ओड़िशा के पुरी में समुद्रतट पर स्थित जगन्नाथ मंदिर एक हिंदु मंदिर है जो श्रीकृष्ण
(जगन्नाथ)को
समर्पित है । जगन्नाथ का अर्थ
जगत के स्वामी से होता है । इस मंदिर को हिंदुओं
के चार धामों में से एक माना जाता है । यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है । भगवान जगन्नाथ पुरी में 56
प्रकार के अन्न
का भोग ग्रहण करते हैं । 65
मीटर ऊंचा
यह मंदिर पुरी के सबसे शानदार
स्मारकों में से एक है । यह नीलगिरी पहाड़ी के आंगन में बना है । चारों ओर से 20 मीटर ऊंची दीवार से घिरे
इस मंदिर में कई
छोटे-बड़े मंदिर हैं । आमतौर पर जून या
जुलाई माह में रथ
महोत्व होता है जो दस दिन
तक चलता है । भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों की भव्य एवं सुसज्जित रथों पर शोभा यात्रा निकाली जाती है । श्रीमंदिर की
रत्नवेदी पर विराजमान चतुर्धा मूर्तियों सुदर्शनजी, बलभद्रजी, सुभद्राजी और
जगन्नाथ को पहंडी विजय कराकर रथारुढ़ किया जाता है। रथयात्रा के दिन रथों को
सिंहद्वार के सामने खड़ा किया जाता है। भगवान को उनके सेवादार, जिन्हें दईता कहते
हैं, पहंडी विजय कराकर रथासीन करते हैं। पहंडी विजय का दृष्य बहुत ही मनोरम होता
है। सबसे आगे बलभद्रजी
का रथ तालध्वज चलता है, उसके पीछे
सुभद्राजी का रथ देवदलन चलता है और पारिवारिक मर्यादा
का निर्वहन करते हुए जगन्नाथजी का रथ नंदीघोष रथ जय ‘ जगन्नाथ ’ गगनभेदी जयकारे के साथ
गुंडीचा मंदिर की ओर प्रस्थान
करता है । रथों को खींचने का काम
भक्तगण करते है । रथयात्रा के दिन सायंकाल होने पर देवविग्रहों को रथ पर ही रहने दिया जाता है
जहां पर भक्तगण रथारुढ़ विग्रहों के दर्शन का लाभ उठाते हैं। अगले दिल पहंडी विजय
के साथ देवविग्रहों को गुंडीचा मंदिर लाया जाता है जहां पर वे सात दिनों तक
विश्राम करते हैं और बीच में हेरापंचमी के दिन श्रीमंदिर से नाराज माता लक्ष्मी
आती है लेकिन उनको महाप्रभू से गुंडीचा मंदिर में सेवायत मिलने से मना कर देते हैं
जिसके फलस्वरुप वह जगन्नाथजी के बाहर खड़े रथ नंदीघोष के कुछ हिस्सों को तोड़कर
चली जाती है । सात दिनों के बाद
देव विग्रहों की बाहुड़ा यात्रा कराकर भक्तगण उन्हें खींचकर श्रीमंदिर के
सिंहद्वार के सामने लाते हैं जहां पर उनका सोना वेष होता है । श्रीमंदिर के
स्वर्णकक्ष में रखे समस्त आभूषणों से देव विग्रहों को सुसज्जित किया जाता है और
सोना वेष में भक्तगण महाप्रभू के दर्शन का लाभ उठाते हैं। उसके बाद अक्षरपड़ा होता है,
देव विग्रहों को शर्बत पिलाया जाता है और नीलादीं विजय के साथ महाप्रभू जगन्नाथ
अपने बड़े भाई बलभद्रजी और सुभद्राजी के साथ पुन: अपनी रत्नवेदी पर
विराजमान होते हैं। सन 1198 में ओड़िया शासक अनंग भीमदेव ने
मंदिर को वर्तमान रुप दिया था । सन 1558 में अफगान हमलावार काला पहाड़ ने ओड़िशा पर आक्रमण
किया, मंदिर में खूब विध्वंस मचाया तथा पूजा बंद करादी । तब विग्रहों को चिलका झील
के एक गुप्त टापू पर छुपा कर रखा गया था । जब रामचंद्र देब का खुर्दा में स्वतंत्र
शासन स्थापित हुआ तो मंदिर और मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई । मंदिर में गैर
हिंदुओं का प्रवेश निषिद्ध है। जिन्हें मंदिर में प्रविष्ट नहीं होने दिया गया
उनकी सूचि बहुत लंबी है जिनमें से प्रमुख हैं: भारत की भूतपूर्व
प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री रबिंद्र नाथ टैगोर, डॉ. बी. आर अंबेदकर,
लॉर्ड कर्जन, थाइलैंड की रानी महाचक्री श्रीधरन । महात्मा गांधी और डॉ. बी.आर अंबेदकर
