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तीसरा अंक : प्रथम गर्भांक

27 जनवरी 2022

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(विमला और चपला आती हैं)

विमला : वाहरे वाहरे कैसी दौड़ी चली जाती है देख कर भी बहाली दिये जाती है।
चपला : (देखकर) नहीं बहिन नहीं मैंने तुम्हें नहीं देखा क्षमा करना।
विम. : भला मैंने क्षमा तो किया पर अपनी कुशल कहो?
च. : कुशल मैं क्या कहूं उस दिन के तो समाचार तूने सुने ही होंगे।
विम. : कौन समाचार राजकन्या के-बड़े घर की बात?
च. : अरे चुप चुप भाई धीरे धीरे-जो कोई सुन ले तो कहै कि यह सब ऐसे ही रनवास की बातैं कहती फिरती होंगी।
विम. : हां तो फिर रानी ने सब बात जान कर क्या कहा?
च. : कहैंगी क्या अपना सिर? राजकुमारी को बुला कर बड़ी ताड़ना की और हम लोगों पर जो क्रोध किया उस का तो कुछ पार ही नहीं है और राजा से जा कर सब कह दिया। राजा ने और भी दस बीस बातैं सुनाई, क्रोध से लाल होकर कोतवाल को आज्ञा दी कि नंगे शस्त्र ले कर रात भर राजकुमारी के महल के चारों ओर घूमा करो और किसी प्रकार से उस चोर को पकड़ो।
विम. : (घबड़ा कर) तब क्या हुआ?
च. : उसी समय से कोतवाल ने हम लोगों के महल में बड़ा उपद्रव मचा रखा है और कहां तक कहैं कई चौकीदार स्त्री बन-बन के विद्या के सोने के महल में रात भर बैठे रहें, पर जिस के हेतु इतना उपद्रव हुआ वह अभी यह समाचार नहीं जानता और फिर उसकी क्या दशा होगी, इस सोच से विद्यावती रात भर रोती रही। यद्यपि हम लोगों ने बहुत समझाया परन्तु उसको धीरज कहां, इसी विपत में सब रात कटी।
विम. : फिर सबेरे क्या हुआ सो कहो।
च. : फिर क्या हुआ यह तो मैं ठीक-ठीक नहीं जानती पर कोतवाल सबेरे उठ के चले गये और विद्या ने मुझे से कहा कि तू सोध ले कि अब क्या होता है।
विम. : सो तूने कुछ सोध पाई?
च. : अब तक तो कुछ सोध नहीं मिली, लोगों के मुंह से ऐसा सुनती हूं कि चोर पकड़ा गया और एक आपत्ति यह भी न है कि मैं तो किसी से पूछ भी नहीं सकती परन्तु कोतवाल इत्यादिक बड़े प्रसन्न हैं इस से जाना जाता है कि चोर पकड़ गया-मैंने पहिले ही कहा था कि इस काम को छिपा के करना अच्छी बात नहीं है (नेपथ्य में कोलाहल होता है) अरे यह क्या है, यह तो कोतवाल का शब्द जान पड़ता है और मानो सब इसी ओर आते हैं तो अब हम लोग किनारे खड़ी हो जायं जिस से वह सब हमको न देखैं (दोनों एक ओर खड़ी हो जाती हैं)
(नेपथ्य में फिर कोलाहल होता है और कोई गाता है)
(हाथ बंधे हुए सुन्दर और मालिन को लेकर चौकीदार आते हैं)
1 चौ. : चल रे चल।
2 चौ. : आज इसका पांव फूल गया है, जिस दिन सुरंग खोद कर राजकुमारी के महल में गया था उस दिन पैर नहीं फूले थे, आज आप 'गजगति' चलते हैं।
सुं. : क्यों व्यर्थ बकता है, राजा के पास तो सब चलते ही हैं, वह जो समझेगा सो उचित दण्ड देगा, फिर तुम को अपनी तीन छटांक पकाये बिना क्या डूबी जाती है।
1 चौ. : अहा मानो हमारे राजपुत्र आये हैं, देखो सब लोग मुंह सम्हाल के बोलो कहीं अप्रसन्न न हो जायं और उनकी अक्षत चन्दन से पूजा करो-लुच्चा, जिस दिन सेन लगाया था उस दिन आदर कहां गया था, आज आप बड़े पद्धती बने हैं, चल चुपचाप आगे चला चल नहीं तो-
2 चौ. : सुनो भाई बहुत शब्द मत करो, कोतवाल ने कह दिया कि चुपचाप जाना हम पीछे-पीछे आते हैं और सब लोग संग ही महाराज के यहां जायंगे इस से जब तक वह न आवैं तब तक यहां चुपचाप खड़े रहो।
3 चौ. : अच्छा आइए चोर जी यहां ठहरिए। राजकन्या के महल के जाने का समय गया, अब कारागार में चलने का समय आया (सब बैठते हैं)।
