समाज की उत्पति से लेकर आजतक विश्व एक ही
थ्यूरी पर चल रहा है कि समाज में वर्चस्व किस का होगा। जंगलराज को नकेल डालकर कुछ
व्यवस्थाएं स्थापित हो गईं लेकिन जिनके साथ अन्याय होता था उन्होंने प्रतिरोध जारी
रखा। वर्तमान युग में विश्व की ओर से फेस की जा रही समस्याओं का मुख्य कारण पश्चिम
जगत और उनका अंधानुकरण करने वाले देश हैं। विश्व में
सर्वप्रथम फौजी साम्राज्यवाद ने जगह बनाई। सिकंदर से लेकर अंग्रेजों के हमले भारत
पर हुए और देश सदियों तक विदेशियों का गुलाम रहा। 19वीं सदी आते-आते इंग्लैंड, फ्रांस, रुस, इटली, जर्मन, स्पेन, ऑस्ट्रिया, तुर्की और जापान इत्यादि
देशों में विश्व के अधिक से अधिक भूभाग को कब्जाने की होड़ लग गई। दो विश्व युद्ध
हुए। पश्चिमी संस्कृति का एक ही प्रयास रहा कि सुविधाएं तो उनके हिस्से में जाएं
मगर मुसीबतें केवल एशिया तथा अफरीका तक ही सीमित रहें। जब विश्व युद्ध समाप्ति की
ओर था तो जापान के नागासाकी और हीरोशीमा पर दो परमाणू बंब फेंके गए। हारने वाली
ताकतों का नेतृत्व जर्मन कर रहा था मगर बंब जापान पर फेंके गए क्योंकि जापान एशिया
में था। दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात विश्व की दो महाशक्तियों में शीतयुद्ध प्रारंभ
हो गया जो धीरे-धीरे सांस्कृतिक युद्ध में परिवर्तित हो गया जिसका लक्ष्य था फौजी
युद्ध के स्थान पर अधिक से अधिक देशों की जनता पर अपनी संस्कृति थोपना । एक ओर
अमेरीका के नेतृत्व में पश्चिम जगत तथा दूसरे पक्ष का नेतृत्व यूएसएसएसआर(रुस) की
ओर से किया जा रहा था। मगर पलड़ा हमेशा यूएसए के नेतृत्व में पश्चिम जगत का ही भारी
रहा क्योंकि यूएनओ, नाटो, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन पश्चिम जगत के सहायक
रहे। 20वीं सदी में 80 का दशक समाप्त होते-होते यूएसए के नेतृत्व में पश्चिम जगत
ने यूएसएसएसआर(रुस) के 15 टुकड़े करके लगभग पूरे विश्व पर अपना वर्चस्व कायम कर
लिया था मगर चीन को नहीं संभाल सके। नतीजा विश्व के विनिर्माण जगत पर चीन का कब्जा
और आर्थिक युद्ध का आरंभ। भारत में होली हो या दीवाली, लोहड़ी हो या उतरायण और
वर्तमान में वेंटीलेटर या मास्क वर्चस्व चीनी सामान का ही होता है। बात उस समय की
है जब भारत के प्रधानमंत्री डॉo मनमोहन सिंह थे और वर्तमान प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के
मुख्यमंत्री थे। यूएसए के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जिस दिन से अपनी भारत यात्रा
आरंभ की उसी दिन भारत के सबसे अमीर उद्योगपति मुकेश अंबानी ने चीन को उस समय का
सबसे बड़ा व्यापारिक ऑर्डर(10 मिलियन डॉलर) दिया जबकि भारत में बच्चा-बच्चा जानता
है कि भाजपा एक दक्षिणपंथी पार्टी है और इसका सबूत है उस समय के गुजरात के
मुख्यमंत्री(वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) अमेरीका के राष्ट्रपति का चुनाव
प्रचार करने अमेरीका भी जाते हैं तथा उन्हें अपना प्रचार करने के लिए भारत भी
बुलाते हैं। पश्चिमी संस्कृति को लाभ पहुंचाने के लिए विश्वबैंक का भारत पर लगातार
दबाव है कि वह भारी संख्या में ग्रामीणों को शहरों में बसाये (इसका वर्णन मैं अपने
लेख दो दुनिया-दो भारत में विस्थार से कर चुका हुं)। इरादा यही है कि शहरी धनाढ्य
संपत्ति सहित पश्चिमी रंग में रम जाएं और ग्रामीणों को शहरी मजदूर के रुप में जानवरों
की भांति शहरी कोठरिओं में ठूंस-ठूंस कर भर दिया जाए तथा स्थानीय जनता को रास्ते
से हटाकर आसानी से भारत के संसाधनो का
दोहन किया जा सके। जरा सोचिए भारत के झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़,
राजस्थान, असम, उत्तर प्रदेश और बिहार प्राकृतिक संपदायुक्त राज्य हैं मगर