ने 1934 में तब मंदिर में प्रवेश नहीं किया था जब उनके साथ आए मुस्लिम और दलित
महिला और पुरुषों को मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया था । सेवायतों द्वारा गुरु
नानक देव जी और भगत कबीर को भी मंदिर में प्रवेश से रोका गया था किंतु उस समय के
पुरी के राजाओं द्वारा उन्हें मंदिर में प्रवेश दिला दिया गया था । हाल ही में
मंदिर को 1.78 करोड़ दान देने वाली स्विस ईसाई महिला एलिजाबिथ जिगलर को मंदिर में
प्रवेश नहीं करने दिया गया । पंजाब के महान सिख सम्राट महाराजा रंजीत सिंह ने
अमृतसर के हरिमंदिर साहिब से भी अधिक सोना इस मंदिर को दान किया था । उन्होंने
अपने अंतिम दिनों में यह वसीयत भी की थी कि संसार का सबसे मूल्यवान कोहेनूर हीरा
जगन्नाथ मंदिर को दान कर दिया जाए । लेकिन यह हो नहीं सका क्योंकि अंग्रेजों ने
पंजाब पर अधिकार करके उनकी संपत्ति जब्त कर ली थी वर्ना कोहेनूर हीरा भगवान
जगन्नाथ के मुकुट का ताज होता।
रथयात्रा के दौरान भक्तों को सीधे प्रतिमाओं तक पहुंचने का बहुत ही सुनहरा
अवसर मिलता है ।
मध्यकाल से ही यह
उत्सव अतीव
हर्षोल्लास से मनाया जाता है । 18 जुलाई, 2016 से शुरु रथयात्रा अधिक विशिष्ट
थी, क्योंकि
इसबार यात्रा से पहले भगवान जगन्नाथ का पच्चीसवां नवकलेवर महोत्सव भी संपन्न हुआ था, जिसमें भगवान
जगन्नाथ के काष्ठ
विग्रहों (लकड़ी की मूर्तियों) को 19 साल बाद परिवर्तित किया गया था । यह इस बात
का सूचक है कि भगवान भी बदलाव से बचे नहीं
हैं। जब उन्हें भी बदलाव प्रिय
है, तो क्यों न हम भी अपने जीवन में आने वाले परिवर्तन को स्वीकारें। श्रीक्षेत्र
धाम पुरी की रथयात्रा सदियों से समूचे विश्व के आकर्षण का केंद्र रही है। आज भले
ही विश्व के कोने कोने में रथयात्रा का आयोजन हो रहा है मगर श्रीक्षेत्र धाम पुरी
में आकर रथयात्रा देखने का लोभ भक्तजन संभाल नहीं पाते। जाति, धर्म, संप्रदाय से मुक्त
लाखों भक्तों का जमावड़ा पुरी में होता है। पतितपावन के नाम से प्रसिद्ध जगन्नाथ
भी भक्तों को निराश नहीं करते हैं और रत्न सिंहासन से स्वयं उतरकर जनता जनार्दन के
बीच पहुंच जाते हैं। आषाढ़ शुकल पक्ष(इस बार 25 जून, 2017) से आरंभ होकर द्वादिशी
तिथि को निलाद्री विजय तक चलने वाला यह पर्व केवल ओड़िशा ही नहीं बल्कि देश विदेश
में भी श्रदालुओं के आकर्षण का केंद्र है।
शास्त्रों में वर्णन आता है कि भगवान कृष्ण ने आषाढ़ अधिमास के
दौरान बहेलिये का बाण लगने से
देह त्यागा था । उनके सखा अर्जुन ने उनकी अंत्येष्टि
की, लेकिन श्रीकृष्ण पूरी तरह भस्मीभूत नहीं हुए । उनके अधजले नाभिमंडल को अर्जुन ने चंदन की लकड़ी के साथ
ही सागर में प्रवाहित कर दिया । यह नाभिमंडल तैरते-तैरते
पश्चिमी तट से पूर्वी तट पर आ लगा । यहां के राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्नादेश
हुआ कि इस पवित्र दारु-काष्ठ
(लकड़ी) से विष्णु मूर्ति
बनवाकर उसकी निष्ठापूर्वक पूजा-अर्चना करें । राजा के सामने ब्रह्माजी बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रुप में आए और
उन्होंने राजा के सामने शर्त रख दी कि एक
निर्धारित अवधि में वे मूर्ति तैयार कर देंगे और तब तक कमरे में बंद रहेंगे जब तक मूर्ति तैयार नहीं हो
जातीं । राजा या उसका
कोई भी आदमी कमरे के
अंदर नहीं आएगा
। कुछ समय उपरांत
कमरे में हलचल
बंद हो गई, इसलिए
उत्सुकतावश भीतर
झांक लिया गया और मूर्तियां अपूर्ण
ही रह गईं । उनके हाथ
नहीं बने थे । किवदंती है कि महाराजा
इंद्रद्युम्न द्वारा
निर्मित यही विग्रह तब से भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र एवं बहन सुभद्रा के रुप में पूजा जाता है ।
