किसी भी राष्ट्र की एकता के लिए किसी एक सर्वमान्य भाषा का होना जरुरी है और भारत में यह भाषा हिंदी ही हो सकती है। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति रह चुके सुकर्णो ने अपनी आत्मकथा में भारत को हिंदी को अपनी राजभाषा अपनाने में आनाकानी पर व्यंग कसा था। वह अपनी आत्मकथा में अपने देश का उदाहरण देते हुए कहते हैं - इंडोनेशिया में 10000 से अधिक टापू हैं और हमारे प्रत्येक टापू का नागरिक आज इंडोनेशिया की नई भाषा बहासा बोलता है। जबकि भारत इतना विशाल देश होते हुए भी आज तक अपनी राजभाषा को नहीं अपना सका। राष्ट्पति सुकर्णो द्वारा किया गया व्यंग भारत के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अब एक वरदान ही सिद्ध हो रहा है और भारत के नागरिक और शासक वर्ग के लोग इसके बाद अपनी राजभाषा के प्रति और भी अधिक जागरुक हो गए हैं। अब वह दिन दूर नहीं जब भारत में भी अपनी राजभाषा को इंडोनेशिया जैसा स्थान मिल सकेगा। उस समय में भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरागांधी ने भी इस चुनौती को स्वीकारा था और वर्तमान सरकार भी राजभाषा हिंदी को लागू करने में अतिरिक्त प्रयास कर रही है। इसका परिणाम यह हुआ कि आज दक्षिण भारत के भारतीय नागरिक भी हिंदी को स्वेच्छा से स्वीकारने लगे हैं। पहले तो हिंदी को उत्तर भारत की ही भाषा समझा जाता था परंतु अब पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के लोग कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। हिंदी को राजभाषा अपनाना और इसके रास्ते में आने वाली कठिनाईयां चोली-दामन की भांति साथ-साथ चलती रही हैं। भारत के संविधान में भाषा के विवाद को हल करने के लिए बहुत सी व्यवस्थाएं की गई हैं। भारतीय संविधान में भारत राज्यों के संघ के नाम से संबोधित है। इसलिए संविधान के अनुच्छेद 343, 344, 348 और 351 में हिंदी को राजभाषा की मान्यता देकर लागू करने और उसमें उत्पन्न कठिनाईयों को हल करने के लिए व्यवस्थाएं की गई हैं। भारत की स्वतंत्रता के बाद संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति के सामने जो सबसे बड़ी कठिनाई उत्पन्न हुई वह एक सर्वमान्य भाषा की ही थी। अपनी अथक कोशिशों के बाद संवैधानिक समिति ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया। 1950 में संविधान लागू होने के समय आठवीं अनुसूचि में 15 राष्ट्रभाषाएं शामिल की गईं जिनकी संख्या आज की तिथि में बढ़कर 22 हो चुकी है और साथ में यह व्यवस्था भी कर दी गई कि संविधान लागू होने के बाद आगामी पांच वर्षों तक राष्ट्रपति एक भाषा आयोग का गठन करेंगे और 15 वर्ष तक अंग्रेजी के प्रयोग की भी छूट दे दी गई। 1955 में श्री बी.जी.खेर की अध्यक्षता में गठित राजभाषा आयोग ने भी हिंदी के अधिक से अधिक प्रयोग का समर्थन किया । आयोग ने अपनी उपलब्धियों में अंग्रेजी के प्रयोग को नकारा और केंद्र सरकार के कामकाज में हिंदी को बढ़ावा देने पर बल दिया। परंतु संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद भी हिंदी को पूरी तरह लागू न किया जा सका और संसद में अप्रैल 1963 में राजभाषा से संबंधित एक बिल पेश किया गया जिसमें यह व्यवस्था थी कि भारतीय संघ में 25 जनवरी, 1965 के बाद भी हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी में काम होता रहेगा। संसद के अंदर और बाहर भी हिंदी भाषा का विवाद इतना जटिल है, जिसका हल ढूंढना बहुत आसान काम नहीं है। केंद्रीय सरकार की ओर से अतिरिक्त प्रयास करने के बावजूद भी केंद्र सरकार के कार्यालयों में अभी भी अधिकतर काम अंग्रेजी में किया जाता है, बहुत सी राज्य सरकारें अपना काम क्षेत्रीय भाषाओं में करती हैं और कुछ तो केंद्र सरकार पर भी दबाव बना रही हैं कि केंद्र सरकार का कामकाज भी उनकी क्षेत्रीय भाषा में हो। भारत सरकार के बैनर तले आज तक विश्व स्तर के अनेक विश्व हिंदी सम्मेलन हो चुके हैं। कंप्यूटर पर हिंदी में काम करने के लिए सॉफ्टवेयर का आविष्कार भी एक उपलब्धि है। भारत के कुछ साहित्यकारों और
