जीवन कानन ,
तिमिर आच्छादित ,
है राह सघन।
धैर्य मां की,
उंगली थामें,
संचित कर ,
एक -एक
उम्मीद किरन
कदम ,
फूंक-फूंक कर,
बढा़ना है।
समक्ष खडे़
अगिन सवाल,
समय गर्भ में ,
है जिनका हल,
क्यों विकल
रे प्रतिपल,?
विवेक,समझ ,
से हल करता चल।
जीवन तट ,
बैठे जो
लिये नीरस,
रिक्त अपना
मन घट,
आहलाद से,
उनको भी ,
परिपूर्ण करना ,
साथ सभी का,
निभाना है।
जीते अपने लिये,
सभी हैं पर,
जीना उनके ,
लिये भी कुछ कर,
जो अशक्त ,
लाचार ,जरजर
दुर्गम हुयी ,
जिनकी डगर,
और झंझावतों ,
जो झेलें कहर
क्यों कच्छप सा,
सिमटे रहना ,
अपने ही भीतर?
सबका जीवन,
पथ आलोकित कर,
समस्त अंधकार मिटाना है।
मानव हो तो,
मानवता का फिर,
फर्ज बखूबी निभाना है।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'