सर्वाधिक गरीबी एवं मजदूरों का अधिकतम प्रवास इन्हीं क्षेत्रों से ही है। चर्चा यह
भी रही कि अगर भारत-चीन-रुस एक गुट बनाकर संगठित हो जाएं तो अमेरीका की बोलती बंद
होना तय है। एक तथ्य यह भी है कि जब पश्चिम जगत सर्वाधिक शक्तिशाली था तो भारत
उसका मुखर और मुख्य विरोधी था मगर आज जब वही पश्चिमी जगत घुटनों पर है तो भारत इस
अवस्था का लाभ उठाने की बजाए उसे जीवनदान देने के लिए सबसे आगे है । चीन ने
अमेरीका को अकेले ही पछाड़ कर पलड़ा अपनी ओर झुकाने में सफलता पा ली है। भारतीय
नीतिनिर्धारक चीन और अमेरीका के वर्चस्व की जंग में अमेरीका की ओर हैं । चीन को
मुख्य प्रतिद्वंधवी मानने की बजाए वोट राजनीति के कारण कंगाल पाकिस्तान को अपना
प्रतिद्वंधवी प्रचारित किया जा रहा है। अपने संसाधनो को सुदृढ़ करने की बजाए
नोटबंदी, जीसीटी जैसे अयोजित निर्णयों से अपनी इकॉनिमी पर दबाव बना लिया। निजीकरण
के नाम पर देश की संपंत्तियां औने पौने दामों पर देशी और विदेशी कंपंनियों को बेची
जा रही हैं। भारत की रीढ़ की हड्डी बचत रही है मगर भारतीय जनता की जेबों को खाली
करके उन्हें कंगाली के स्तर पर लाने के प्रयास हैं। भारतीय शिक्षा और सुदृढ़
संस्कृति को पीछे छोड़कर भारतीयों में पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करने की होड़ है। मगर
यह भी ध्यान देने की जरुरत है कि अगर पश्चिमी शिक्षातंत्र इतना सुदृढ़ होता तो
उसके प्रमुख विकास तंत्रों पर भारतीयों सहित विदेशियों का कब्जा क्यों होता। अब, जब
चीन विश्व का विनिर्माण क्षेत्र कब्जा चुका है तो पश्चिम जगत की ही तरह भारत को भी
चीन का मुंह ताकना पड़ेगा। एक समय की उदाहरण है जब भारत को अपने ड्रीमलाइनर यात्री
विमान के लिए कलपुर्जों की आवश्यकता थी। ऑर्डर अमरीकी कंपनी को दे दिया गया और उस
कंपनी ने वही ऑर्डर आगे चीनी कंपनी को दे दिया। जब सामान तैयार होकर आया तो मेड इन
चाइना की मोहर लगी थी। सामान भारत को डिलीवर होना था इसलिए मेड इन चाइना का मार्का
हटाने पर झगड़ा हुआ जिसमें जीत चीन की ही हुई। कोरोना वायरस फैलाने के मामले में
भी विश्व स्वास्थ्य संगठन की सहायता से चीन पूरे विश्व को गुमराह करने में सफल हो
गया। अनुमान है कि आधे अमेरीकी डॉलर चीन के कब्जे में हैं। यूएसए में इस वर्ष
चुनाव हैं और ट्रंप इस स्थिति में नहीं कि चीन से पंगा ले सकें। 436 बिलियन डॉलर
के बल पर चीनी कंपनी टेन सेट विश्व की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी है। चीन में 8950
चीनी कंपनियां रोजाना 60000 से 70000 तक मास्क तैयार कर रही हैं। कोरोना वायरस को
भी चीनी जैविक हथियार प्रचारित किया जा रहा है। कोरोना वायरस से लड़ने के लिए
पश्चिमी जगत को भारी संख्या में मास्क और वेंटीलेटर की आवश्यकता है मगर कच्चे माल
पर तो चीन का कब्जा है। लाचार पश्चिम जगत स्थिति सामान्य होने तक अपने-अपने देशों
में लॉकडाउन करने को मजबूर है। भारत के नीति निर्धारक पश्चिम जगत के झांसे में आकर
निजीकरण और वैश्वीकरण के जाल में फंस कर अपनी संपंत्तियां औने-पौने दामों में
बेचकर देश के पाँव पर पहले ही कुल्हाड़ी मार चुके हैं। रही सही कसर इतिहास में
अपना नाम बनाने वाली अलोकतांत्रिक नीतियों ने पूर्ण कर दी है। संसाधन है नहीं और
भूखों मर रही जनता से दान की अपेक्षा की जा रही है। गलत नीतियों का फायदा उठाकर
धनाढ्य धनाढ्यतम हो गए हैं। कटोरा उनकी ओर भी फैलाया गया है मगर वो तो अवसरवादी
हैं दान ऊंट के मूँह में जीरे के समान होगा। इसलिए अपनी कमियों को छुपाने के लिए
भारत के नीतिनिर्धारक जनता को भूखे और बेरोजगार रखकर लॉकडाउन करने को मजबूर हैं।