जब से समाज में व्यवस्था स्थापित है तभी
से ही शासकों की ओर से शासन चलाने के लिए प्रजा से कर वसूला जाता रहा है। भारत में भी
कर वसूलने का इतिहास बहुत पुराना है। मनु काल हो या महाभारत काल या कालिदास या कोटिल्य के अर्थशास्त्र का प्रसंग लें कर
व्यवस्था का संदर्भ आता ही है। कालिदास राजा दिलीप का संदर्भ देते हुए कहते हैं कि
उसने अपनी प्रजा की भलाई के लिए कर वसूला वैसे ही जैसे सूर्य हजार गुना लौटाने के
लिए धरती से नमी सोखता है।"- Bhishma’s counsel to Yudhishthira. (Mahabharata, Book 12:
Santi Parva: Rajadharmanusasana Parva) राजा को अपनी प्रजा से उचित समय पर धन लेना चाहिए। जैसे एक बुद्धिमान
व्यक्ति रोजाना अपनी गाय का दूध दोहता है, राजा को अपने राज्य को प्रतिदिन दोहना
चाहिए। जैसे मधुमक्खी, पौधों को हानि पहुंचाए बिना धीरे-धीरे फूलों से मधु एकत्र करती है; राजा को अपने राज्य के स्रोतों से भंडारण के लिए
धन इकट्ठा करना चाहिए। कोटिल्य अर्थशास्त्र में कर प्रणाली का विस्तार से वर्णन है। कर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके से
वसूले जाते हैं। भारत में प्रजा से कर वसूलने की वर्तमान प्रणाली अंग्रेजों की देन
है। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद नुकसान की भरपाई के लिए
1860 ई. में भारतीय रजवाड़ों तथा भारतीय अंग्रेजों पर आयकर लगाया गया था। ब्रिटिश
भारत के प्रथम वित्तीय सदस्य सर जेम्स विल्सन इसके जन्मदाता थे। गवर्नर
जनरल की स्वीकृति उपरांत यह 24 जुलाई, 1860 को अस्तित्व में आया। यह अंग्रेजों और
अमीर रजवाड़ों से ही वसूला जाता था। 1865 ई. में यह बीती बात हो गया तथा 1867 ई. में लाईसैंस कर और आयकर को जोड़कर इसे पुन: लागू किया गया
और वसूली भू-राजस्व की तर्ज पर ही होती थी। समय समय पर इसमें बदलाव किए जाते रहे तथा
एंग्लो-रुस युद्ध के लिए अधिक राजस्व की जरुरत थी इसलिए इसका दायरा व्यापक करते
हुए 1886 ई. में अलग आयकर अधिनियम
अस्तित्व में आया जो विभिन्न संशोधनो के साथ आयकर अधिनियम, 1918 आने तक अस्तित्व
में रहा। पहले विश्वयुद्ध के बाद धन की तंगी को
देखते हुये 1916 ई. में
पहली बार कर की अलग-अलग दरें तय की गई। वर्ष
1917 में युद्धप्रयासों के चलते ‘सुपरटैक्स’ लगाया गया। आयकर अधिनियम 1922 ने 1918 का स्थान ले लिया। तब
तक का यह सबसे व्यापक आयकर अधिनियम 1961-62 के निर्धारण वर्ष तक लागू रहा। आयकर
अधिनियम 1922 की विभिन्न पेचीदकिओं को देखते हुए भारत सरकार ने आयकर अधिनियम, 1922
को आसान बनाने तथा कर अपवंचन के उपायों हेतु इसे विधि आयोग को भेजा। विधि आयोग ने
अपनी रिपोर्ट 1958 में प्रस्तुत की किंतु इसी बीच 1956 में भारत सरकार की ओर से
नियुक्त प्रत्यक्ष कर प्रशासन सुधार समिति
की ओर से 1956 में रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी गई। आखिरकार विधि मंत्रालय के परामर्श
पर आयकर अधिनियम 1961 पारित कर दिया गया जो 1 अप्रैल, 1962 से प्रभावी है। आयकर
अधिनियम जम्मू-कश्मीर सहित संपूर्ण भारतवर्ष में लागू है। 1919 से चेम्सफोर्ड के
