सुन्दर आता है
सुन्दर : (स्वगत) वर्द्धमान की शोभा का वर्णन मैंने जैसे सुना था उससे कहीं बढ़कर पाया। आह कैसे सुन्दर सुन्दर घर बने हैं, कैसी चौड़ी-चौड़ी सुन्दर स्वच्छ सड़कें हैं, वाणिज्य की कैसी वृद्धि हो रही है, दुकानें अनेक स्थान की अनेक प्रकार की सब वस्तुओं से पूर्ण हो रही हैं, सब लोग अपने काम में लगे हुए हैं और बहुतेरे लोग नदी के प्रवाह की भांति इधर-उधर दौड़ रहे हैं, स्थान स्थान पर पहरेदार लोग सावधानी से पहरे दे रहे हैं, प्रजा लोग सुख से अपना कालक्षेप करते हैं। निश्चय यहां का राजा बड़ा भाग्यमान है। यद्यपि हमारे पिता की राजधानी भी अत्यन्त अपूर्व है। परन्तु इस स्थान सा तो मुझे पृथ्वी में कोई स्थान तो नहीं दिखाई देता। इसका वर्द्धमान नाम बहुत ठीक है क्योंकि इसमें रूप और धन दोनों की वृद्धि है। (हंसकर) परन्तु हमारा अभिलाषा भी वर्द्धमान हो तो हम जानें (चारों ओर देखकर) वाह, यह उद्यान भी कैसा मनोहर है, इसके सब वृक्ष कैसे फले फूले हैं और यह सरोवर कैसे निर्मल जल से भरा हुआ है मानो सब वृक्षों ने अपने अनेक रंग के फूलों की शोभा देखने को इस उद्यान के बीच में एक सुन्दर आरसी लगा दी है। पक्षी भी कैसे सुन्दर स्वर से बोल रहे हैं मानो पुकारते हैं कि इससे सुन्दर संसार में और कोई उद्यान नहीं है। आहा, कैसा मनोहर स्थान है। हम इस बकुल के कुंज में थोड़ा विश्राम करेंगे। (बैठता है) अहा, शरीर कैसा शीतल हो गया। निश्चय यह पौन (सांस लेकर) हमारी प्राणप्यारी त्रिभुवनमोहिनी विद्या का अंग स्पर्श करके आता है, नहीं तो ऐसी मधुर सुगंध इसमें न होती। (कुछ सोचकर) यह तो सब ठीक है परन्तु जिस काम के हेतु मैं यहाँ आया हूं उसका तो कुछ सोच ही नहीं किया। यहाँ मैं किसी को जानता भी नहीं कि उससे कुछ उपाय पूछूं क्योंकि मैं तो यहां छिपकर आया हूं। (चिन्ता नाट्य करता है)
एक चौकीदार आता है
चौकीदार : (स्वगत) ई के हौ भाई, कोई परदेसी जान पड़îला। हमहन के कुछ घूस फूस देई की नाहीं। भला देखी तो सही (प्रकाश) कौन है।
सुंदर : हम एक परदेशी हैं।
चौ. : सो क्या हमें नहीं सूझता पर कहां रहते हौ।
सुं. : हमारा घर दक्षिण है।
चौ. : दक्षिण तो जमराज के घर तक सभी है। तुम किस दक्षिण में रहते हो।
सुं. : सो नहीं, हमारा घर इतनी दूर नहीं है।
चौ. : तो फिर कहते क्यों नहीं कि तुम्हारा घर कहां है।
सुं. : कांचीपुर।
चौ. : काशी कांची जो सुनते हैं सोई कांची!
