जब भारत सरकार अधिनियम, 1935 अस्तित्व में आया था
तो लगने लगा था कि भारत स्वतंत्र होने वाला है और भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी होने
वाली है। क्योंकि विदेशिओं को यह भलिभांति मालूम था कि भारत में बहुसंख्य हिंदी
भाषिओं की है। स्वतंत्रता सेनानियों का भी आपस में संवाद हिंदी में ही होता था और
हिंदी ने स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभाई थी। मगर बाल-पाल-लाल जैसे
स्वतंत्रता सेनानियों की आत्माएं अपने उत्तराधिकारिओं की हरकतें देखकर शर्मिंदा
अवश्य हो रही होंगी। दक्षिण के स्वतंत्रता सेनानी भी हिंदी की शक्ति के कायल थे,
इसलिए उन्होंने भी हिंदी का विरोध नहीं किया था। मगर कुछ निजी स्वार्थ रखने वाले
नेताओं ने अनेक बहाने बना-बनाकर हिंदी का विरोध जारी रखा। नतीजा यह हुआ कि
अंग्रेजी रानी बन बैठी और जब भी मामला हिंदी को उसका उचित स्थान दिलाने का आया तो
मामला हिंदी बनाम अन्य देशीभाषाएं बना दिया गया। नतीजा यह हुआ कि संविधान की 8वीं
अनुसूचि में वर्णित राष्ट्रभाषाओं की संख्या बढ़ते-बढ़ते 22 तक पहुंच गई तथा अनेक
राष्ट्रभाषा का दर्जा हासिल करने को प्रयासरत हैं व हिंदी केवल राजभाषा के दर्जे
तक सीमित है। जिस विषय को आधार बनाकर हिंदी का विरोध आरंभ हुआ था वह विवाद तो दम
तोड़ चुका है। तमिलों का ही विरोध था कि अगर हिंदी लागू हो गई तो हिंदीभाषी सभी
रोजगारों पर कब्जा कर बैठेंगे और उनके हिस्से में कुछ नहीं आएगा। मगर होनी तो घट
चुकी है। आज वस्तुस्थिति यह है कि हिंदीभाषी नागरिक अधिकतर सरकारी नौकरियों पर
कब्जा किए बैठे हैं। कारण उनका हिंदी ज्ञान के साथ-साथ अंग्रेजी ज्ञान है। एक
वास्तविकता यह भी है कि बड़े-बड़े सरकारी/गैरसरकारी पदों पर पहुंचने वाले देशीभाषाओं
के ज्ञाता भी अंग्रेजी की प्रगति में सहायक बन रहे हैं। न्यायालय की स्थिति तो देशहित
में है ही नहीं। न्यायविदों सहित भारत के सभी बुद्धिजीवियों के ध्यान में लाना
चाहुंगा कि विश्व के सबसे अमीर 20 देश अपना सरकारी कामकाज अपनी-अपनी राट्रभाषाओं
में करते हैं और विश्व के सबसे गरीब 20 देश अपना-अपना सरकारी कामकाज विदेशी भाषाओं
में करते हैं। भारत के नीतिनिर्धारक भारत को एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति बताते हैं।
मगर वो यह नहीं बता पाते कि विदेशीभाषा में विश्वशक्ति बनना कैसे संभव है जबकि
मामूली अंग्रेजी हैकर भी भारत की अनेक वेबसाईटों को हैक करने की क्षमता रखता है।
21वीं सदी के आरंभ होते ही दिल्ली से हीरा व्यापार िओं का अपहरण हुआ था। देश की साख
दाँव पर थी मगर न्यायालय उनको जमानत देने की हद तक पहुंच चुका था। क्योंकि
प्राथमिकी संस्कृत-अरबीनिष्ट हिंदी में थी और हमारे न्यायविदों की नजर में तो अभी
भी भारत की सरकारी भाषा अंग्रेजी ही है। शुक्रवार दिनाँक 11.08.2017 को भारत के
सर्वोच्च न्यायलय ने बाबरी-मस्जिद राममंदिर विवाद मामले की सुनवाई करते हुए 1 लाख
पन्नों व 8 भाषाओं में उपलब्ध दस्तावेजों का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत करने का
आदेश दिया है। यूपी सरकार के लिए यह समय 10 सप्ताह है व पक्षकारों के लिए 12
