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तीसरा गर्भांक

27 जनवरी 2022

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राजा सिंहासन पर बैठा है।
(मंत्री पास है और कुछ दूर गंगा भाट खड़ा है।)

राजा : मंत्री, गंगा भाट ने जो कहा सो तुम ने सुना?
मंत्री : महाराज, सब सुना।
रा. : तब फिर उनको चोर जान कर कारागार में भेज देना बुरा हुआ?
मं. : महाराज, पहिले यह कौन जानता था, कि यह राजा गुणसिन्धु का पुत्र है, केवल चोर समझ कर दण्ड दिया गया।
रा. : पर जब से मैंने उसे देखा तभी से मुझ को सन्देह था कि आकार से यह कोई बड़ा तेजस्वी जान पड़ता है और मैं सच कहता हूं कि उसकी मधुर मूर्ति और तरुण अवस्था देख कर मुझे बड़ा मोह लगता था-जो कुछ हो अब तो विलम्ब मत कर और शीघ्र ही आप जाकर उसे ले आ क्योंकि कोतवाल अभी कारागार तक न पहुंचा होगा।
म. : जो आज्ञा महाराज, मैं अभी जाता हूं (जाना चाहता है)
रा. : पर केवल सुन्दर को लाना और कोतवाल इत्यादिक को मत लाना।
म. : जो आज्ञा (जाता है)
रा. : क्यों कविराज, तुम उसे अच्छी भांति पहिचानते हौ कि नहीं?
गंगा : महाराज, मैं भली भाँति पहिचानता हूं और पृथ्वीनाथ! बिना जाने मैं कोई बात निवेदन भी तो नहीं कर सकता।
रा. : तो गुणसिन्धु राजा का पुत्र वही है?
गं. : महाराज, इसमें कोई सन्देह नहीं।
रा. : तुम जो न कहते तो बड़ा अनर्थ होता। यह भी हमारे भाग्य की बात है कि ईश्वर ने धर्म बचा लिया। पर मंत्री के आने में इतना विलम्ब क्यों हुआ इस से तुम जाकर देखो तो सही।
गं. : जो आज्ञा (जाता है)।
रा. : (आप ही आप) इतना विलम्ब क्यों लगा? (शरीर हिला कर) विद्यावती के संग जो इसका गान्धर्व विवाह हुआ वह अच्छा ही हुआ क्योंकि नीच कुल में विवाह करने से तो मरना अच्छा होता है, परन्तु हमारी विद्यावती ने कुछ अयोग्य नहीं किया, यह एक भाग्य की बात है नहीं तो मैं अपने हाथ से कन्या को जन्म भर का दुख दे चुका था, अहा भगवान ने बहुत बचाया (द्वार की ओर देखकर) मंत्री अब तक नहीं आये (नेपथ्य में पैर का शब्द सुन कर) जान पड़ता है कि सब आते हैं (गंगा भाट आता है)
गं. : महाराज, कांचीराजपुत्र को मंत्री आदरपूर्वक ले आते हैं (मंत्री और सुन्दर)।
रा. : (सुन्दर का मुख चूम कर) यहां आओ पुत्र यहां (हाथ पकड़ कर अपने सिंहासन पर बैठाता है) बेटा
मैंने तुझको आज अनेक दुःख दिये, इस दोष को मैं स्वीकार करता हूं और यह मांगता हूं कि तुम आज से इन बातों को भूल जाओ।
सु. : (हाथ जोड़ कर) महाराज! आपका क्या दोष है यह तो आपने मुझे उचित दण्ड दिया था, यह केवल मेरे यौवन का दोष था कि मैंने आपके यहां अनेक अपराध किए सो मैं हाथ जोड़कर मांगता हूं कि आप मुझे क्षमा करें।
रा. : (मंत्री से) मंत्री रनिवास में से विद्यावती को शीघ्र ही ले आओ।
म. : जो आज्ञा (जाता है)।
रा. : बेटा, मैंने तुमको जितना दुख दिया है उसके बदले तो मैं तुम्हारा कुछ भी सन्तोष नहीं कर सकता पर मैं इतना कहता हूं कि तुम ने विद्यावती से जो गान्धर्व विवाह किया है उस में मैं प्रसन्नतापूर्वक सम्मति प्रगट करता हूं जिस से अवश्य तुमको बड़ा सन्तोष होगा।
सु. : (हाथ जोड़ कर) महाराज, आपकी कृपा ही से मुझ को बड़ा सन्तोष हुआ।
(मंत्री आता है)
रा. : मंत्री क्या विद्यावती आई?
मं. : महाराज, अभी आती है।
रा. : (सुन्दर से) बेटा, तुम ने पकड़े जाने के समय अपना नाम क्यों नहीं बतलाया नहीं तो इतना उपद्रव क्यों होता?
सु. : महाराज, जो मैं नाम बतलाता तो भी मेरी बात कौन सुनता और सभासद जानते कि यह प्राण बचाने को झूठी बातें बनाता है और फिर क्षत्री के निष्कलंक कुल में उत्पन्न होकर ऐसे बुरे कर्म में अपना नाम प्रगट करने से प्राणत्याग करना उत्तम है।
(सुलोचना और चपला के संग विद्या नीची आँख किये हुए आती है)
वि. : (धीरे से) सखी मैं पिता को मुंह कैसे दिखाऊंगी।
सुलो. : (धीरे से) जब पिता ने बुला भेजा है तो कौन सी लज्जा है।
रा. : आ मेरी प्यारी बेटी इधर आ, आज तक मैंने तुझे अनेक दुःख दिये थे पर वे सब दुःख आज सम्पूर्ण हो गये (उठकर और विद्या का हाथ पकड़ कर) प्यारे यह लो वीरसिंह का सर्वस धन मैं तुम्हें आज समर्पण करता हूँ (विद्या का हाथ सुन्दर के हाथ में देता है और नेपथ्य में बाजा बजता है और आनन्द के शब्द से रंगभूमि भर जाती है) यह बात तो कहना सर्वथा अनुचित है कि इस कन्या पर प्रीति रखना क्योंकि जो परस्पर अत्यन्त नेह न होता तो दुःख क्यों सहते परन्तु ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि आज से फिर तुम्हें कोई दुःख न हो और सव्र्वदा अखण्ड सुख करो और शीघ्र ही एक बालक हो जिस के देखने से हमारा हृदय और आंखैं शीतल हों।
(दोनों दण्डवत करते हैं)
सु. : महाराज, आप की दया से मेरे सब दुख दूर हुए पर यह शंका है कि आप की प्रसन्नता के हेतु कोई योग्य सेवा नहीं कर सका।
गं. :
आज अनन्द भयो अति ही विपदा सब की दुरि दूरि नसाई।
मोद बढायो परजान को दुख को कहुं नाम न नेकु लखाई ।
मंगल छाइ रह्यो चहुं ओर असीसत हैं सब लोग लुगाई।
जोरी जियो दुलहा दुलही की बधाई बधाई बधाई बधाई ।
सुं. : महाराज, आप ने मुझे यद्यपि सब सुख दिया तथापि एक प्रार्थना और है।
राजा : कहो ऐसी कौन वस्तु है जो तुम को अदेय है।
सुं. : (हाथ जोड़ कर) महाराज ने यद्यपि मालिन को प्राण दान दिया है परन्तु देश से निकाल देने की आज्ञा है सो अब उस के सब अपराध क्षमा किये जायं।
रा. : (हंस कर) जो तुम चाहते हो सोई होगा (मंत्री से) मन्त्री, मालिन के सब अपराध क्षमा हुए, इस से अब उसे कोई दण्ड न दिया जाय।
मं. : जो आज्ञा।
रा. : (मन्त्री से) मन्त्री, अब तुम शीघ्र ही ब्याह के सब मंगल साज साजो जिस में नगर में कहीं शोच का नाम न रहै क्यौंकि पुरवासियों को दुलहा दुलहिन के देखने की बड़ी अभिलाषा है और मैं बर बधू को लेकर रनिवास में जाता हूँ।
मं. : महाराज, हम लोगों का जीवन आज सुफल हुआ।
(मन्त्री और भाट एक ओर से जाते हैं और राजा और विद्यासुन्दर दूसरी ओर से और उन के पीछे सखी जाती हैं)

