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भाग -12

7 जून 2022

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गुलाबसिंह को साथ लेकर प्रभाकर सिंह नौगढ़ चले गये। वहाँ उन्हें फौज में एक ऊँचे दर्जे की नौकरी मिल गई और चुनार पर चढ़ाई होने से उन्होंने दिल का हौसला खूब ही निकाला। वे मुद्दत तक लौटकर इंदुमति के पास न आये और न इस तरफ का कुछ हाल ही उन्हें मालूम हुआ।

जब चुनारगढ़ फतह हो गया, राजा शिवदत्त उदासीन होकर भाग गए, चन्द्रकान्ता की शादी हो गई और चुनार की गद्दी पर राजा बीरेन्द्रसिंह बैठ गये तब बहुत दिनों के बाद प्रभाकर सिंह को इस बात का मौका मिला कि वे जाकर इंदुमति से मुलाकात करें।

प्रभाकर सिंह के दिल में तरह-तरह का खुटका पैदा हो रहा था और यह जानने के लिए वे बहुत-ही उत्सुक हो रहे थे कि उनके पीछे कला, बिमला और इंदुमति पर क्या-क्या बीती, अस्तु वे गुलाबसिंह को साथ लिए हुए बहुत तेजी के साथ कूच और मुकाम करते एक दिन दोपहर के समय उस पहाड़ी के पास पहुँचे जिसके अन्दर वह सुन्दर घाटी थी जिसमें कला और बिमला रहती थी। सोच रहे थे कि अब थोड़ी ही देर में उन लोगों से मुलाकात हुआ चाहती है जिनसे मिलने के लिए जी बेचैन हो रहा है।

आज कई वर्ष के बाद प्रभाकर सिंह इस घाटी के अन्दर पैर रखेंगे। आज पहिले की तरह गर्मी या बरसात का मौसम नहीं है, बल्कि जाड़े के दिनों में प्रभाकर सिंह उस घाटी के अन्दर जा रहे हैं, देखना चाहिए वहाँ का मौसम कैसा दिखाई देता है।

सुरंग का दरवाजा खोलना और बंद करना उन्हें बखूबी मालूम था, बल्कि इस घाटी के विषय में वे और भी बहुत-कुछ जान चुके थे अस्तु गुलाबसिंह को बाहर ही छोड़कर वे सुरंग के अन्दर घुसे और दरवाजा खोलते और बंद करते हुए उस घाटी के अन्दर चले गये। मगर उन्हें पहुँचने के साथ ही वहाँ कुछ उदासी-सी मालूम हुई। ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखते हुए बँगले के अंदर गये और वहाँ बिलकुल ही सन्नाटा पाया। जिस बँगले को ये पहिले सजा हुआ देख चुके थे और जिसके अन्दर पहिले तरह-तरह के सामान मौजूद थे आज वह बँगला बिलकुल ही खाली दिखाई दे रहा है। घबराहट की बात तो दूर रही वहाँ एक चटाई बैठने के लिये और एक लुटिया पानी पीने के लिए भी मौजूद न थी। यही हाल वहाँ की अलमारियों का भी था जिनमें से एक भी पहिले खाली नहीं दिखाई देती थी। आज वहाँ हर तरह से सन्नाटा छाया हुआ है और ऐसा मालूम होता है कि वर्षों से इस बँगले के अन्दर किसी आदमी ने पैर नहीं रखा।

इस बँगले में से एक रास्ता उस मकान के अन्दर जाने के लिए था जिसमें कला और बिमला खासतौर पर रहती थीं अथवा जिस प्रकार में पहिले-पहल इंदुमति की बेहोशी दूर हुई थी। प्रभाकर सिंह हैरान और परेशान उस मकान में पहुँचे मगर देखा कि वहाँ की उदासी उस बँगले से भी ज्यादा बढ़ी-चढ़ी है और एक तिनका भी वहाँ दिखाई न देता।

“यह क्या मामला है, यहाँ ऐसा सन्नाटा क्यों छाया हुआ है? कला, बिमला और इंदुमति कहाँ चली गईं? अगर कहीं किसी आपस वाले के घर में चली गईं तो यहाँ इस तरह उजाड़कर जाने की क्या जरूरत थी? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वे तीनों भूतनाथ के कब्जे में पड़ गई हों और भूतनाथ ने ही इस मकान को ऐसा उजाड़ बना दिया हो!” इन सब बातों को सोचते हुए प्रभाकर सिंह उदास और दुखित चित्त से बहुत देर तक चारों तरफ घूमते रहे और तब यह निश्चय कर वहाँ से चल पड़े कि अब भूतनाथ की घाटी का हाल मालूम करना चाहिए और देखना चाहिए कि वह किस अवस्था में है।

