलने गये तब उस “कैलाश भवन” में मुलाकात हुई। उन दिनों इन्द्रदेव बीमार थे, यद्यपि उनकी बीमारी ऐसी न थी कि चारपाई पर पड़े रहते परन्तु घर के बाहर निकलने योग्य भी वह न थे।

प्रभाकर सिंह और गुलाबसिंह से मिलकर इन्द्रदेव ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और बड़ी खातिरदारी से इन दोनों को अपने यहाँ रखा। प्रभाकर सिंह और गुलाबसिंह ने भी इन्द्रदेव की बीमारी पर खेद प्रकट किया और इसी के साथ अपने आने का सबब भी प्रभाकर सिंह ने बयान किया जिसे सुनकर इन्द्रदेव की आँखें डबडबा आईं और एकांत होने पर उन दोनों में से इस तरह बातचीत होने लगी, इस बातचीत में गुलाबसिंह शरीक नहीं थे।

इन्द्रदेव : प्रभाकर सिंह, तुम्हें यह सुनकर बहुत दुःख होगा कि तुम्हारी स्त्री इंदुमति हमारे यहाँ नहीं है तथा जमना और सरस्वती का भी कुछ पता नहीं लगता कि वे दोनों कहाँ गायब हो गईं। अफसोस, उन दोनों ने मेरी शिक्षा पर कुछ ध्यान नहीं दिया और अपनी बेवकूफी से अपने को थोड़े ही दिनों में जाहिर कर दिया। अगर वे मेरी आज्ञानुसार अपने को छिपाए रहतीं और धीरे-धीरे कार्य करतीं तो धोखा न उठातीं।

प्रभाकर सिंह : (दुखित चित्त से) निःसन्देह ऐसा ही है, उस घाटी में पहिले जब मुझसे मुलाकात हुई थी तब उन्होंने कहा था कि ऐसे स्थान में रहकर भी हम लोग अपने को हर वक्त छिपाए रहती हैं, यहाँ तक कि अपनी लौंडियों को भी अपनी असली सूरत नहीं दिखाती…

इन्द्रदेव : (दुखित चित्त से) बेशक् ऐसी ही बात थी और मैंने ऐसा ही प्रबंध कर दिया था कि उनके साथ रहने वाली लौंडियों को भी इस बात का ज्ञान न था कि ये दोनों वास्तव में जमना-सरस्वती हैं। वे सब उन दोनों को कला और बिमला ही जानती थीं मगर इस बात को जमना ने बहुत जल्द चौपट कर दिया और लौंडियों पर भरोसा करके शीघ्र ही अपने को प्रकट कर दिया। अगर लौंडियों को यह भेद मालूम न हो गया होता तो भूतनाथ की समझ में खाक न आता कि वे दोनों कौन हैं और क्या चाहती हैं।

प्रभाकर सिंह : आपका कहना बहुत ठीक है।

इन्द्रदेव : बड़ों ने सच कहा है कि स्त्रियों के विचार में स्थिरता नहीं होती और वे किसी भेद को ज्यादा दिनों तक छिपा नहीं सकतीं, कइयों का कथन तो यह है कि स्त्रियों की बुद्धि प्रलय करने वाली होती है। और मैं भी इसी बात का पक्षपाती हूँ।

प्रभाकर सिंह : अफसोस करने के सिवाय और में क्या कहूँ, इन बखेड़ों में मैं तो व्यर्थ ही पीसा गया, मेरे हौंसले सब मटियामेट हो गये और मैं कहीं का भी न रहा। मैं क्या कहूँ कि कैसी उम्मीदें अपने साथ लेकर आपके पास आया था, मगर…

इन्द्रदेव : प्रभाकर सिंह, तुम एकदम से हताश न हो जाओ और उद्योग का पल्ला मत छोड़ो क्या कहूँ, मैं बहुत दिनों से बीमार पड़ा हुआ हूँ और इस योग्य नहीं कि स्वयं कुछ कर सकूँ तथापि मैंने अपने कई आदमी उन सभों की खोज में दौड़ा रखे हैं। दलीपशाह का भी बहुत दिनों से पता नहीं है, वे भी उन सभों के साथ ही गायब हैं।

प्रभाकर सिंह : और भूतनाथ?