राजनीति ज्ञों ने भी हिंदी को बढ़ावा देने के लिए कुछ परंपराएं स्थापित की हैं। जैसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सन् 1918 में अंग्रेज वॉयसराय से इसी शर्त पर मिलना स्वीकारा था कि वे उनसे हिंदी में ही बात करेंगे। भारत के प्रथम राष्ट्रपति और संवैधानिक समिति के अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने भी अपना पहला भाषण हिंदी में देकर हिंदी को अपना उचित स्थान प्रदान करने की परंपरा स्थापित की । इसी तरह भारत रतन श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने प्रथम बार भारत के विदेश मंत्री रहते तथा दूसरी बार बतौर प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना भाषण हिंदी में देकर यह साबित कर दिया कि भारत की राजभाषा हिंदी ही है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री पी.वी.नरसिम्हा रॉव भी संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना भाषण हिंदी में दे चुके हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने तो बाकायदा यह घोषणा कर रखी है कि वे विदेशी राजनयिकों से राजभाषा हिंदी में ही बात करेंगे। केंद्र सरकार तथा कुछ उच्च नागरिकों ने अपना योगदान तो प्रदान किया ही है परंतु जब तक भारत का प्रत्येक नागरिक स्वेच्छा से अपनी राजभाषा हिंदी को नहीं अपनाएगा तब तक हिंदी के साथ यह अन्याय होता ही रहेगा। भारत का नागरिक चाहे वह पश्चिम बंगाल से हो या महाराष्ट्र से, पंजाब से हो या तमिलनाडू से उसे हिंदी को समझने में कठिनाई नहीं होती। आवश्यकता तो इस बात की है कि अपने में उत्पन्न भ्रम को दूर किया जाए। सभी भारतीय भाषाओं का प्रगति करना आवश्यक है किंतु संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल करने के लिए अनेक भाषाओं के पक्ष में डाले जा रहे अनुचित दबाव की भरमार भारतीयों के लिए ही हानिकारक है। अनुचित दबाव और देश हित के स्थान पर निजी लाभ को प्राथमिकता देने के क्या-क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, भारत का इतिहास खंगालने पर हम भारतीयों से अधिक और कोई नहीं जान पाएगा। किसी भी राष्ट्र का नागरिक अपनी भाषा से ही पहचाना जाता है।
भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की बड़ी संख्या ने यहां की संस्कृति और पारंपरिक विविधता को बढ़ाया है, 1000(यदि आप प्रादेशिक बोलियों और प्रादेशिक शब्दों को गिनते हैं तो यह संख्या घटकर 216 रह जाती है) भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें 10000 से ज्यादा लोगों के समूह द्वारा बोला जाता है, जबकि कई ऐसी भाषाएं हैं जिन्हें 10000 से कम लोग ही बोलते हैं, भारत में कुल मिलाकर 415 भाषाएं उपयोग में हैं. भारत में भाषा संबंधी दो प्रमुख परिवार हैं- भारती आर्य परिवार और द्रविड़ परिवार । पहला परिवार मुख्यत: भारत के उत्तर, पश्चिम. मध्य और पूर्वी क्षेत्रों में फैला हुआ है, दूसरा भारत के दक्षिणी भाग में। भारत का अगला सबसे बड़ा भाषा परिवार है एस्ट्रो-एशियाई जिसमें शामिल हैं भारत के मध्य और पूर्व में बोली जाने वाली मुंडा भाषाएं, उत्तरपूर्व में बोली जाने वाली खासी भाषाएं, निकोबारी द्वीप में बोली जाने वाली निकोबारी भाषाएँ। भारत का चौथा बड़ा भाषा परिवार है तिब्बती-बर्मन भाषाओं का परिवार जो अपने आप में चीनी-तिब्बती भाषाओं का एक उपसमूह है। कुछ भाषा वि