देश के अन्य
मंदिरों में स्थापित पाषाण विग्रहों के विपरीत भगवान जगन्नाथ आम मानव के शरीर की भांति ही पुराना शरीर त्यागकर नया शरीर धारण करते हैं। यह प्रक्रिया नवकलेवर महोत्सव
के नाम से जानी जाती है। संयोग से गत वर्ष भगवान जगन्नाथ
का पच्चीसवां नवकलेवर महोत्सव संपन्न हुआ। मादलापांजी नाम से ख्यात श्रीमंदिर की दैनंदिनी
लिपिबद्ध की जाने वाली पोथी के
अनुसार, इससे पहले नवकलेवर महोत्सव 1996 में हुआ था । कहा जाता
है कि जगन्नाथ जी की दिव्य लीलाओं में नवकलेवर भी एक
मानवधर्मी लीला
है। महाभारत युद्ध
में अपने परिजन और
कुटुंबीजनों के वध से विचलित अर्जुन को
श्रीकृष्ण ने यह कहते हुए समझाया था कि आत्मा नित्य है, शरीर अनित्य है । जैसे वस्त्र पुराना होने पर लोग उसे त्यागकर नया वस्त्र धारण
कर लेते हैं, वैसे ही
जीवात्मा जीर्ण शरीर त्यागकर नूतन शरीर में प्रवेश करती है । भगवान
जगन्नाथ का नवकलेवर महोत्सव भी गीता के इस संदेश की ही पुष्टि करता दिखाई देता है
। यह नवकलेवर महोत्सव आसान
नहीं होता । इसे
एक लंबे विधि-विधान से गुजरना पड़ता है । अब यह विग्रह नीम के पेड़ से बनाया जाता है । विग्रह के लिए वृक्ष का चयन करने के लिए कड़े नियम हैं । जैसे वृक्ष पुराना
मोटे तने वाला होना
चाहिए । किसी नदी, श्मशान
या आश्रम के पास
होना चाहिए । वृक्ष में शंख, चक्र, गदा, पदम जैसे विष्णु के प्रतीक चिह्न होने चाहिए । वृक्ष के नीचे चींटीयों की बांबी एवं सर्प
का निवास होना
चाहिए । वृक्ष पर कोई लता या पक्षियों का घोंसला नहीं होना चाहिए। वृक्ष पर कोई मनुष्य कभी चढ़ा नहीं होना
चाहिए । वृक्ष के तने में 10 -12 फुट तक कोई शाखा प्रशाखा नहीं होनी चाहिए।
श्रुत संहिता में उल्लेख है कि चूंकि श्रीकृष्ण सांवले थे । इसलिए उनके यानि जगन्नाथ जी के
विग्रह के लिए
काले तने वाले दारु वृक्ष
का, जबकि उनके भाई बलभद्र (बलराम) के विग्रह के
लिए श्वेतवर्ण, बहन सुभद्रा के विग्रह के लिए पीतवर्ण एवं उनके आयुध सुदर्शन के लिए धवल दारु
वृक्ष होना
चाहिए । जिस वर्ष नवकलेवर होता है उस वर्ष चैत्र शुक्ल दशमी से श्रीजगन्नाथ के वंशधर रुप में
प्रचलित दईतापति(पुजारी) अपने सहायकों
के साथ दारु वृक्ष की खोज
में निकल पड़ते हैं । यह दल
पैदल चलकर काकटपुर
पहुंचकर देवली मठ
में टिकता है । अगली सुबह यह दल प्राची नदी में स्नान कर पुरी से लाई भोग सामग्री मंगला मंदिर के
पूजकों को प्रदान करता है । यहां दइतापति गण गुहारिया बनते हैं । गुहार के दूसरे दिन दईतापतिगण विग्रहों के लिए
दारु वृक्ष(नीम) की खोज में निकलते हैं।
पहले आयुध सुदर्शन, सुभद्रा, बलभद्र के लिए और सबसे अंत में भगवान जगन्नाथ
के लिए उपयुक्त वृक्ष खोजे जाते हैं । वृक्षों के चयन के बाद वृक्षों के तनों को
काटकर एक विशेष ऱथ से मंदिर तक लाया जाता है । ये तने श्रीमंदिर के उत्तर द्वार के
पास कोइली बैकुंठ में रखे जाते हैं, जहां 11 दिन तक यज्ञोत्सव होता है । कृष्ण
चतुर्दशी को पूर्णाहुति तक निर्माण कार्य का समापन होता है । रथयात्रा से तीन दिन
पहले पुराने की जगह नए विग्रह स्थापित करते हैं । मूर्तियों को चित्रित करने के
बाद उनकी पलकें खोली जाती हैं, जिसे नेत्रोत्सव कहा जाता है । फिर एक विशेष मुहूर्त
में विनिर्दिष्ट विधि-विधान के साथ नए विग्रहों को रत्नसिंहासन पर विराजमान कर
दिया जाता है और पुरातन विग्रहों को कोइली बैकुंठ स्थित सेवली लता के नीचे समाधि
दे दी जाती है। इस प्रकार भगवान का यह नवकलेवर हमें अपने जीवन में नूतन परिवर्तन अपनाने को
प्रेरित करता है ।