सुधारों उपरांत राज्यों और केंद्र सरकार के आय स्रोत बंटकर अलग अलग हो गए तब से
आयकर केंद्र सरकार की आय का सीधा स्रोत है। स्वतंत्रता उपरांत प्रोफैसर निकोलस
कोलदर के सुझावों पर धनकर अधिनियम, 1957 एवं उपहार कर अधिनियम, 1958 अस्तित्व में
आ गए। केंद्रीय राजस्व बोर्ड अधिनियम, 1963 ने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों के
प्रशासन के लिए सीबीडीटी एवं सीबीईसी के रुप में दो बोर्ड अस्तित्व में ला दिए। कर
देना देश के सभी नागरिकों का दायित्व है क्योंकि सरकार के पास अगर राजस्व नहीं
होगा तो शासन व्यवस्था चलेगी कैसे। किंतु कर व्यवस्था में बहुत सी खामियां हैं
जिससे एक ओर तो वेतनभोगी वर्ग और उससे भी अधिक सार्वजनिक क्षेत्र का वेतनभोगी वर्ग
अधिक प्रभावित है। व्यवसायी वर्ग की समस्याएं अन्य प्रकार की हैं। इसके लागू होने
के अवसर पर तब आयकर अगर किसी कार्यालय प्रमुख से वसूला जाता होगा तो आज स्थिति यह
है कि कार्यालय के चपरासी, चौकीदार और ड्राइवर भी कर देते हैं चाहे उनके बच्चे
भूखे ही क्यों न मर रहे हों। अब सरकार की नजर में उबेर और ओला जैसी टैक्सिओं के
ड्राइवर भी हैं जिनका घर तो चलता नहीं मगर उनकी आय अमीरों की श्रेणी में आती है।
इस संबंध मैं किसी एक समय के अपने बहुत ही ईमानदार कमिश्नर की उदाहरण अवश्य देना
चाहुंगा। उन्हें उस समय के अनुसार बहुत भारी कर लग रहा था। हम सभी तो नए थे कर लगता
नहीं था। कार्यालय के अनेक कर्मचारी बुद्धीजीवी बनकर उनके पास पहुंचे और सुझाव
दिया कि अनेक बचत योजनाएं हैं जिनसे आप कर बचा सकते हैं(जैसे उनको इन योजनाओं
प्रति ज्ञान ही नहीं हो)। उन्होंने तुरंत जवाब दिया कि अगर मैं कर नहीं दूँगा तो
यह रेलगाड़ियां कैसे चलेंगी, सड़कें कैसे बनेंगी तथा जनता तक बिजली पानी जैसी
सुविधाएं कैसे पहुंचेगीं। उन्होंने तुरंत अपने जीपीएफ से अग्रिम निकाला और आयकर भर
दिया। सभी उन्हें मूर्ख की संज्ञा देते हुए बैठ गए किंतु जब मैं आयकर अदायगी समय
अपने जीपीएफ से अग्रिम निकालता हुँ तो मूर्खता वाला किस्सा याद अवश्य आता है। देश
में तो हालत यह है कि कुछ राज्यों में वेतनभोगी व्यवसाय कर के नाम पर दोहरी कर
व्यवस्था में आ जाते हैं तथा कुछ अशांत क्षेत्रों में तिहरी कर व्यवस्था का शिकार
हो जाते हैं। कुछ मामलों में वर्तमान कर व्यवस्था के जन्मदाताओं की अपने देशों में
सरकारें चली गईं। माँ देश इंग्लैंड और बहन देश अमेरीका में करों के झगड़ें में 13
वर्षों तक ग्रृहयुद्ध चला नतीजा अमेरीका इंग्लैंड की कॉलोनी नहीं रही। अंगेजों के समय में
सरकार की आमदन का मुख्य स्रोत आयकर और भू-राजस्व ही था। उत्पाद शुल्क, सीमाशुल्क
और बिक्रीकर तो 1931 तक मूलत: नमक और तंबाकू तक ही सीमित रहते ऊँठ के मूँह में जीरा मात्र थे। इसके
बाद इस्पात, सीमेंट तथा कुछ अन्य वस्तुएं इनके दायरे में आईं। सीमित कर वसूली से
स्थापित यातायात व्यवस्था देना कोई छोटी बात नहीं है। भारत सरकार के सेवानिवृत्त