ज्ञान ी भारत को एक भाषिक क्षेत्र मानते हैं। ऐसा सोचने का आधार यह अद्भुत तथ्य है कि भारोपीय परिवार की कई भाषाएं अपने परिवार की भाषाओं से तो भिन्न हैं पर यहीं की अन्य भाषा-परिवारों की कुछ भाषाओं के निकट हैं। हिंदी, तमिल और मुंडा भाषा की आंतरिक समानता विलक्षण है। यह बात कहीं गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक एकात्मकता को ही द्योतित करती है। इन भाषाओं में ध्वनि, शब्द, वाक्य तथा लिपि इन सब दृष्टियों से समानता दिखती है। भारतीय आर्य भाषा और द्रविड़ परिवार की भाषाओं का वर्णमाला क्रम एक ही तरह का है। ऐसे ही हिंदी की वाक्य रचना में कर्ता-कर्म-क्रिया की व्यवस्था मिलती है जो आर्य, द्रविड़ और मुंडा इन सभी भाषाओं में दृष्टिगोचर होती है। हिंदी का शब्द भंडार मुख्यत: आर्य भाषा का शब्द भंडार है। इनमें तद्भव और देशज दोनो तरह के ही शब्द शामिल हें। हिंदी का शब्दजगत बहुतेरी भाषाओं से समृद्ध है। अरबी मूल असर. किताब, मालूम फारसी चशमा, औरत, कालीन - तुर्की चाकू, दरोगा, चोगा - अंग्रेजी का स्टेशन, रेल, कोट, क्लर्क भारतीय भाषाओं में कश्मीरी, सिंधी और उर्दू को छोड़, जो फारसी लिपि पर आधारित हैं बाकी की प्रचलित नौ लिपियां यह सभी ब्राह्मी लिपि से उद्भूत हैं। हिंदी, मराठी तथा संस्कृत की लिपि देवनागरी है। तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड, गुजराती, पंजाबी और बंगला की लिपियां अलग हैं। अनेक क्षेत्रों और मतावलंबी साधू-संतों ने जैसे नाथ पंथ के गोरखनाथ, महाराष्ट्र के नामदेव, बाहर से आए अमीर खुसरो और रसखान, गुजरात के दयाराम, बंगाल में कुतबन जिन्होंने मृगावती की रचना की ने इसी व्यापकता का वर्णन किया है । ब्रजबुली में राधा-कृष्ण का लीला-वर्णन, आसाम के शंकरदेव, पंजाब के गुरुनानक और दखिनी हिंदी की रचनाओं में भी इसी व्यापकता का वर्णन मिलता है।
भारतीय वर्णमाला को विश्व का अग्रणी ज्ञानकोश- इंसायक्लोपीडिया ब्रिटेनिका – भी वैज्ञानिक कहता है भारतीय लिपियाँ पूरी तरह से ध्वन्यात्मक हैं । इस समय हमारी लिपियों की संसार में कोई पूछ नहीं। यदि सभी भारतीय भाषाएं एक लिपि का प्रयोग करें तो शीघ्र ही इसे चीनी, अरबी लिपियों की तरह अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलेगी। एकता में ही बल है। हिंदी और भारतीय भाषाओं में मानकीकरण आज भी बहुत बड़ी समस्या है। यूनिकोड को अपनाकर भी हम अर्धमानकीकरण तक पहुंचे हैं। लोग अंग्रेजी में कंप्यूटर सीखते हैं और बाद में तुक्केबाजी से हिंदी में थोड़ा बहुत काम निकालते हैं। सरकार चाहे तो की-बोर्ड पर अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी के अक्षर अंकित करने का आदेश देकर इस समस्या का समाधान निकाल सकती है। तकनीक, साइंस, ई-कामर्स, ई-शिक्षा, ई-प्रशासन आदि में हिंदी को बढ़ावा देना होगा। सिवाय सूचना प्रौद्योगिकी के भारतीय सभी क्षेत्रों में पीछे हैं। साफ्टवेयर कंपंनिओं के शेयरों में म्यूचुयल फंड निवेश 31 जनवरी, 2014, 27,772 करोड़ के मुकाबले 31 जनवरी, 2015 को 35463 करोड़ हो गया है। म्यूचुयल फंड प्रबंधकों का साफ्टवेयर शेयरों के प्रति क्रेज बरकरार है। प्रत्येक छात्र प्रोग्रामर ही बनना चाहता है। किंतु सूचना प्रौद्योगिकी का बादशाह कहलाने वाले हम अपनी भाषा में काम करने के सॉफ्टवेयर नहीं बना सके क्योंकि आज हमारे लोग सूचना प्रौद्योगिकी में आगे होने का श्रेय