परिचित पूरे ब्रह्माण्ड से,
प्रारंभ से,
हर प्रीति,रीति,रंग से ,
हर धूप ,छांव से,
हर अंग से।
साक्षी हूँ हर उस भाव की,
जो शुद्धता में पले,
वसुधा को कुटुम्ब मान,
साथ सभी को ले चले।
सुकून मुझे धर्म में,
हर उस कर्म में,
जो देव ध्यान में लगे,
आरती,पूजा,अर्चना,
शीश सम्मान में झुके।
शंख की आवाज मैं,
पवित्र आस्था का आगाज़ मैं,
हूँ प्राची का सौंदर्य,
कीर्तन की सुरसाज मैं।
पवन में घुली हुयी,
लोट -लोट जाती हूँ,
जहाँ,जहाँ श्री चरण पडे़,
वो रज शीश पर चढा़ती हूँ।
मानवता का अभिमान मैं,
प्रतीक हूँ,
सूर ,तुलसी की भक्ति का,
पर्याय हूँ,
मीरा और शबरी की रति का।
निवास ,देवालयों,
ह्रदयालयों में पर,
ह्रदय से निष्कासित होती,
सिमटती मंदिरों तक जाती हूँ।
आहत मेरी आकांक्षायें,
झेलती हूँ दुर्भावनायें,
बढ़ते पाप देखकर,
आया कलिकाल जानकर,
यह सोच सुकून मनाती हूं
कि होगा प्रभु अवतरण,
और अघ का क्षरण,
फिर होगी साधना,
धर्मोदय हर जगह,
होगी भावना की उपासना,
सुकून से,
सबके दिलों में,
निवास करूंगी,
मैं भारतीय संस्कृति।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'