इन्द्रदेव : भूतनाथ अपने मालिक के यहाँ स्थिर भाव से बैठा हुआ है। मुद्दत से वह कहीं आता-जाता नहीं है, रणधीरसिंह जी की जो कुछ उसकी तरफ से रंज हो गया था उसे भी भूतनाथ ने ठीक कर लिया। अब तो ऐसा मालूम होता है कि मानो भूतनाथ ने कभी रंग बदला ही न था। इधर साल-भर में चार-पाँच दफे भूतनाथ मुझसे मिलने के लिए आया था मगर जमना और सरस्वती के विषय में न तो मैंने ही कुछ जिक्र किया और न उसने ही कुछ छेड़ा, यद्यपि मालूम होता है कि भूतनाथ उसी विषय में छेड़छाड़ करने के लिए आया था मगर मैंने कुछ चर्चा उठाना मुनासिब न समझा।

प्रभाकर सिंह : अस्तु अब क्या करना चाहिए सो कहिए। मैं तो आपका बहुत भरोसा रख के यहाँ आया था परन्तु यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ कि आपने जमना, सरस्वती के लिए कुछ भी नहीं किया।

इन्द्रदेव : ऐसा मत कहो, मैंने उन सभों के लिए बहुत उद्योग किया मगर लाचार हूँ कि उद्योग का कोई अच्छा नतीजा न निकला, हाँ यह जरूर मानना पड़ेगा कि मैं स्वयं अपने हाथ-पैर से कुछ न कर सका, इसका सबसे बड़ा सबब तो यह है कि मैं इस मामले में अपने को प्रकट करना उचित नहीं समझता। दूसरे बीमारी से भी लाचार हो रहा हूँ। खैर जो होना था सो तो हो गया। अब तुम आ गये हो तो उद्योग करो। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेगा और मैं भी हर तरह से तुम्हारी मदद के लिए तैयार हूँ। मेरी यह प्रबल इच्छा है कि किसी तरह उन तीनों का पता लगे। यदि मुझे इस बात का निश्चय हो जाएगा कि उन तीनों से भूतनाथ ने कोई अनुचित व्यवहार किया है तो मैं निःसन्देह भूतनाथ से बदला लूँगा मगर जब तक इस बात का निश्चय न होगा मैं कदापि भूतनाथ से संबंध न तोडूंगा, हाँ, तुम्हें हर तरह से मदद बराबर देता रहूँगा।

प्रभाकर सिंह : अच्छा तो फिर मुझे शीघ्रता बताइए कि अब क्या करना चाहिए, अब मुझमें बैठे रहने की सामर्थ्य नहीं है।

इन्द्रदेव : जल्दी न करो, मैं सोच-विचार कर कल तुमसे कहूँगा कि अब क्या करना चाहिए, एक दिन के लिए और सब्र करो।

प्रभाकर सिंह : जो आज्ञा, परन्तु…लाचार होकर प्रभाकर सिंह को इन्द्रदेव की बात माननी पड़ी परन्तु इस बात का उनको आश्चर्य बना ही रहा कि इन्द्रदेव ने जमना और सरस्वती के लिए इतनी सुस्ती क्यों की और वास्तव में जमना और सरस्वती गायब हो गई हैं या इसमें भी कोई भेद है।

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रचनाएँ
भूतनाथ-खण्ड-2
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भूतनाथ बाबू देवकीनंदन खत्री का तिलस्मि उपन्यास है। चन्द्रकान्ता सन्तति के एक पात्र को नायक का रूप देकर देवकीनन्दन खत्री जी ने इस उपन्यास की रचना की। किन्तु असामायिक मृत्यु के कारण वे इस उपन्यास के केवल छः भागों लिख पाये उसके बाद के अगले भाग को उनके पुत्र दुर्गाप्रसाद खत्री ने लिख कर पूरा किया।
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भाग -1