अंग्रेजी को देते हैं। कंप्यूटर प्रोग्रामिक के लिए अंग्रेजी ज्ञान की नहीं केवल रोमन लिपि सीखने की जरुरत है। बाकी का काम बुद्धि का है जो केवल अंग्रेजी सीखने से नहीं होगा। कंप्यूटिंग की भाषा अंकों की भाषा है और उसमें भी कंप्यूटर केवल सिर्फ दो अंकों एक और जीरो को समझता है। कोई भी तकनीक-कोई भी मशीन उपभोक्ता के लिए है, उपभोक्ता तकनीक के लिए नहीं। कोई भी तकनीक तब ही कामयाब हो सकती है जब वह उपभोक्ता के अनुरुप अपने को ढाले। गूगल के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी एरिक श्मिट ने कुछ समय पूर्व यह कह कर हलचल मचा दी थी कि आने वाले पाँच से दस साल के भीतर भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट बाजार बन जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ वर्षों में इंटरनेट पर जिन तीन भाषाओं का दबदबा होगा वे हैं-हिदी, (चीनी)मैंडारिन और अंग्रेजी। ऐसे लोग जो कहते हैं कि कंप्यूटर का बुनियादी आधार अंग्रेजी है उक्त विचार के बाद उनकी आँखे खुल जानी चाहिए। हिंदी के पोर्टल भी अब व्यावसायिक तौर पर आत्मनिर्भर हो रहे हैं। यूनिकोडिंग नामक एनकोडिंग सिस्टम ने हिंदी को अंग्रेजी के समान ही सक्षम बना दिया है। हिंदी का विरोध करने वालों के लिए एक सूचना यह भी है कि भारतवर्ष की तो बात ही छोड़ दें। विश्वस्तर पर अगर स्पर्धा की बात करें तो आने वाले समय में अंग्रेजी की होड़ चीनी(मैंडारिन), स्पेनिश और हिंदी में से ही किसी एक से होने वाली है। निस्संदेह वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक, व्यावसायिक आदि क्षेत्रों में नई खोजों, नए विचारों की भाषा प्राय: अंग्रेजी होती है। एक लड़के ने पूछा, मास्टर साहब, आपेक्षिक घनत्व क्या होता है ? वे बोले आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी । एक दूसरे लड़के ने कहा- अब आप देखिए, साइंस नहीं अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं। वे बोले साइंस साला बिना अंग्रेजी के कैसे आ सकता है। झारखंड क्षेत्र के एक विद्वान विद्यार्थिओं को मुफ्त में ट्यूशन दे रहे थे। इसी दौरान उन्होंने विद्यार्थियों से फिजीकल मैकेनिजम का यह प्रश्न पूछा, ” एक कार्पेट को एक ओर से वेग लगाकर खोला जा रहा है। सामने से वेग लगाकर उसको रोकना है। इसमें कितना वेग लगेगा ? “ एक विद्यार्थी ने कार्पेट का हिंदी नाम दरी जानने के बाद 5 मिनट में फारमुला लगाकर कर उत्तर दे दिया। मगर जब मेडिकल में उसका चयन हो गया तो वहां उसको कार्पेट का अर्थ दरी बताने वाला कोई नहीं था बल्कि सभी कम अंग्रेजी ज्ञान की वजह से उसका मजाक उड़ाने वाले थे। नतीजा यह हुआ कि होनहार विद्यार्थी की ओर से आत्महत्या। यह भी एक सर्वमान्य सत्य है कि उच्च शिक्षा के लिए जितने छात्र भारत से प्रतिवर्ष अमेरिका जाते हैं, लगभग उतने ही ताईवान जैसे देशों से, जहाँ विश्वविद्यालयों में
विज्ञान तथा तकनीकी विषय भी चीनी, कोरियाई जैसी भाषाओं में पढ़ाए जाते हैं फिर भी हमारे अंग्रेजी दक्ष इंजीनियर कोरिया के लोगों को कार, टी.वी बनाना नहीं सिखाते। उनके टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाले इंजीनियर हमें और बाकी दुनिया को, ऐसा सामान बनाकर बेचते हैं। अंग्रेजी से अनुदित कर जापान, कोरिया और चीन जैसै देश ज्ञान जन-सामान्य तक पहुंचाते हैं। क्या भारतीय भाषाएं चीनी, जापानी आदि भाषाओं की तुलना में इतनी अक्षम हैं कि अंग्रेजी से अनुवाद न किया जा सके । अंग्रेजी में निरंतर पारिभाषिक शब्द गढ़े जाते हैं जो प्राय: ग्रीक और लैटिन भाषाओं पर आधारित होते हैं। हिंदी भाषा में भी