कार्ल मार्क्स ने 1848 के अपने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में कहा था कि साम्यवादी क्रांति का लक्ष्य उत्पादन के साधनों पर विश्व के मजदूरों का आधिपत्य स्थापित करके पूंजीवाद की कब्र खोदना है। एक नई समतामूलक संस्कृति को जन्म देना, समाज को वर्गविहीन बनाना और विश्व विजय करना था। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, वर्ग संघर्ष और अतिरिक्तमूल्य के सिद्धांत प्रतिपादित किए और हिंसक क्रांति का समर्थन किया। मार्क्स के जीते जी तो कुछ नहीं हुआ मगर उसके जाने के 30-35 साल बाद रोजा लंग्जमबर्ग, लियोन वॉल्सकी और लेनिन जैसे नेताओं ने उनके विचारों को आगे बढ़ाया व रुस में क्रांति कर दी। रुसी क्रांति पिछले सौ साल की सबसे बढ़ी घटना है। पूरा विश्व प्रथम विश्वयुद्ध में उलझा हुआ था। रुस की जारशाही, ऑस्ट्रो-हंगेरियन, जर्मन, तुर्क और ब्रिटिश साम्राज्य अंदर से हिल रहे थे। ऐसे में व्लादिमीर येलिच लेनिन के नेतृत्व में जो खूनी क्रांति हुई वह वैसी नहीं थी जैसे फौजी तख्ता पलट हमारे पड़ोसी देशों में होते रहते हैं। यह क्रांति 1789 की फ्रांसीसी क्रांति से भी अलग थी। रुसी क्रांति का विश्वव्यापी असर हुआ। पूर्वी यूरोप के अनेक देश जैसे यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, पूर्वी जर्मनी आदि साम्यवादी हो गए। पश्चिम में क्यूबा तथा पूर्व तक चीन लाल हो गए। भारत, फ्रांस, इंडोनेशिया, ब्रिटेन, वियतनाम, अफगानिस्तान और ईराक जैसे देशों पर लाल नहीं तो समाजवादी रंग तो चढ़ ही गया। पूंजीवाद के विरुद्ध जंग पूरे विश्व में चमकने लगी। साम्यवाद के नाम पर खून की नदियां बहीं। करोड़ों लोग मारे गए। 50 साल तक विश्व शीतयुद्ध में सिहरता रहा। लेकिन साम्यवादी क्रांति के इस शताब्दी वर्ष में यह सोचने पर विवश होना पड़ रहा है कि 70-80 साल में ही यह क्रांति दिवंगत क्यों हो गई। चीन की दुकान पर बोर्ड तो साम्यवाद का लगा है मगर माल अब वहां पूंजीवाद का बिकता है। मार्क्स एवं लेनिन की क्रांति कुछ ही देशों तक सिमटकर विश्व धर्म नहीं बन पाई। रुसी क्रांति के विश्व धर्म नहीं बन पाने के निम्न कारन हो सकते हैं। प्रथमत: यह क्रांति मानव स्वभाव के विपरीत थी। हिंसात्मक क्रांति के बाद भी आम जनता पर तानाशाही थोपे रखना अव्यावहारिक सिद्ध हुआ। लाखों करोड़ों लोग केवल मजबूरी में सिर झुकाते रहे और मन से उन्होंने कभी साम्यवाद को स्वीकर नहीं किया। मामला केवल यहीं तक रहता तो ठीक था मगर साम्यवादियों ने राज्य को समाप्त करने के स्थान पर राज्य को ही महादैत्य में परिवर्तित कर दिया जिसने सोवियत साम्राज्य को ही कच्चा चबा लिया। दूसरा कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वेसर्वा बन जाना। पार्टी के अधिकारी धन्ना सेठ व अहंकारी बन गए। जनता की सुख-सुविधाओं की उन्हें कोई परवाह नहीं थी।
लेख कों, पत्रकारों, इतिहासकारों, कलाकारों और विद्वानों को पार्टी नेताओं की तारीफ के कसीदे काढने होते थे। उनके भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश नहीं होता था। संसद व विधानसभाएं रबर स्टैंप व विपक्ष शून्य। इसलिए जब सोवियत व्यवस्था के विरुद्ध बगावत हुई तो लोगों ने राहत की सांस ली। कम्युनिस्ट पार्टी के कमजोर होते ही यूएसएसआर भी टुकड़े-टुकड़े हो गया। तीसरा सामान्य वर्ग की स्थिति पूंजीवादी सामान्य वर्ग के मुकाबले बहुत कम सुधरी। मार्क्स की सर्वहारा नीति अपनी जड़े जमा ही नहीं सकी। चौथा है विश्व की खेमेबाजी। एक गुट नॉटो-गुट बन गया तथा दूसरा वारसा-समूह। यूएसएसआर (रुस) ने शीतयुद्ध के दौरान अपनी बहुत सी शक्ति खो दी। चीन ने अपनी अलग राह पकड़ ली। यूगोस्वालिया व चेकोस्लाविया जैसे देशों में बगावत हो गई और रुस को छोड़ वारसा-समूह के लगभग सभी देश नॉटो-गुट में शामिल हो गए। गुटनिर्पेक्ष देशों ने भी अपनी अलग राह पकड़ ली। साम्यवादी सपना लुटपिट कर रह गया। व्लादिमीर पुतिन का भी साम्यवाद से मोहभंग हो चुका है और वे साम्यवाद का रास्ता छोड़कर अपना अलग दल आल रशियन क्रांति फ्रंट बनाकर रुस को पुन: शक्तिशाली बनाने के लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। इसीलिए वे 7.11.2017 को बोल्शेविक क्रांति के सौ साल पूरे होने वाले आयोजनो से दूर रहे तथा इस आयोजन का दूरदर्शन पर प्रसारण तक नहीं किया गया।
