रोया वो इस कदर,
माँ-बाप के देहांत पर,
अनाथ था हो गया,
टूटा वो बिखर कर।
शैशव वो राह थी,
हाथ कोई थाम ले,
किसको ये चाह थी?
तीन दिवस वो फिरा,
न मिला मदद का सिरा।
भुभुच्छा थी उफान पर,
थी चीख-चीख कह रही,
कुछ ला,मुझे भर,
मैं तेरा हूं उदर।
बालमन नासमझ,
क्या करे,क्या ना करे?
क्या कटोरा ले भीख मांग,
अपना ये उदर भरे?
जो कभी ना किया,
वो किस भांति करे?
हावी मजबूरियां हो गयीं,
उस बिचारे अनाथ पर।
ले कटोरा खडा़ हुआ,
वो व्यस्त एक राह पर,
पर ,वेदना को व्यक्त ना,
कर सके वो अधर।
खुले,फिर खुले,
रह गये फड़फडा़कर।
ढुलके दृगों से अश्रुबिंदु,
उस विकलता को देखकर।
और पराजित हुयी विवशता,
काष्ठ पुतलों के समझ,
जिनके रेत से उरों में,
मृत मानवता को देखकर,
प्राण पखेरू उड़ चले,
अनजान एक सफर पर।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'