सप्ताह व आगामी सुनवाई 5 दिसंबर, 2017 को होगी। अनेक पदधारी देशीभाषाओं में काम
करना छोड़ते वक्त यही बहाना बनाते हैं कि सामग्री केवल और केवल अंग्रेजी में उपलब्ध
है। 1 लाख पन्नों का अंग्रेजी अनुवाद होते ही न्यायालय के इतिहास में यह मूल
दस्तावेज बन जाएगा और अनुवादकों का परिश्रम जूती से। आने वाली पीढ़िओं को सामग्री
केवल अंग्रेजी में ही परोसी जाएगी। मगर देशीभाषिओं को यहां यह बताना बहुत ही
आवश्यक है कि अनुवादक दुनिया का सबसे पहला भाषाविद है व सबसे अधिक तिरस्कृत वर्ग
भी यही है। आज के विद्वान अंग्रेजी में मूल काम करने को घंटों-दिनो-हफ्तों-माहों
और वर्षों का समय लगाते हैं और अपेक्षा करते हैं कि अनुवादक के लिए यह चुटकियों का
काम है। 10वीं पास सरकारी बाबू पीएचडी अनुवादक के मुकाबले अपने आपको अंग्रेजी का अधिक
ज्ञाता मानता है। अधिकतर अधिकारी अनुवादक को तभी याद करते हैं जब उन्हें अपने
चाचा-ताऊ की देशीभाषी चिट्ठी मिलती है या कोई देशीभाषी आमंत्रणपत्र मिलता है या
बच्चे का देशीभाषी होमवर्क करवाना हो। कार्यालयीन काम तो उन्हें अंग्रेजी में ही
करना है। जबकि यह स्पष्ट निर्देश हैं कि देशीभाषिओं को अपना शतप्रतिशत काम देशीभाषाओं
में ही करना है। परिणाम यह निकलता है कि अनुवादक एक महाशक्ति होने के बावजूद
तिरस्कृत व अपमानित है। अब फिर से बात आती है सर्वोच्च न्यायालय के अनुवाद कराने
के निर्देश की। अनुवादकों की पूछ बढ़ने वाली है। वर्तमान में यूपी तथा केंद्र में
एक हिंदुवादी व कट्टरवादी सरकार है। जिनके अधिकतर नीति निर्धारकों का मानना है कि
विदेशी इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा है । अगर अनुवादक वास्तविकता
बताएंगे तो निश्चय ही एक खास वर्ग उन्हें देश का गद्दार घोषित करने तक जा सकता है।
अगर वे वास्तविकता से खिलवाड़ करते हैं तो उनके व्यवसाय का अनादर होगा। यह बात
किसी से छुपी नहीं है कि यह खेल केवल सत्ता के लिए खेला जा रहा है। भगवान राम में
आस्था रखने वाला एक पक्ष करोड़ो हिंदुओं की भावनाएं भड़काकर सदा के लिए सत्ता पर
काबिज होने की फिराक में है मगर भगवान राम के स्वार्थी पारिवारिक सदस्यों की
साजिशों को उजागर करने में विश्वास नहीं रखता जिनके कूकृत्यों के कारण वे 14 वर्ष
तक कष्ट झेलते रहे, जब राज करने का अवसर आया तो एक धोबी के कहने पर राम ने सीता को
त्याग दिया, सारांश पूरी जिंदगी साजिशों से सामना। दूसरा पक्ष बाबर का समर्थक है।
उसे भी मालूम है कि बाबर भारतवंशी नहीं था। वह भी अपने पारिपारिक सदस्यों की साजिश
का शिकार होकर दरबदर ठोकरें खाता रहा। पूरी जिंदगी सुख का साँस नहीं लिया। जिंदगीभर
दुख-तकलीफों व युद्धों से सामना होता रहा
व खाली हाथ दुनिया से चला गया। अब उक्त नामों से जारी सत्तासंघर्श अनुवादकों का दुरुपायोग
करने की हद तक पहुंच गया है। अब यह अनुवादकों पर निर्भर करता है कि वे जनता के
सामने सच्चाई लाएं। अनुवाद प्रक्रिया के समापन उपरांत मीडिया के माध्यम से
वास्तविकता जनता के दरबार में अवश्य प्रस्तुत करें ताकि सत्तालोभी जनता की भावनाओं
को भड़काने में सफल न हो पाएं।