क्या भूतनाथ को कोई अपना दोस्त कह सकता था? क्या भूतनाथ के दिल में किसी की मुहब्बत कायम रह सकती थी? क्या भूतनाथ किसी के एहसान का पाबंद रह सकता था? क्या भूतनाथ पर किसी का दबाव पड़ सकता था? क्या भूतनाथ पर कोई भरोसा रख सकता था? इसका जवाब देना बहुत कठिन है। जो गुलाबसिंह भूतनाथ को अपना दोस्त कहता था आज वही गुलाबसिंह भूतनाथ पर भरोसा नहीं करता और इसी तरह भूतनाथ भी उसे अपना दोस्त नहीं समझता। जिस प्रभाकर सिंह की मदद के लिए भूतनाथ कमर बाँध कर तैयार हुआ था आज उसी प्रभाकर सिंह पर ऐयारी का वार करके इंदुमति को सताने के लिए वह तैयार हो रहा है।
सूरत बदले हुए प्रभाकर सिंह और गुलाबसिंह को यद्यपि भूतनाथ ने पहिचाना न था मगर उसे किसी तरह का शक जरूर हो गया था और यही जाँच करने के लिए उसने इन दोनों का पीछा किया था।
रात पहर भर से ज्यादा हो चुकी थी। गुलाबसिंह और प्रभाकर सिंह आपस में बातें करते हुए चुनारगढ़ की तरफ जा रहे थे। वे दोनों इस विचार में थे कि कोई गाँव या बस्ती आ जाय तो वहाँ थोड़ी देर के लिए आराम करें। कुछ दूर और जाने के बाद वे दोनों ऐसी जगह पहुँचे जहाँ जंगली पेड़ बहुत ही कम होने के कारण वह जमीन मैदान का नमूना बन रही थी और पगडंडी रास्ते से कुछ हट कर दाहिनी तरफ एक सुन्दर कुआँ भी था जिसे देख इन दोनों की इच्छा हुई कि इस कुएँ पर बैठकर कुछ देर आराम कर लें तब आगे बढ़ें।
कुएँ के पास जाकर देखा कि एक आदम गमछा बिछाए उसी जगह पर आराम कर रहा है और डोरी तथा लोटा उसके सिरहाने की तरफ पड़ा हुआ है।
गुलाबसिंह ने प्रभाकर सिंह की तरफ देखकर कहा, “कुछ देर के लिए यहाँ आराम कीजिए, पानी पीजिए, और हाथ-मुँह धो ठंडे होकर सफर की हरारत मिटाइए!” इसके जवाब में प्रभाकर सिंह ने कहा, “पानी पीने के लिए हम लोगों के पास लोटा-डोरी तो है नहीं, हाँ आगे किसी ठिकाने पर चलें तो सभी कुछ हो सकता है, बल्कि वहाँ खाने-पीने का भी सुबीता होगा!”
इन दोनों की बातें सुनकर वह मुसाफिर जो कुएँ की जगत पर लेटा हुआ था उठ बैठा और बोला, “हाँ हाँ, आप क्षत्री जान पड़ते हैं और मैं भी गौड़ ब्राह्मण हूँ, अभी-अभी यह लोटा माँज कर मैंने रखा है आप पानी खींच लीजिए।”
“अति उत्तम” कह कर गुलाबसिंह ने लोटा-डोरी उठा ली और प्रभाकर सिंह उसी जगत पर बैठ गये।
गुलाबसिंह ने कुएँ से जल निकाला और दोनों दोस्तों ने हाथ-मुँह धोया। इसके बाद पुन: जल निकाल कर दोनों ने थोड़ा-थोड़ा पीया फिर लोटा माँज मुसाफिर के सिरहाने उसी जगह रख दिया।
गुलाबसिंह यद्यपि होशियार आदमी थे मगर इस जगह एक मामूली बात में भूल कर गये! उन्हें उचित था कि अपने हाथ से लोटा माँज कर तब जलपान करते या मुँह-हाथ धोते, मगर ऐसा न करने से दोनों ही को तकलीफ उठानी पड़ी।
वह आदमी जो कुएँ पर पहिले ही से आराम कर रहा था वास्तव में भूतनाथ था। वह इन दोनों की आहट लेता हुआ इनसे कुछ ही दूर आगे-आगे सफर कर रहा था बल्कि यों कहना चाहिए कि कभी आगे, कभी पीछे, कभी पास कभी दूर जब जैसा मौका पाता उसी तरह उन दोनों के साथ सफर कर रहा था और इस समय पहिले ही से यहाँ आकर इन लोगों को धोखा देने के लिए अटका हुआ था।
प्रभाकर सिंह : (गुलाबसिंह से) यह कुआँ है तो अच्छे मौके पर मगर इसका पानी अच्छा नहीं है।
गुलाबसिंह : हाँ पानी में कुछ बदबू मालूम पड़ती है, मगर यह बात पहिले न थी, मैं कई दफे इस कुएँ का पानी पी चुका हूँ, यहाँ चार-पाँच कोस के घेरे में यही एक कुआँ है।
