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दूसरा गर्भांक

27 जनवरी 2022

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(विद्या और मालिन बैठी है)

वि. : कहो उन के लाने का क्या किया, लम्बी चैड़ी बातैं ही बनाने आती हैं कि कछु करना भी आता है?
मा. : भला इस में मेरा क्या दोष है मैंने तो पहिले ही कहा था कि यह काम छिपाकर न होगा, जब मैंने कहा कि मैं रानी से कहूं तौ भी तुमने मना किया और उलटा दोष भी मुझी को देती हौ, उस दिन तुम ने कहा कि उन से कहो वे कोई उपाय आप सोच लेंगे, उस का उन ने यह उत्तर दिया कि 'मौसी मैं परदेशी हूं इस नगर की सब बातैं नहीं जानता और राजा के घर में चोरी से घुसकर बच जाना भी साधारण कर्म नहीं है। जब तुम्हीं कोई उपाय नहीं सोच सकती तो मैं क्या सोचूंगा और अब मुझे मनुष्यों का कुछ भरोसा नहीं है इस से मैं अब दैवकम्र्म करूंगा सो तू घर में एक अग्नि का कुण्ड बना दे और रात भर मेरा पहरा दिया कर' वे तो यों कहते हैं पर देखूं उनका देवता कब सिद्ध होता है-भला वह तो चाहे जब हो एक नई बात और सुनने में आई है जिस से जी में तो रुलाई आती है और ऊपर हंसी आती है।
वि. : क्या कोई और भी नई बात सुनने में आई है?
ही. मा. : हां, मैंने सुना है कि राजसभा में कोई संन्यासी आया है।
वि. : तो फिर क्या?
ही. मा. : मैं सुनती हूं कि वह विचार में सभा को जीत चुका है और अब कहता है कि राजकुमारी से शास्त्रार्थ करूंगा।
वि. : ऐसा कभी हो सकता है कि मैं संन्यासी से विचार करूं।
ही. मा. : क्यों नहीं, क्या प्रण करने के समय तुम ने यह प्रतिज्ञा थोड़ी ही की थी कि संन्यासी को छोड़ कर मैं प्रण करती हूं, अब तो जैसा राजकुमार वैसा ही संन्यासी।
वि. : तो मैं तो उस से विचार नहीं करने की।
ही. मा. : अब नहीं करने से क्या होता है विचार तो करना ही होगा। और फिर इस में दोष क्या है, जैसा तुम्हारा दिव्य राजा के कुल में जन्म है वैसा ही दिव्य संन्यासी वर मिल जायगा, मैंने तो चन्द्रमा का टुकड़ा वर खोज दिया था पर तू कहती है कि रानी से उसका समाचार ही मत कहो, तो अब मैं कौन उपाय करूं-अच्छा है जैसी तुम्हारी चोटी है कुछ उस से भी लम्बी उस की डाढ़ी है, सिर पर बड़ा भारी जटा है और सब अंग में भभूत लगाए हैं, ऐसे जोगी नित्य नित्य नहीं आते-अहाहा कैसा अद्भुत रूप है!
(गाती है) (राग देस)
अरे यह जोगी सब मन मानै।
लम्बी जटा रंगीले नैना जंत्र मंत्र सब जानै ।
कामदेव मनु काम छोड़ि के जोगी ह्वै बौराने।
या जोगिया की मैं बलिहारी जग जोगिन कियो जानै।
अरे यह जोगी- । 1 ।
ऐसा रसिक जोगी वर मिलता है अब और क्या चाहिए?
वि. : चल तू भी चूल्हे में जा और जोगी भी।
ही. मा. : ऐसा कभी न कहना मैं भले चूल्हे में जाऊं पर संन्यासी बिचारा क्यों चूल्हे में जायगा? भला यह तो हुआ पर अब मैं यह पूछती हूं कि एक भले मानस के लड़के को मैंने आस दे कर घर में बैठा रक्खा है, उस की क्या दशा होगी और मैं उस से क्या उत्तर दूंगी क्योंकि तुम तो महादेव जी की सेवा में जाओगी पर वह बिचारा क्या करैगा-और क्या होगा। तुम संन्यासी को लेकर आनन्द करना और वह बिचारा आप संन्यासी हो कर हाथ में दण्ड कमण्डल ले कर तुम्हारे नाम से भीख मांग खायगा।
वि. : चल-लुच्ची ऐसी दशा शत्रु की होय-मैं तो उसे उसी दिन वर चुकी जिस दिन उस का आगमन सुना और उसी दिन उसे तन मन धन दे चुकी जिस दिन उस का दर्शन दिया, इस से अब प्राण कहां रहा और विचार का क्या काम है?
ही. मा. : पर मन के लड्डू खाने से तो काम नहीं चलेगा। क्योंकि मन से हम ने इन्द्र का राज कर लिया, इस से क्या होता है, सपने की सम्पत्ति किस काम की कि जब आंख खुली तो फिर वही टूटी खाट-राजा यह बात कैसे जानैंगे और रानी इस बात को क्या समझती हैं कि मेरी कन्या का गान्धर्व विवाह हो चुका है और अब संन्यासी से ब्याह देंगे तब तुम क्या करोगी और वह तब कहां जायगा?
वि. : हां तुम तो इस बात से बड़ी प्रसन्न हो! तुम्हारी क्या बात है। मैंने कई बार कहा कि उसको एक बार मुझसे और मिला दे पर तू उसे कब छोड़ती है। अरी पापिन जमाई को तो छोड़ देती पर तौ भी तू धन्य है कि इतनी बूढ़ी हुई और अभी मद नहीं उतरा। जब बुढ़ापे में यह दशा है तो चढ़ते यौवन में न जानै क्या रही होगी।
ही. मा. : सच है उलटा उराहना तो मुझे मिलैहीगा क्योंकि अब तो सब दोष मुझे लगेगा, तुमको सब बात में हंसी सूझती है पर मुझे ऐसा दुख होता है कि उसका वर्णन नहीं होता।
जो विधि चन्दहिं राहु बनायो। सोइ तुम कहं संन्यासी लायो ।
इस दुःख से प्राण त्याग करना अच्छा है-मेरी तो छाती फटी जाती-यह मैंने जो सुना सो कहा अब तुम जानो तुम्हारा काम जानै, मैंने जो सुना कहा।
वि. : नहीं नहीं मैं तो तेरे भरोसे हूं जो तू करेगी सो होगा-भला उनसे भी एक बेर यह समाचार कह दे।
(चपला आती है)
च. : राजकुमारी पूजा का समय हुआ।
वि. : चलो सखी मैं अभी आई।
(चपला जाती है)
ही. मा. : तो मैं आज जा कर उससे यह वृत्तान्त कहती हूं, इस पर वह जो कहैगा सो मैं कल तुमसे फिर कहूंगी।
वि. : ठीक है, कल अवश्य इसका कुछ उपाय करैंगे!
(जवनिका गिरती है।) 

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रचनाएँ
विद्यावती
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उनकी रचनाओं ने भारत में गरीबी और विदेशी प्रभुत्व और उपनिवेशवाद के सदियों के बारे में उनकी गहन भावनाओं को व्यक्त किया। हरिश्चंद्र का प्रभाव व्यापक था। उनकी साहित्यिक कृतियों ने हिंदी साहित्य की रीती अवधि के अंत और भारतेंदु अवधि के प्रारंभ पर मोहर लगाई।
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तीसरा गर्भांक

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