आया आलस्य ,आकर पसरा,
देखकर नयनोन्मेष,
द्वार भीतर किया प्रवेश।
प्राची से चली तप्त पवन,
उड़ते ज्यों सिकता कण,
करते उत्पन्न एक चुभन।
मानस हिरन दिनभर भटका,
हर चिंतन के पीछे अटका,
थकहार कर चूर हुआ,
आकर यहीं कहीं दुबका।
स्वागत स्वप्न,
आतिथ्य स्वीकारो,
सुंदर भविष्य निर्माण करो,
क्यों रहते रजनीचर?
चोरों से घुसते भीतर,
भोर की किरण से डरकर,
चले जाते स्वयं को समेटकर।
खुली आँखों के ख्वाब बनकर,
बसो इनमें दृड़ निश्चय लेकर।
मत बनाओ निशा का घर,
पर,मैं भी तो जीती,संकीर्ण होकर।
बस अपने ख्वाब सोचकर,
जब जगत जिये,दुर्दिन पाकर,
कुविचारों का शिकार होकर।
भ्रष्ट व्यवस्था की बीमारी झेलकर।
निशि वासर की थकान मुझे,
क्यों न सुनाई देता?
लोगों का करुण गान मुझे।
अटल निश्चय आज अभी से,
जो अपने पसार कर,कर,
करते प्रयास तम छांटकर,
मैं भी जियूं,उन्हीं में से,
एक जाग्रति की किरण बनकर।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'