जब श्वेत सूर्य रश्मियां,
केशों को अपने रंग में ,
रंग ज्यों चमकें,मुस्कायें।
जब आंखों के गडड्डों में,
गेंद पुतलियों की गिर जाय।
जब अस्थियां खडी़ हो तनकर,
मांस देख सिकुडे़ और लजाये।
खाल लटकी हो ऐसे जैसे,
सिलवटें पडी़ हों बिस्तर पर,
तब आ जाता है चौथापन,
रखता कदम अंतिम पायदान पर।
बैठ जाता है थक हार कर,
चलते -चलते जीवन सफर पर।
सबकुछ देखकर ,सुनकर,
जाने कितना कुछ सहकर,
जाने कितने खट्टे,मीठे,कटु
अनुभव लेकर ,राह तकता है बैठा
वह प्रभु की, ,हर क्षण उसका नाम जाप कर।
तब एक बार पुनः जैसे ,
मन बच्चा बन जाता है।
बच्चों की जैसे हठ है करता,
किसी की न सुनता ,मनमर्जियां करता,
अपनी ही है हरदम धुनता रहता
आवेश तब बहुत शीघ्र आ जाता है।
रहती है वही पूर्व की आदत,
क्षीण हो जाती है सारी ताकत
तत्काल न सुनी जाय तो,
फुलाकर गाल बैठ जाता है।
हाथों में न रह जाता है दम,
चलते थरथराते हैं कदम,
सांस फूलती रहती है हरदम,
हंसते खेलते बीतता बचपन,
स्फूर्ति,उमंग,प्रेम से परिपूरित यौवन,
ठहराव ,परिपक्वता की प्रौढा़वस्था,
पर सबसे कठिन ये चौथापन।
जहां स्मृति क्षीण हो जाती है,
चिड़चिडा़हट अति शीघ्र आती है।
हो जाते शिथिल सारे अंग,
तब आवश्यक्ता होती है सहारे की,
जीवन नैया की चाहत ,
होती है किनारे की ।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'