इसके बाद दोनों आदमी कुछ देर तक मामूली बातचीत करते रहे क्योंकि अनजान मुसाफिर पास होने के खयाल से मतलब की या भेद की कोई बात नहीं कर सकते थे। इसके बाद वे दोनों चादर बिछाकर लेट गये और बात-की-बात में बेखबर होकर खर्राटे लेने लगे। उस समय भूतनाथ अपनी जगह से उठा और दोनों के पास आकर गौर से देखने लगा कि अभी ये बेहोश हुए हैं या नहीं।
भूतनाथ ने अपने लोटे के अन्दर बेहोशी की दवा लगा दी थी जिसका कुछ हिस्सा पानी में मिल घुलकर इनके पेट में उतर गया था और इसी दवा के महक इन दोनों की नाक में गई थी जिसका असल मतलब न समझ कर इन्होंने पानी की शिकायत की थी।
जब भूतनाथ ने देखा कि वे दोनों अच्छी तरह बेहोश हो गये तब अपने बटुए में से सामान निकालकर उसने रोशनी की, इसके बाद कुएँ में से पानी निकाला और रूमाल तर करके इन दोनों का चेहरा साफ किया। उस समय अच्छी तरह देखने से भूतनाथ का शक जाता रहा और उसने पहिचान लिया कि ये दोनों गुलाबसिंह और प्रभाकर सिंह हैं।
गुलाबसिंह ऐयार नहीं था मगर अकल का तेज होशियार आदमी था तथा ऐयारों के साथ दोस्ती रहने के कारण कुछ-कुछ ऐयारी का काम भी कर सकता था और इसी सबब से उसने अपनी और प्रभाकर सिंह की सूरत मामूली ढंग पर बदल ली थी।
भूतनाथ ने इन दोनों को अच्छी तरह पहिचान लेने के बाद गुलाबसिंह की सूरत पुन: उसी तरह की बना दी और प्रभाकर सिंह को पीठ पर लाद कर अपने घर का रास्ता लिया।
तेजी के साथ चलकर दो ही घंटे में वह अपनी घाटी के मुहाने पर जा पहुँचा जहाँ रहता था तथा जो कला और बिमला की घाटी के साथ सटी हुई थी। वहाँ उसके शागिर्द लोग उसका इंतजार कर रहे होंगे यह सोच भूतनाथ तेजी से कदम बढ़ाता हुआ उस सुरंग के अन्दर घुसा।
सुरंग के अन्दर घुसने के बाद उसी चौमुहानी पर पहुँचा जिसका जिक्र ऊपर कई दफे आ चुका है। इसके बाद यह अपनी घाटी की तरफ घूमा और उस सुरंग में घुसा मगर दो ही चार कदम आगे जाने के बाद दरवाजा बंद देख उसे बड़ा ही ताज्जुब हुआ, उसका दिमाग हिल गया और हिम्मती होने पर भी वह एक दफे काँप उठा।
प्रभाकर सिंह की गठरी उसने जमीन पर रख दी और बटुए में से सामान निकाल रोशनी करने के बाद अच्छी तरह गौर करके देखने लगा कि रास्ता क्यों कर बंद हो गया, मगर उसकी समझ में कुछ भी न आया। उसने सिर्फ इतना देखा कि लोहे का एक बहुत बड़ा तख्ता सामने खड़ा हुआ है जिसके कारण यह बिलकुल नहीं जान पड़ता कि उसका घर किस तरफ है। उसने दरवाजा खोलने की बहुत कोशिश की और बड़ी देर तक हैरान रहा मगर सब बेकार हुआ। यह सोच कर उसकी आँखों में आँसू भर आये कि हाय उसके कई शागिर्द जो इस घाटी के अन्दर हैं सब बेचारे भूख के मारे तड़प कर मर जाएँगे, क्योंकि इस रास्ते के सिवाय बाहर निकलने के लिए उन्हें कोई दूसरा रास्ता न मिलेगा।
प्रभाकर सिंह की गठरी लिए भूतनाथ घबड़ाया हुआ सुरंग के बाहर निकल आया और एक घने पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए? इस समय यहाँ मेरा कोई शागिर्द या नौकर भी नहीं मिल सकता जिससे किसी तरह का काम निकाला जाय। जिस खयाल से प्रभाकर सिंह को ले आया था वह काम भी न हुआ। हाय मेरे आदमी एकाएक जहन्नुम में मिल गये और मैं उनकी कुछ भी मदद न कर सका! मालूम होता है कि यहाँ का कोई सच्चा जानकार आ पहुँचा जिसने इस घाटी पर कब्जा कर लिया। क्या दयाराम की दोनों स्त्रियाँ तो यहाँ नहीं आ पहुँची जो पड़ोस में रहती हैं? अगर ऐसा हो भी तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि बगल वाली घाटी जिसमें वे दोनों रहती हैं कोई तिलिस्म मालूम पड़ती है और यह घाटी उससे कुछ संबंध रखती हो तो आश्चर्य ही क्या है। मैं नहीं चाहता था कि उन दोनों को सताऊँ या किसी तरह की तकलीफ दूँ, मगर दोस्तों और शागिर्दों को छुड़ाने के लिए अब मुझे सभी कुछ करना पड़ेगा।