पहिले प्रभाकर सिंह उस सुरंग में घुसे जिसमें से उन्होंने पहिले दिन भूतनाथ की घाटी में इंदुमति को एक अपनी ही सूरत वाले के साथ ठगे जाते हुए देखा था। सुरंग के अंत में पहुँच सूराख की राह से उन्होंने देखा कि भूतनाथ की घाटी में भी बिलकुल सन्नाटा छाया हुआ है अर्थात् यह नहीं जान पड़ता कि इसमें कोई आदमी रहता है। कुछ देर तक देखने और गौर करने के बाद प्रभाकर सिंह सुरंग के बाहर निकल आये। तब उनकी हिम्मत न पड़ी कि एक सायत के लिए भी उस घाटी के अन्दर ठहरें। उदास और दुखित चित्त से सोचते और गौर करते हुए वे वहाँ से रवाना हुए और सुरंग की राह से कहीं निकलकर संध्या होने के पहिले ही उस ठिकाने पहुंचे जहाँ गुलाबसिंह को छोड़ गये थे। दूर ही से प्रभाकर सिंह की सूरत और चाल देखकर गुलाबसिंह समझ गए कि कुछ दाल में काला है, रंग अच्छा नहीं दिखाई देता। जब गुलाबसिंह के पास प्रभाकर सिंह पहुँचे तो सब हाल बयान किया और उदास होकर उनके पास बैठ गए। गुलाबसिंह को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वे सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

प्रभाकर सिंह के दिल पर क्या गुजरी होगी इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। उनके लिए दुनिया ही उजाड़ हो गई थी और चुनारगढ़ की लड़ाई में जो कुछ बहादुरी कर आये थे वह सब व्यर्थ ही जान पड़ती थी। दोनों बहादुरों ने मुश्किल से उस जंगल में रात बिताई और सवेरा होने पर अच्छी तरह निश्चय करने के लिए भूतनाथ की घाटी में जाने का इरादा किया। दोनों आदमी वहाँ से रवाना हुए और कुछ देर के बाद उस सुरंग के मुहाने पर जा पहुँचे जिस राह से भूतनाथ अपनी घाटी में आया-जाया करता था। रास्ते तथा दरवाजे का हाल प्रभाकर सिंह से कुछ छिपा न था अस्तु वे दोनों शीघ्र ही घाटी के अन्दर जा पहुँचे और देखा कि वास्तव में यहाँ भी सब उजाड़ पड़ा हुआ है और लक्षणों से जान जाता था कि यहाँ वर्षों से कोई नहीं आया और न कोई रहता है। अब कहाँ चलना चाहिए!

तरह-तरह की बातें सोचते-विचारते प्रभाकर सिंह और गुलाबसिंह घाटी के बाहर निकल आये और एक पेड़ के नीचे बैठकर इस तरह बातचीत करने लगे-

गुलाबसिंह : आश्चर्य की बात तो यह है कि दोनों घाटियाँ एकदम से खाली हो गईं। अब रणधीरसिंह के यहाँ चलकर पता लगाना चाहिए कि भूतनाथ का क्या हाल है, क्योंकि असल में भूतनाथ ही इस बखेड़े की जड़ है और ताज्जुब नहीं कि वे तीनों औरतें भूतनाथ के कब्जे में आ गई हों। वहाँ चलने से कुछ-न-कुछ पता जरूर लग जाएगा।

प्रभाकर सिंह : रणधीरसिंह जी के यहाँ तो मैं किसी तरह नहीं जा सकता। यद्यपि वे मेरे रिश्तेदार हैं मगर इस समय मैं उनके दामाद (शिवदत्त) से लड़कर आ रहा हूँ, इसलिए मुझे देखते ही वे आग ही जाएँगे क्योंकि उन्हें अपने दामाद और अपनी लड़की की अवस्था पर बहुत दुःख हो रहा होगा।

गुलाबसिंह : ठीक है, ऐसा जरूर होगा, मगर मैं यह तो नहीं कहता कि आप सीधे रणधीरसिंह के पास चले चलिए, मेरा मतलब यह है कि हम लोग सौदागरों की सूरत में वहाँ जाकर किसी सराय में डेरा डालें तथा ऊपर-ही-ऊपर लोगों से मिल-जुलकर भूतनाथ का पता लगावें और जो कुछ हाल हो मालूम करें।

प्रभाकर सिंह : हाँ यह हो सकता है। अच्छा तो अब यहाँ ठहरना व्यर्थ है, चलो उठो, मैं समझता हूँ कि इन्द्रदेव जी से मुलाकात किये बिना दिल को तसल्ली न होगी।

गुलाबसिंह : जरूर, वहाँ भी चलना ही होगा, मगर पहिले भूतनाथ की खबर लेनी चाहिए।

इतना कहकर गुलाबसिंह उठ खड़े हुए, प्रभाकर सिंह ने भी उसका साथ दिया और दोनों आदमी मिर्जापुर की तरफ रवाना हुए, इस बात का कुछ भी खयाल न किया कि समय कौन है और रास्ता कैसा कठिन है।

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रचनाएँ
भूतनाथ-खण्ड-2
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भूतनाथ बाबू देवकीनंदन खत्री का तिलस्मि उपन्यास है। चन्द्रकान्ता सन्तति के एक पात्र को नायक का रूप देकर देवकीनन्दन खत्री जी ने इस उपन्यास की रचना की। किन्तु असामायिक मृत्यु के कारण वे इस उपन्यास के केवल छः भागों लिख पाये उसके बाद के अगले भाग को उनके पुत्र दुर्गाप्रसाद खत्री ने लिख कर पूरा किया।
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