कर्मचारिय़ों को मिलने वाली पेंशन की दर भी अधिक थी। किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य
में करों का दायरा बहुत ही व्यापक है। विश्व के दूसरे देश जिनके साथ भारत की तुलना
की जाती है के मुकाबले आयकर बहुत ही अधिक है। 1975 में जब मैं ग्यारवीं कक्षा का
विद्यार्थी था तो तब के मेरे अर्थशास्त्र के अध्यापक की एक उदाहरण आज भी मेरे
दिमाग में ताजा है। उनका कहना था कि अगर कोई दिन-रात मेहनत करके एक लाख रुपए कमाता
है तो चाहे सरकार हो या कोई और उससे आकर यह कहे कि इसमें से 70 हजार मुझे दे दो तो
उस व्यक्ति की पहली प्रतिक्रिया यह होगी कि
वह 70 हजार माँगने वाले के थप्पड़ रसीद कर देगा। एक समय यह भी था नगर में प्रवेश
करने वाली वस्तुओं पर चुंगीकर लगता था। मगर जब वो वस्तू आपकी हो गई फिर कोई कर
नहीं। अब बाईक से लेकर बस-ट्रक सभी को टोल नाकों से गुजरते समय सुबह-शाम या यह
कहें कि किसी भी समय पथकर लग सकता है। पथकर आने से पूर्व गाड़ियों पर केवल रोड़ कर
लगता था। व्यापक उत्पाद शुल्क, बिक्रीकर, सीमाशुल्क, आयकर, सेवाकर, व्यवसायकर, मनोरंजन
कर और आने वाले समय में जीएसटी के नाम से न मालूम भारतीय नागरिकों को कितने कर
देने पड़ रहे हैं। मगर हालत देखिए कि 2004 व उसके बाद भर्ती कर्मचारिओं को पेंशन
तक देने के लिए सरकारों के पास संसाधन नहीं है। ऐसे कर जिनको आमतौर पर युद्धों की
क्षतिपूर्ति के नाम पर लगाया जाता रहा मगर वर्तमान कल्याणकारी सरकारों के दौर में
जनता से वसूले करों के दम पर प्रशासकों के पास अपनी ऐशोआराम के लिए तो संसाधन हैं
मगर न तो जनता को मूलभूत सुविधाएं ढंग से उपलब्ध तथा न ही करदाताओं को कोई अलग से
पहचान दी जा रही है। क्योंकि प्रत्यक्षकर आयकर श्रेणी में अधिकतर संख्या वेतनभोगी
वर्ग की है(10 लाख से ऊपर आय दर्शाने वालों का आँकड़ा 35 लाख से ऊपर नहीं है और
देश में एक लाख से अधिक प्रति माह वेतन पाने वाले कितने कर्मचारी हैं) इसलिए ग्रुप
ग कर्मचारियों को आयकर दाताओं की सूची में रखना उनके पारिवारिक सदस्यों से अन्याय
है। ग्रुप बी और ए की भी श्रेणिया बनाकर व्यवसाय कर की तर्ज पर एकमुश्त कर वसूला
जाए। इसी तरह व्यवसायी वर्ग को भी चोर न समझा जाए। जो कर देता है वो बतौर आम आदमी मूलभूत
सुविधाओं का हकदार है। अनेक व्यवसायी ऐसे भी मिलेंगी जो अपने जीवनकाल में सरकार को
भारी भरकम कर दे चुके होते हैं। मगर उनके बुरे वक्त में सरकारी एजेंसियां उनकी मदद
करने की बजाए उनके बचे खुचे संसाधन भी कुर्क कर लेती हैं और उन्हें व उनके परिवार
को भगवान भरोसे मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। स्थापित अभिनेता-अभिनेत्रियां चाहे
वे अमिताभ वच्चन-जया भादुड़ी हों या राजकिरण उदाहरण सामने है। जब उनके पास एक फूटी
कौड़ी तक नहीं थी तो स्वयं उन्होंने अपनी मेहनत से अपने आप को संभाला। सरकार सामने
नहीं आई। अब जब उनके दिन अच्छे हैं तो मदद माँगने वाले कतार में हैं। इसलिए अनुरोध
है कि सरकारें करों को भारतीयों पर दंड स्वरुप न लादते हुए सरलता से वसूलें और समय
आने पर हकदारों को वाँछित सुविधाएं भी दें।