वो रौशन हुये,
सारे जहाँ में,
अपने गुणों के,
उजेरों से।
हार गये वो,
अपनी संतानों,
के कुकृत्यों,
के अंधेरों से।
तेल और बाती बन,
लड़ते रहे वो,
उनकी खातिर,
संघर्षों के,
हर थपेडो़ं से,
पर हार गये ,
वो संतानों के,
दुराचरणों ,
के अंधेरों से।
जिनकी खुशी
के खातिर,
वे स्वयं ,
अभावों में,
जलते रहे।
उनके अपने ही,
उनकी आस्तीनों,
में साँप बन ,
पलते रहे।
जिनको दी ,
उनके हिस्से,
की उन्होनें,
स्वतंत्रता सदा,
वो घुटते रहे,
उन्हीं के दिये,
हुये सख्त हिदायतों,
के पहरों से।
वे टूट गये,
बिखर कर,
अपने ही अंगों,
के स्वार्थ के ,
चुभते हुये अंधेरों से।
प्रभा मिश्रा 'नूतन '