2 चौ. : देखो भाई भला यह तो परदेसी है पर इस राण्ड़ मालिन को क्या सूझी कि इसने ऐसा साहस किया!
1 चौ. : अरे यह छिनाल बड़ी छतीसी है, इस को तुमने समझा है क्या-ऐसा मन होता है कि इस राण्ड़ की जीभ पकड़ के खींच लें (हीरा के पास जाता है)।
ही. मा. : दोहाई महाराज की, दोहाई महाराज की, हे धर्मदेवता तुम साक्षी रहना, देखो यह सब मुझे अकेली पाकर मेरा धर्म लिया चाहते हैं, दोहाई राजा की।
1 चौ. : वाह वाह, चुप रह।
(धूमकेतु कोतवाल आता है)
धू. के. : क्यों तुम लोगों ने क्या शब्द कर रक्खा है?
ही. मा. : दोहाई कोतवाल की, यह सब जो चाहते हैं सो गाली देते हैं हाय इस राज्य में स्त्रियों का ऐसा अपमान, महाराज धूमकेतु आप तो पण्डित हैं, आप इस का विचार क्यों नहीं करते?
1 चौ. : महाराज! यही राण्ड़ सब कुकर्म की जड़ है और तिस पर ऐसी ऐसी बातैं बनाती है।
ही. मा. : एक मैं ही दुष्कर्म करती हूं और तुम सब साधू हो, देखो कोतवाल हम तो कुछ नहीं करती और तुम सब हमारी प्रतिष्ठा बिगाड़ते हो।
धू. के. : (हंस कर) हां हां! मैं तेरी सब प्रतिष्ठा समझता हूँ, पर यहां इस से क्या? सब लोग महाराज के पास चलें जो वह चाहेंगे सो करेंगे।
ही. मा. : अरे कोतवाल बाबा इस बुढ़िया को क्यों पकड़े लिये जाते हौ बुढ़िया के मारने से क्या लाभ होगा, मुझे अपने बाप की सौगन्द जो मैं कुछ जानती हूं-भगवान साक्षी है कि मैं किसी पाप में रही हूं।
सुं. : मौसी इतनी शीघ्रता क्यों करती है? सब लोग महाराज के पास चलते हैं जो महाराज उचित समझेंगे सो करेंगे।
ही. मा. : (क्रोध से) अरे दुष्ट तेरी मौसी कौन है? इसी के पीछे तो हमारा सब कुछ नाश हुआ, अब तेरा होमकुण्ड क्या हुआ और तेरे इष्ट देवता कहां गए! अरे तू बड़ा जालिया है और तूने मुझे बड़ा धोखा दिया, अब मैं आज पीछे अपने घर में किसी परदेसी को न उतारूंगी।
धू. के. : अब भले ही न उतारना, पर इस उतारने का फल तो भुगतना ही पड़ेगा।
ही. मा. : (रोती है) हाय मैं हाथ जोड़ के कहती हूं कि मैं इस विषय में कुछ नहीं जानती, दोहाई भगवान की मैं कुछ नहीं जानती (कोतवाल से) अरे बेटा! तुम्हारे मां बाप मुझे बड़े प्यार से रखते थे, सो तुम अपने मा बाप के पुण्य पर मुझे छोड़ दो और इसने जैसा कर्म किया है वैसा दण्ड दो। दोहाई कोतवाल की मैं बिना अपराध मारी जाती हूं।
धू. के. : इस से क्या होता है! अब तुम दोनों को महाराज के पास ले चलते हैं और उन की आज्ञा से एक संग ही बन्दीगृह में छोड़ देंगे (सुन्दर का हाथ पकड़कर कोतवाल जाता है और हीरा को खींच कर चौकीदार लोग ले जाते हैं)
विम. : अब सचमुच चोर पकड़ा गया।
च. : जो आंख से देखती है उस का पूछना क्या?
विम. : पर भाई ऐसा रूप तो न आँखों देखा और न कानों सुना, यह तो राजकन्या के योग्य ही है इस में उस ने अनुचित क्या किया, क्योंकि जैसी सुन्दर वह है वैसा ही यह भी है, "उत्तम को उत्तम मिलै मिलै नीच को नीच"।
च. : पर उस निर्दयी विधाता से तो सही नहीं गई।
विम. : सोई तो, अहा जैसे चन्द्रमा को राहु ग्रसै हा-विधाता बड़ा कपटी है।
च. : सखी, अब और कुछ मत कह क्योंकि इस कथा के सुनने से मेरी छाती फटी जाती है और राजकन्या का दुख स्मरण कर के मुझसे यहां खड़ा नहीं रहा जाता, देखैं और क्या-क्या होता है।
विम. : तो फिर कब मिलैगी?
च. : जो जीती रहूंगी तो शीघ्र ही मिलूंगी (दोनों जाती हैं)।
(जवनिका गिरती है।) 

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रचनाएँ
विद्यावती
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