सुं. : काशी दूसरा नगर है कांची दूसरा। काशी कांची एक ही कैसी।
चौ. : तो फिर यहां क्यों आए हौ।
सुं. : यहां विद्याप्राप्ति के अर्थ आए हैं।
चौ. : कौन विद्या।
सुं. : जो विद्या सब में प्रधान है।
चौ. : सब में प्रधान विद्या! सब में प्रधान विद्या तो चोरी है।
सुं. : (मुसक्याकर) तुम्हारे यहां यही विद्या प्रधान होगी।
चौ. : (सोंटा उठाकर पैंतरे से चलता हुआ) हां रे, यही तो हमारा काम है कि जो जिस विद्या के पंडित हों उन्हें हम वैसा पुरस्कार दें।
सुं. : क्या पुरस्कार देता है।
चौ. : इस विद्या के पुरस्कार हेतु एक यंत्र बना है जिसका नाम काठतुडुम है और चोर शत्रु है।
सुं. : कैसा है।
चौ. : दो बड़े बड़े काठ एकत्र करके चोर भाई का पांव उसके भीतर डाल देते हैं। (सुन्दर का दाहिना पैर बल से खींचकर अपनी दोनों जांघ में रखकर दबाता है) अब जब तक हमरी पूजा न दोगे तब तक न छूटोगे।
सुं. : (चौकीदार को बलपूर्वक लात मारता है और चौकीदार पृथ्वी पर गिरता है) लो तुम्हारी यही पूजा है।
चौ. : (उठ कर) हां हां बचा, अभी तुमको दूसरा पुरस्कार नहीं दिया। चार पांच कोड़े तुम्हारी पीठ पर लगे तब जानो।
सुं. : बस अब बहुत भई, मुंह सम्हाल के बोलो नहीं तो एक मुक्का ऐसा मारूंगा कि पृथ्वी पर लोटने लगोगे और दक्षिण दिशा में यमराज के घर की ओर गमन करोगे। जिसके हेतु तुम इतना उपद्रव करते हौ सो मैं जानता हूँ परंतु धमकी दिखाने से तो मैं एक कौड़ी भी न दूंगा और तुमको भी परदेशियों से झगड़ा करना उचित नहीं है। (कुछ देता है) इसे लो और अपने घर चल दो।
चौ. : (आनन्द से लेकर) नहीं नहीं, हमने आपको जाना नहीं निस्संदेह आप बड़े योग्य पुरुष हैं हम आशीर्वाद देते हैं कि आप अनेक विद्या लाभ करें, राजकुमारी विद्या भी आपको मिले। (हंसता हुआ जाता है)
सुं. : आज बहुत बचे नहीं तो यह दुष्ट बहुत कुछ दुख देता। जिस काम को चलो पहले अनेक प्रकार के बिघ्न होते हैं। देखैं अब क्या होता है। (पेड़ के नीचे बैठ जाता है। हीरा मालिन आती है)
ही. मा. : (आश्चर्य से) अरे यह कौन है। हाय हाय ऐसा सुन्दर रूप तो न कभी आंखों से देखा न कानो सुना। इसकी दोनों हाथ से बलैया लेने को जी चाहता है। लोग सच कहते हैं कि चन्द्रमा को सिंगार न चाहिए। हमको जान पड़ता है कि चन्द्रमा ही पृथ्वी पर उतर के बैठा है। क्या कामदेव इस रूप की बराबरी कर सकता है। ऐसी कौन स्त्री है जो इसको देख के धीरज धरेगा। हम सोचते हैं कि यह कोई परदेशी है क्योंकि इस नगर में ऐसा कोई नहीं है जिसको हीरा मालिन न जानती हो। हाय हाय इसके मां बाप का कलेजा पत्थर का है कि ऐसे सुकुमार सुन्दर पुरुष को घर से निकलने दिया। निश्चय इसको स्त्री नहीं है नहीं तो ऐसे पति को कभी न छोड़ती। जो कुछ हो एक बेर इससे पूछना तो अवश्य चाहिए। (पास जाकर हंसती हुई) क्यों जी तुम कौन हौ। हमको तो कोई परदेशी जान पड़ते हौ।
सुं. : (स्वगत) अब यह कौन आई। (प्रकाश) हमारा घर दक्षिण है और विद्या को खोजते खोजते यहां तक आए हैं।
ही. मा. : उतरे कहां हौ।
सुं. : अभी कहां उतरे हैं क्योंकि हम इस नगर में किसी को नहीं जानते। इसी हेतु अब तक उतरने का निश्चय नहीं किया और इसी वृक्ष की ठंडी छाया में विश्राम करते हैं और सोचते हैं कि अब कौन उपाय करैं। तुम कौन हौ।
ही. मा. : हम राजा के यहां की मालिन हैं, हमारा नाम हीरा है। हमारा घर यहां से बहुत पास है। भैया, हमारा दुख कुछ न पूछो। (पास बैठ जाती है) हमारे दोनों कुल में कोई नहीं है, जमराज सबको तो ले गए पर न जाने हमको क्यों भूल गए। (लम्बी सांस लेती है) पर रानी और राजकुमारी हम पर बड़ी दया रखती हैं और उन्हीं के पास जाकर हम अपना जी बहलाती हैं। अभी तो आपने अपने रहने का निश्चय कहीं नहीं किया है। (रुक कर) हमें कहने में लाज लगती है क्योंकि हमारे यहां बड़ी-बड़ी अटारी तो है नहीं केवल एक झोंपड़ी है जो आप दुःखिनी जान कर हमसे बचना न चाहिए तो चलिए हम सेवा में सब भांति लगी रहैंगी।