अनुवादकों की ओर से अंग्रेजी भाषा के समानार्थक शब्द तैयार कर लिए जाते हैं। किंतु भारतीय इंजीनियरों को वे शब्द बहुत ही कठिन लगते हैं। इस लिए अनुवादको का मजाक उड़ाया जाता है। कुछ समय पूर्व यूपीएससी परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की भूमिका कम करने के लिए बहुत बढ़ा आंदोलन चला था। तर्क दिया जा रहा था कि नया पाठ्यक्रम आने से पूर्व 45 प्रतिशत तक भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थी भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में चुन लिए जाते थे। अब अंग्रेजी को फिर से प्राथमिकता देने से आंकड़ा घट गया है। सबसे पहले आंदोलनकारियों से यह पूछा जाना चाहिए कि 45 प्रतिशत लोगों को तो कम से कम हिंदी में काम करना चाहिए था, मगर ऐसा हुआ नहीं। जो परीक्षार्थी हिंदी माध्यम से प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास करके
नौकरी पर आते हैं उन्हें ही सबसे पहले हिंदी बहुत कठिन लगती है और यूपीएससी ने तो अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद की कठिनता तथा गलतियों का ठीकरा अनुवादकों पर फोड़कर पूरा का पूरा दोष उन्हीं पर डाल दिया। । इंजीनियर जब विदेशों में जाते हैं तो अंग्रेजी में सामग्री की मांग करते हैं, किंतु एक आंकड़ा यह भी है कि 40 प्रतिशत के लगभग इंजीनियर हिंदी तो क्या अंग्रेजी के वाक्य भी ठीक से नहीं बना सकते। दक्षिण की बात छोड़ दीजिए। दक्षिण में अपनी तैनाती के दौरान मैने इस शीर्षक से एक
समाचार पढ़ा था अगर भगवान को तमिल नहीं आती तो तमिलनाडू छोड़कर चले जाएं। समाचार ऐसे था कि एकबार डीएमके प्रमुख करुणानिधि मंदिर चले गए. पंडितों के श्लोक उनको समझ नहीं आ रहे थे क्योंकि वे संस्कृत में होते हैं । पूछने पर उन्होंने बताया कि यह देवों की भाषा है तथा भगवान को यही भाषा समझ में आती है। इस पर उनकी प्रतिक्रिया थी कि अगर भगवान को तमिल नहीं आती तो तमिलनाडू छोड़कर चले जाएं। वहीं कुछ दिन बाद मैने समाचार पत्रों में एक और समाचार पढ़ा कि डीएमके ने एक उपचुनाव में हिंदी के इश्तहार लगाए थे क्योंकि उस क्षेत्र के अधिकतर वोटर हिंदी भाषी थे। जयललिता की पार्टी ने तुरंत इसका विरोध यह इल्जाम लगाते हुए किया कि हिंदी का विरोध तो सर्वप्रथम डीएमके ने ही आरंभ किया था। डीएमके तथा एआईडीएमके के नेता जब दिल्ली में आकर मंत्री बनते हैं तो वे कांग्रेस के नेताओं से भी कम अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं और अधिकतर हिंदी ही बोलते हैं। जब जनता दल(यू) नेता श्री शरद यादव की टिप्पणी पर संसद में बवाल शुरु हुआ था तो सबसे पहले विवादस्पद ब्यान के दौरान डीएमके एमपी कनीमोई सदन से बाहर गईं। शुद्ध हिंदी में चल रही बातचीत सबसे पहले उन्हीं को समझ में आई और श्री शरद यादव जी को सदन में क्षमा याचना करनी पड़ी। विनोबा भावे ने एकबार आग्रह किया था कि सभी भारतीय भाषाओं की लिपि देवनागरी हो परंतु उनकी यह बात आई गई हो गई क्योंकि इतर भाषाओं को झुकना पड़ता। अगर एक लिपि देश में लागू हो जाती तो देश की तस्वीर कुछ और होती। आज चीन जिस गति से दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है संभव है कि इस सदी के मध्य तक चीनी भाषा विश्व में उतनी ही महत्वपूर्ण हो जाए जितनी अग्रेजी, तब हम और दयनीय लगेंगे।