(जवनिका पतन होती है)
नेपथ्य में मंगल का बाजा बजता है।

। इति । 

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रचनाएँ
विद्यावती
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उनकी रचनाओं ने भारत में गरीबी और विदेशी प्रभुत्व और उपनिवेशवाद के सदियों के बारे में उनकी गहन भावनाओं को व्यक्त किया। हरिश्चंद्र का प्रभाव व्यापक था। उनकी साहित्यिक कृतियों ने हिंदी साहित्य की रीती अवधि के अंत और भारतेंदु अवधि के प्रारंभ पर मोहर लगाई।
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राजा और मंत्री का प्रवेश राजा : (चिन्ता सहित) यही तो बड़ा आश्चर्य है कि इतने राजपुत्र आए पर उनमें मनुष्य एक भी नहीं आया। इन सबों का केवल राजवन्श में जन्म तो है पर वास्तव में ये पशु हैं। जो मैं ऐसा जा

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तीसरा गर्भांक

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विद्या बैठी हुई है डाली हाथ में लिए हीरा मालिन आती है। ही. मा. : (हंसकर) राजकुमारी कहां हैं (सामने देखकर) अहा यहां बैठी हैं। आज मुझको इस माला के गूंथने में बड़ी देर लगी इससे मैं दौड़ी आती हूं। यह म

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अंक-2 : प्रथम गर्भांक

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स्थान-विद्या का महल (विद्या बैठी है और चपला पंखा हांकती है और सुलोचना पान का डब्बा लिए खड़ी है)। सुलोचना : (बीड़ा दे कर) राजकुमारी, एक बात पूछूं पर जो बताओ। वि. : क्यों सखी क्यों नहीं पूछती, मेरी ऐ

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तृतीय गर्भांक

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(विद्या अकेली बैठी है और सुन्दर आता है) वि. : आज मेरे बड़े भाग्य हैं कि आप सांझ ही आये। सुं. : (पास बैठकर) प्यारी, मुझे जब तेरे मुखचन्द्र का दर्शन हो तभी सांझ है। वि. : परन्तु प्राणनाथ, यह दिन सव्

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तीसरा अंक : प्रथम गर्भांक

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(विमला और चपला आती हैं) विमला : वाहरे वाहरे कैसी दौड़ी चली जाती है देख कर भी बहाली दिये जाती है। चपला : (देखकर) नहीं बहिन नहीं मैंने तुम्हें नहीं देखा क्षमा करना। विम. : भला मैंने क्षमा तो किया पर

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विद्या सोच में बैठी है। चपला और सुलोचना आती हैं। च. : (धीरे से) सखी, मुझ से तो यह दुःख की कथा न कही जायगी तू ही आगे चलकर कह। सुलो. : तो तुम मत कहना पर संग चलने में क्या दोष है जो विपत्ति आती है स

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