सुं. : (स्वगत) तो इसमें हमारी क्या हानि, जो रहने का टिकाना होगा तो काम का भी ठिकाना हो रहेगा क्योंकि यह रात दिन रनिवास में आती जाती है इससे वहाँ के सब समाचार मिलते रहेंगे और ऐसे कामों में जहां अच्छा बिचवई मिला तहां उसके सिद्ध होने में विलंब नहीं होता। (प्रकाश) अब इससे बढ़कर हमारा क्या उपकार होगा कि इस परदेश में हमको आप से आप रहने को घर मिलै। तुमने हम पर बड़ी कृपा की। आज से तुम हमारी मौसी और हम तुम्हारे भांजे हुए।
ही. मा. : यह हमारे भाग्य की बात है कि आप कैसे कहते हौ और यों तो आप हमारे बाप के भी अन्नदाता हौ। दया करके जो चाहो पुकारो। तौ हम आज से तुमको बेटा कहेंगे। (स्वगत) हाय हाय, इसका मुख कैसा सूख गया है। (प्रकाश) तो अब बेटा अपने घर चलो, हमारा जो कुछ है सो सब तुम्हारा है।
सुं. : हां चलो।
जवनिका गिरती है
भारतेन्दु हरिश्चंद्र की अन्य किताबें
आधुनिक हिंदी के जन्मदाता कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म उत्तर प्रदेश के काशी जनपद वर्तमान में वाराणसी में 9 सितंबर 1850 को एक वैश्य परिवार में हुआ था। भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता का नाम गोपालचंद्र था, जो एक महान कवि थे और गिरधर दास के नाम से कविताएँ लिखते थे। हरिश्चंद्र की माता का नाम पार्वती देवी था, जो एक बड़ी शांति प्रिय और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी, किन्तु दुर्भाग्यवश भारतेंदु हरिश्चंद्र की माता का देहांत 5 वर्ष की अवस्था पर और उनके पिता का देहांत उनके 10 वर्ष की अवस्था पर हो गया और इसके बाद का उनका जीवन बड़ा ही कष्टों में बीता। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके जन्म स्थान पर हुई फिर भी उनका मन हमेशा पढ़ाई से दूर भागता रहा, किंतु अपनी प्रखर बुद्धि के कारण वह हर परीक्षा में उत्तीर्ण होते चले गए। अंततः उन्होंने केवीन्स कॉलेज बनारस में प्रवेश लिया भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उस समय के सुप्रसिद्ध लेखक राजा सितारे शिवप्रसाद हिंद को अपना गुरु मान लिया था और उनसे ही उन्होंने अंग्रेजी भाषा का ज्ञान सीखा, जबकि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने संस्कृत, मराठी, बांग्ला, गुजराती, उर्दू आदि का ज्ञान घर पर ही अध्ययन करने के फलस्वरूप प्राप्त किया। जब भारतेंदु हरिश्चंद्र 15 वर्ष के हुए तो उन्होंने हिंदी साहित्य में प्रवेश किया, और 18 वर्ष की अवस्था में उन्होंने 1968 में कविवचन सुधा नामक एक पत्रिका निकाली जिस पत्रिका में बड़े-बड़े कवियों के लेख लिखे जाते थे। इसके पश्चात उन्होंने 1873 में हरिश्चंद्र मैगजीन 1874 में बाला बोधिनी नामक पत्रिका भी प्रकाशित की। भारतेंदु हरिश्चंद्र की आयु 20 वर्ष की हुई तब उन्हें ऑननेरी मजिस्ट्रेट के पद पर आसीन किया गया और आधुनिक हिंदी साहित्य के पिता के रूप में जाना जाने लगा। हिंदी साहित्य में उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि काशी के सभी विद्वानों ने मिलकर उन्हें भारतेंदु की अर्थात भारत का चंद्रमा की उपाधि प्रदान की। भारतेंदु हरिश्चंद्र के द्वारा भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, श्री चंद्रावली, नील देवी, प्रेम जोगनी, सती प्रताप के साथ अन्य कई नाटक रचे गए हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र एक बहुत ही प्रसिद्ध निबंधकार के रूप में भी हिंदी साहित्य में जाने जाते हैं। उनके द्वारा लिखे गए कुछ निबंध संग्रह नाटक, कालचक्र (जर्नल), लेवी प्राण लेवी, कश्मीर कुसुम, जातीय संगीत, हिंदी भाषा, स्वर्ग में विचार सभा, आदि तथा निबंध काशी, मणिकर्णिका, बादशाह दर्पण, संगीतसार, नाटकों का इतिहास, सूर्योदय आदि है।
प्रेम मालिका, प्रेम सरोवर, प्रेम माधुरी, प्रेम तरंग, होली, वर्षाविनोद, कृष्णचरित्र, दानलीला, बसंत, विजय बल्लरी आदि भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती जैसी आत्मकथाऐं लिखी है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक माना जाता है, इसीलिए 1857 से लेकर 1900 तक के काल को भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है। ऐसे महान हिंदी साहित्य के नाटककार निबंधकार और कहानीकार का नाम हमेशा हिंदी साहित्य में सम्मान के साथ लिया जायेगा। D