माह फरवरी, 2015 में गोवा की राजधानी पणजी में चले विज्ञान भारती सम्मेलन में वैज्ञानिक जयंत सहस्रबुद्धे ने दावा किया कि न्यूटीनियन सीरीज के नाम से मशहूर गणित के पावर सीरीज की खोज आइजक न्यूटन से बहुत पहले केरल के एक गणितज्ञ माधव ने 14वीं सदी में ही खोज ली थी। उनका कहना है कि गणित के पावर सीरीज की खोज असल में माधव ने ही की थी। उसको ही महान वैज्ञानिक न्यूटन ने फिर से परिभाषित किया। जिसे आधुनिक गणित में न्यूटन सीरीज के नाम से जाना जाता है। उनका कहना था कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह प्रयास चल रहा है कि गणितीय पावर सीरीज की खोज का श्रेय न्यूटन के साथ-साथ माधव को भी दिया जाए। इससे पूर्व यही वैज्ञानिक ज्यामिती के पाइथागोरस थ्योरम को एक भारतीय मनीषी की दिमागी उपज करार दे चुके हैं। उनके अनुसार पाइथागोरस थ्यूरम भी भारत की ही देन है। हमारे ऋषि-मुनि यज्ञ करने के लिए इस थ्योरम का इस्तेमाल करते थे। वे पाइथागोरस थ्यूरम अनुसार यज्ञ वेदिकाएं बनाते थे। बकौल सहस्रबुद्धे भारद्वाज ऋषि ने कहा था कि अगर दिखाई न देने वाले विमान को बनाना है तो धातुओं का एक खास मिश्रण तैयार करना होगा। उनके मुताबिक वैज्ञानिक सीएसआर प्रभु ने भारद्वाज ऋषि द्वारा वर्णित उक्त मिश्रण को तैयार करने में कामयाबी हासिल करली है। धातुओं का यह मिश्रण अस्सी फीसद प्रकाश को सोख लेता है। उन्होंने कहा कि इस प्राचीन मिश्र धातु का प्रयोग कर बनने वाला विमान राडार की पकड़ से दूर रहेगा। ठीक ही तो है खोज चाहे कोई भी करे हम भारतीयों को तो आदत हो गई है अपनी चीजों को पहले कम करके आंकने की और बाद में सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने की। इतिहास गवाह है कि एक समय भारतीय संस्कृति उन्नति के शिखर पर थी। वर्षों की गुलामी चली गई किंतु अंग्रेजी के हम भारतीय अभी तक गुलाम हैं। मुझे अच्छी तरह एक वाक्य अपने जीवन का ही याद है। उन दिनों सरकारी स्कूलों में छठी कक्षा से अंग्रेजी पढ़ानी आरंभ की जाती थी। जब मेरा पांचवी कक्षा का परिणाम निकला और मैं खुश होकर घर लौट रहा था तो मेरा एक मोहल्ला निवासी आगे-2 भांगड़ा करता आ रहा था कि अब इसे मजा आएगा क्योंकि छठी कक्षा से इसे अंग्रेजी पढ़नी पड़ेगी। आज के माहौल में तो बच्चे के पैदा होते ही बच्चों को ऐसे अंग्रेजी रटाई जाती है कि अगर इसे अंग्रेजी नहीं आई तो यह तो दुनिया में किसी काम का नहीं रहेगा। कहीं भी जाओ अंग्रेजी सिखाने के लिए विज्ञापनों की भरमार। अंग्रेजी का राजभाषा का ओहदा उसी तरह बरकरार है जिस तरह ब्रिटिश राज में था, हिंदी अनेक क्षेत्रों में संपर्क भाषा है किंतु सहायक के रुप में। 90 प्रतिशत भारतीय अंग्रेजी ठीक तरह से नहीं समझ पाते फिर भी भारतीय संविधान की मूल लिखित अंग्रेजी में है। हिंदी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली पाँच भाषाओं में से एक है। भारत में बामुश्किल पाँच प्रतिशत ही लोग अच्छी तरह से अंग्रेजी समझते हैं। जो अंग्रेजी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी बात अंग्रेजी में नहीं कह सकते। जब तक हम इस दूरी को खत्म नहीं करते अंग्रेजी ज्ञान जड़ विहीन रहेगा। यदि अंग्रेजी पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़िए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से। ताल्सतॉय, चेखव और दॉस्तोयव्यस्की जैसे रुसी दिग्गजों के आगे अंग्रेजी का कोई कथाकार नहीं ठहरता। इसलिए इन्हें भी साहित्य में पढ़ाया जाए केवल अंग्रेजी साहित्यकारों का वर्चस्व साहित्य पाठ्यक्रमों में नहीं होना चाहिए। हाल ही में अमेरिकी राज्य अल्बामा में एक 57 वर्षीय सुरेश भाई पटेल नामक भारतीय नागरिक जोकि अमेरिका में अपने पुत्र के पास गए थे, को इसलिए पुलिसीया बर्बरता का शिकार होना पड़ा क्योंकि उसे अंग्रेजी नहीं आती थी। उसके ऊपर अवैध और अनैतिक बल प्रयोग किया गया। आधा लकवाग्रस्त