सबका साथ सबका विकास, भ्रष्टाचार के समूल नाश तथा कालाधन देश में लाकर 15-पंद्रह लाख प्रत्येक भारतीय के खाते में डालने जैसे लोकलुभावन नारों के साथ सत्ता पर काबिज हुए मोदी को जब यह मालूम हुआ कि उनके पैर उखड़ने को हैं तो वे 8 नवंबर, 2016 को रात 8.00 बजे टीवी पर आए व 15.44 लाख की 500-1000 की करेंसी को कागज घोषित कर दिया। 125 करोड़ की आबादी वाले भारतीय अनेक तरीकों से अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। इनमें से अनेक
यात्रा में थे, कुछ रिश्तेदारों का ईलाज करा रहे था, कुछ अपना आशियाना तैयार करने में व्यस्त थे तथा अनेकों के घरों में शादियों की तैयारियां चल रही थीं । यात्रियों को बच्चों के लिए खाना व दूध मिलना दूभर हो गया। बीमार बिस्तरों पर दम तोड़ने लगे व रिश्तेदार पैसों की व्यवस्था करने हेतु झूझते दिखे। अनेकों आशियाने तैयार कराने वालों के सपने चकनाचूर हो गए और शादी के खर्च की व्यवस्था न कर पाने वाले अनेक भारतीयों ने आत्महत्याएं करलीं। पूरा का पूरा देश बैंकों तथा एटीएम के सामने लाईन लगाकर खड़ा हो गया। अपनी सेवाएं देते देते बहुत से बैंक कर्मी अपनी जान से हाथ धो बैठे। लुधियाना के एक
व्यापार ी ने एक बैंक कर्मी की इसीलिए हत्या करवादी क्योंकि वह उस व्यापारी का 13 लाख रुपया बदली करवाने में असफल रहा था। 100-150 के बीच भारतीय नागरिक अपनीजान से हाथ धो बैठे मगर मोदीजी के तुगलकी फरमानो के बावजूद भी पूरी की पूरी करंसी बैंकों में जमा हो चुकी है। हैरानी की बात तो यह है कि पूरा का पूरा पैसा वापस आ जाने के बाद भी 500-1000 की पुरानी करंसी पकड़ी जा रही है और कुछ नागरिक जिनके पास पुरानी करंसी मौजूद है बदलवाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं। 8000 करोड़ नई करंसी छापने पर खर्च करने तथा लगभग 20000 करोड़ का अप्रत्यक्ष व्यय करने के बावजूद भी सरकार तीन मुख्य विषयों अर्थात कालेधन की वसूली, भ्रष्टाचार पर लगाम तथा आतंकवाद के खातमे जैसे विषयों पर केवल गोल पोस्ट ही बदलने को मजबूर है। मतलब साफ है कि खाया पीया कुछ नहीं गिलास तोड़ा बारह आना। अब सरकार के पूरे के पूरे संसाधन यह साबित करने पर खर्च हो रहे हैं कि नोटबंदी भारत को कैशलेस बनाने के लिए लागू की गई है। नोटबंदी के दौरान तो मजबूरी में लोग अधिक दाम देकर भी प्लास्टिक करंसी का इस्तेमाल करते थे। बिचौलियों ने जनता की मजबूरी का खूब फायदा उठाया। मगर जैसे ही बाजार में नकदी उपलब्ध हुई अवांछित स्वाइप मशीनें अव्यावहारिक हो गई हैं। आम नागरिक तो महंगाई की मार से पिस रहा है। बैंक अलग से नए नए तरीके से वसूली कर रहे हैं और कैशलेस के नाम पर या तो चंद भारतीय व्यापारियों की चांदी हो रही है या विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपंनिया बहती गंगा में हाथ धो रही हैं। इस संगठित लूट व कानूनी डाके के बारे में सबकुछ जाँचने-परखने के बावजूद भी सरकार अपनी गलती मानने को तैयार नहीं व तानाशाही और अहंकारी रवैये के माध्यम से बीजेपी के विश्व की सबसे बढ़ी पार्टी का दम भरने के नशे में चूर है। संसद व विधानसभायों को रबर स्टैंप मात्र मानकर सभी घोषनाएं या तो विदेशी धरती से होती हैं या वैधानिक संस्थाओं के बाहर। विरोधियों को देशद्रोही घोषित किया जा रहा है और लेखकों, पत्रकारों, इतिहासकारों, कलाकारों और विद्वानों को अपनी तारीफों के कसीदे काढने को विवश किया जा रहा है।
7 नवंबर, 2017 को सौ साल पूरा करने वाली रुसी क्रांति जिस प्रयोजन हेतु हुई थी वह अर्थहीन हो चुका है। 7 नवंबर, 2017 को एक साल पूरा कर चुकी नोटबंदी का मकसद जनता को समझाने में मोदीजी आजतक असफल हैं। मगर यह दोनो ही घटनाएं इतिहास में अपना स्थान बना चुकी हैं, सदा ही विद्यमान रहेंगी और इनके दुष्परिणामों की याद दिलाती रहेंगी।