जा रहा है दिवाकर
धरा के बाहु पाश से ,
अपने प्रभा रश्मियों,के
सभी कर विलग कर।
कर रहा है गमन,वो
दुखित ,व्यथित होकर ।
उदास है धरा भी तो
उससे बिछुड़कर,
हो रही सूर्य की विदाई है,
गोधूलि बेला जो आई है।
आया था जब पहाडि़यों,
की ओट से निकलकर,
झलक रही थी प्रणय अरुणाई,
कर रहा था आलिंगन ,
विस्तारित कर अपने कर,
अब घडी़ विछोह की आई है,
अब विकलता की अरुणाई है,
उसके सुंदर से मुखडे़ पर।
रिक्त करना है न गगन मैदान,
होना है संध्या का आगमन,
गायों,खगों,मनुजों सभी का,
होना है निज धाम गमन।
सबके चेहरों पर वापसी की,
प्रसन्नता की लहरें छाई हैं,
पूर्ण हुये कर्म आज के सभी के,
घडी़ स्वजनों से मिलने की आई है,
गोधूलि बेला जो आई है।
होना है अब तो ईश भजन,
पूजन,अर्चन,आरती,वंदन,
प्रमुदित हैं सभी के मन,
सुकून मिश्रित शांति छाई है।
गोधूलि बेला जो आई है।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'