होने के बाद और सेहत में सुधार के उपरांत पुनर्वास केंद्र भेजा गया। भारत में अंग्रेजी पर इतना जोर तथा अमेरिका में जाकर हम बेचारे के बेचारे क्योंकि हमे अपनी विदेशी राजभाषा अंग्रेजी नहीं आती। आज भारत में सारी न्याय प्रणाली अंग्रेजी के ऊपर निर्भर है। जजों की नियुक्ति के लिए कोई प्रतियोगिता नहीं। पीढ़ी दर पीढ़ी जजों का चयन। भारतीय भाषाएं न्याय व्यवस्था में आने से दावेदारों के प्रकार बदलना अवश्यंभावी है। उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायलयों में भारतीय भाषाओं में बोलना न्यायलय की अवमानना है। यह कितने शर्म की बात है। किंतु यहां यह भी बताना आवश्यक है कि भारत अमेरिका या आस्ट्रेलिया नहीं है, यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई। अंग्रेजी की बाध्यता वाला मनोभाव न केवल देश के आर्थिक विकास को घटा रहा है, बल्कि गुणवत्ता वाली शिक्षा के लक्ष्य को पाने में भी बाधा पैदा कर रहा है। हिंदी भाषिओं की संकीर्णता भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने में एक सबसे बड़ी अड़चन रही है। आज वो बड़े गर्व से कहते हैं कि मॉरीशस जिसे हिंद महासागर का मोती और भारतभूमि की पुत्री कहा जाता है, में हिंदी फलफूल रही है। रामचरित मानस के माध्यम से मॉरिशस में हिंदी भाषा का बिरवा रोपा गया था, श्रीलंका में श्रीलंका हिंदी निकेतन के झंडे तले हिंदी भाषा का विकास हो रहा है, फिजी में हिंदी, सूरीनाम में हिंदी, इंग्लैंड तथा समस्त विश्व में हिंदी प्रचार-प्रसार का श्रेय लेने की होड़ किंतु जब हिंदी से लाभ लेने की बात हो तो सभी को पीछे धकेलो की नीति । फिर यह नहीं देखा जाता कि उक्त प्रचारकों ने तकलीफें कितनी सही हैं। अपने 40 साल के सेवा काल में मैने अनेक ऐसे व्यक्तियों को देखा भाला है जिन्होंने नि:स्वार्थ भाव से हिंदी की सेवा की है। विशाखापट्टनम में अपनी तैनाती के दौरान मेरा परिचय सेना से सेवानिवृत्त मेजर स्वामी से हुआ। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने हिंदी में शिक्षा ली और हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए आयोजन करते थे। इस तरह का आयोजन कि मैने विशाखापट्टनम से आने के बाद आज तक नहीं उस प्रकार का आयोजन देखा। ज्ञातव्य हो कि विशाखापट्टणम नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की ओर से राजभाषा हिंदी स्वर्णजयंती भवन का निर्माण अपने स्वयं के प्रयास से कराया गया है । नगर में हिंदी से संबंधित सभी सरकारी आयोजन इसी भवन में होते हैं किंतु भारत सरकार तथा मॉरीशस सरकार के संयुक्त प्रयास से निर्मित किए जाने वाले विश्वहिंदी सचिवालय भवन का निर्माण अभी तक नहीं हो पाया है। सिने जगत तथा गणमाध्यम जिन्हें हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार का सबसे अधिक श्रेय दिया जाता है, उनका ध्यान भी अधिकतर
व्यापार िक लाभ पर केंद्रित है। अधिकतर अभिनेता तथा अभिनेत्रियां रोमन लिपि में लिखी स्क्रिप्ट पढ़ती हैं तथा उनके प्रत्येक आयोजन में जमकर अंग्रेजी का प्रयोग होता है। भारत में हिंदी को गऊ माता जैसा सम्मान हासिल है, जिसका दूध निकालने के बाद उसे गंदगी में मूँह मारने के लिए छोड़ दिया जाता है, फिर मजे से आदमी उसका चारा खाता है। हमको अपने भूतपूर्व शासकों से भी यह सीखना चाहिए कि उन्होंने 16वीं शताब्दी में फ्रैंच, इतालवी भाषा जोकि शासक, धनी व अभिजात वर्ग की भाषा थी के खिलाफ अभियान चलाया था व अंग्रेजी जो कि जन साधारण की भाषा थी को प्रत्येक क्षेत्र में ऊपर पहुंचाया था। हिंदी के प्रचार-प्रसार को गति देने के लिए निम्नलिखित विचारों का सहयोग हमेशा लिया जाता है जैसे:-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को सूल। मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती. भगवान भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती। कौन कहता है कि आसमान में छेद नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो ।