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रात बहुत कम बाकी थी जब बिमला और इंदुमति लौट कर घर में आईं जहाँ कला को अकेली छोड़ गई थीं। यहाँ आते ही बिमला ने देखा कि उसकी प्यारी लौंडी चंदो जमीन पर पड़ी हुई मौत का इंतजार कर रही है। उसका दम टूटा ही च

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भाग -2

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दिन पहर भर से कुछ ज्यादा हो चुका है। यद्यपि अभी दोपहर होने में बहुत देर है तो भी धूप की गर्मी इस तरह बढ़ रही है कि अभी से पहाड़ के पत्थर गर्म हो रहे हैं और उन पर पैरी रखने की इच्छा नहीं होती, दो पहर द

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भाग - 3

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भाग -4

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गुलाबसिंह की जब आँख खुली तो रात बीत चुकी थी और सुबह की सुफेदी में पूरब तरफ लालिमा दिखाई देने लग गई थी। वह घबराकर उठ बैठा और इधर-उधर देखने लगा। जब प्रभाकर सिंह को वहाँ न पाया तब बोल उठा, “बेशक् मैं धोख

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भाग -5

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ऊपर लिखी वारदात को गुजरे आज कई दिन हो चुके हैं। इस बीच में कहाँ और क्या-क्या नई बातें पैदा हुईं उनका हाल तो पीछे मालूम होगा, इस समय हम पाठकों को कला और बिमला की उसी सुन्दर घाटी में ले चलते हैं जिसकी स

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भाग - 6

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दिन तीन पहर से ज्यादा बढ़ चुका है। इस समय हम भूतनाथ को एक घने जंगल में अपने तीन साथियों के साथ पेड़ के नीचे बैठे हुए देखते हैं। यह जंगल उस घाटी से बहुत दूर न था जिसमें भूतनाथ रहता था और जिसका रास्ता ब

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भाग - 7

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जमानिया वाला दलीपशाह का मकान बहुत ही सुन्दर और अमीराना ढंग पर गुजारा करने लायक बना हुआ है। उसमें जनाना और मर्दाना किला इस ढंग से बना है कि भीतर से दरवाजा खोलकर जब चाहे एक कर ले और अगर भीतर रास्ता बंद

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भाग -8

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भूतनाथ को जब अपनी घाटी में घुसने का रास्ता नहीं मिला तो वह प्रभाकर सिंह को एक दूसरे ही स्थान में ले जाकर रख आया था और अपने दो आदमी उनकी हिफाजत के लिए छोड़ दिये थे। अब जब भूतनाथ महात्मा जी की कृपा से अ

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अबकी दफे भूतनाथ ने प्रभाकर सिंह को बड़ी सख्ती के साथ कैद किया, पैरों में बेड़ी और हाथों में दोहरी हथकड़ी डाल दी और उसी गुफा के अन्दर रख दिया जिसमें स्वयं रहता था और उसके (गुफा के) बाहर आप चारपाई डाल र

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दोपहर का समय है मगर सूर्यदेव नहीं दिखाई देते। आसमान गहरे बादलों से भरा हुआ है। ठंडी-ठंडी हवा चल रही है और जान पड़ता है कि मूसलाधार पानी बरसा ही चाहता है। भूतनाथ अपनी घाटी के बाहर निकल कर अकेला ही तैय

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भूतनाथ के हाथ से छुटकारा पाकर प्रभाकर सिंह अपनी स्त्री से मिलने के लिये उस घाटी में चले गये जिसमें कला और बिमला रहती थीं। संध्या का समय था जब वे उस घाटी में पहुँचकर कला, बिमला और इंदुमति से मिले। उस स

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गुलाबसिंह को साथ लेकर प्रभाकर सिंह नौगढ़ चले गये। वहाँ उन्हें फौज में एक ऊँचे दर्जे की नौकरी मिल गई और चुनार पर चढ़ाई होने से उन्होंने दिल का हौसला खूब ही निकाला। वे मुद्दत तक लौटकर इंदुमति के पास न आ

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