कोई भी राष्ट्र नकल करके ऊपर नहीं उठता है और महान नहीं बनता है- महात्मा गांधी।
मगर हिंदी की वर्तमान दशा से उक्त कथनों की दशा भी बेचारों जैसी हो गई है। दक्षिण से उठे विरोध का सहारा लेकर भारत के अधिकतर राज्य बहाना तो अपनी क्षेत्रीय भाषाओं का बनाते हैं किंतु काम अंग्रेजी में ही करना चाहते हैं। इसलिए विदेशिओं को चाहे जासूसी भी करनी हो तो उन्हें कोई दिक्कत भारत के किसी प्रांत में नहीं होती क्योंकि प्रत्येक दस्तावेज अंग्रेजी में ही मिल जाता है। इसलिए अमेरिका में भारतीय भाषाओं के मुरीदों की संख्या बढ़ने के बजाए लगातार घट रही है। अरबी, चीनी, कोरियाई और स्पेनिश के मुकाबले भारतीय भाषाएं सीखने वालों की दिलचस्पी बहुत कम है। मॉडर्न लैंग्वेज एसोसीएसन की ओर से जारी सर्वे के अनुसार 2009 में 3924 के मुकाबले 2013 में यह संख्या घटकर 3090 पर पहुंच गई है। आर्थिक तरक्की तथा अमेरिका के साथ रिश्तों में गर्मजोशी के बावजूद भारतीयों का अंग्रेजी प्रेम तथा इंटरनेट में इस्तेमाल होनी वाली भाषाओं में किसी भी भारतीय भाषा का नहीं होना भी इसका एक मूल कारण है। कॉर्पोरेट जगत में अंग्रेजी का इस्तेमाल होने के परिणास्वरुप अमेरिकीओं को कोई कठिनाई नहीं होती। 9/11 के कारण अमेरिका अरबी भाषा के अध्ययन में अधिक रुचि ले रहा है। अमेरिका में भारतीय भाषाओं के छात्र हिंदी (1800), हिंदी-उर्दु(533), पंजाबी(124), तमिल(82), बंगाली(64), तेलुगु(51), मलयालम (44), नेपाली (27), गुजराती(6), कन्नड(05), मराठी (05), विदेशी भाषा के छात्र स्पेनिश 7,90,756 फ्रेंच 1,97,757, जापानी 67,000, चीनी 61,000 और कोरियन 12000 (आंकड़ा- 2013 का)
इसलिए प्रत्येक भारतीय नागरिक को हिंदी का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही साथ बंगाली, गुजराती, उड़िया, पंजाबी दक्षिण भारतीय एवं दूसरी भाषाओं के शीर्षस्थ साहित्यकारों की रचनाएं हिंदी पाठ्यक्रम में जोड़ी जाएँ। दक्षिण भारत की चार भाषाओं को उत्तर भारत में मान्यता मिले। जरुरत अब इस बात की है कि पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण से संबंधित सभी भारतीय अपनी बोली, मातृभाषा के साथ-साथ एक देश, एक लिपि, एक भाषा का सिद्धांत मानते हुए माँ भारती के माथे की बिंदी हिंदी को अपनाकर अपनी राष्ट्रीयता और देशभक्ति का प्रमाण दें। तभी जाकर क्षेत्रीय भाषाओं के पैरोकार शांत होंगे तथा भारत में भाषा विवाद भी थमेगा जिससे प्रत्येक भारतीय का भला होना निश्चित है। मगर एक सुझाव वर्तमान सरकार के पैरोकारों के लिए भी है। वर्तमान भाजपा सरकार को लोकप्रिय बनाए रखने के लिए हिंदी महती योगदान दे रही है। लेकिन सरकारी पैरोकार हिंदी संबंधी राजनीति से भी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे हैं। कर्नाटक में तो मेट्रो स्टेशनो पर हिंदी न होने से कांग्रेस सरकार का विरोध हो रहा है व दूसरी तरफ तमिलनाडू में तमिल को सबसे पुरातन भाषा बताकर हिंदी की अनदेखी की जा रही है क्योंकि एआईएडीएमके एनडीए का एक घटक है और भाजपा तमिलनाडू में अपने पैर जमाने की फिराक में है। अंत में इन शब्दों के साथ मैं अपनी
लेख नी को विराम दूंगा कि सिर्फ हंगामा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए।