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दूसरा गर्भांक

27 जनवरी 2022

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विद्या सोच में बैठी है।
चपला और सुलोचना आती हैं।

च. : (धीरे से) सखी, मुझ से तो यह दुःख की कथा न कही जायगी तू ही आगे चलकर कह।
सुलो. : तो तुम मत कहना पर संग चलने में क्या दोष है जो विपत्ति आती है सो भोगनी पड़ती है।
च. : चल।
(दोनों विद्या के पास जाती हैं)
वि. : (घबड़ा कर) कहो सखी कहो क्या समाचार लाई हो?
सुलो. : सखी क्या कहूं कुछ कहा नहीं जाता, मेरे मुख से ऐसे दुख की बात नहीं निकलती। हाय-हम इसी दुख के देखने को जीती हैं-सखी जिस प्रीतम के सुख से तू सुखी रहती थी वह आज पकड़ा गया-हाय उस के दोनों कोमल हाथों को निरदई कोतवाल ने बांध रक्खा है-हाय-उस की यह दशा देख कर मेरी छाती क्यों नहीं फट गई।
वि. : (घबड़ा कर) अरे सच ही ऐसा हुआ-हाय फिर क्या हुआ होगा-(माथे पर हाथ मार कर) हा विधाता तेरे मन में यही थी-(मूर्छा खाती है और फिर उठ कर) हाय-प्राणनाथ बन्धन में पड़े हैं और मैं जीती हूं-हाय।
धिक है वह देह और गेह सखी जिहि के बस नेह को टूटनो है।
उन प्रान पियारे बिना यह जीवहि राखि कहा सुख लूटनो है ।
हरिचन्द जू बात ठनी जिय मैं नित की कलकानि ते छूटनो है।
तजि और उपाय अनेक सखी अब तो हमको विष घूटनो है ।
सखी अब मैं किस के हेतु जीऊंगी-आओ हम तुम मिल लें क्योंकि यह पिछला मिलना है फिर मैं कहां और तुम कहां-सखी जो प्राणप्यारे जीते बचैं तो उनसे मेरा सन्देश कह देना कि मैंने तुम्हारी प्रीति का निबाह किया कि अपना प्राण दिया पर मुझे इतना शोच रह गया कि हाय मेरे हेतु प्राण प्रीतम बांधे गये-पर मेरी इस बात का निबाह करना कि मेरे दुःख से तुम दुखी न होना-हाय-मेरी छाती बज्र की है कि अब भी नहीं फटती (रोती है और मूर्छा खा कर गिरती है)
सुलो. : (उठा कर) सखी इतनी उदास न हो और रो रो कर प्राण न दे-यद्यपि जो तू कहती है सो सब सत्य है पर जब ईश्वर ही फिर जाय तो मेरा तेरा क्या बश है? हाय-बादल से कोई बिजली भी नहीं गिरती कि हम को यह दुःख न देखना पड़े-सखी धीरज धर सखी धीरज धर।
वि. : (रो कर) सखी, मन नहीं मानता। हाय-बिनासी विधाता ने क्या दिखा कर क्या दिखाया, हाय-हाय मैं क्या करूंगी-और कैसे दिन काटूंगी।
'मेलि गरे मृदु बेलि सी बांहिन कौन सी चाहन-छाहन डोलिहौं।
कासो सुहास बिलास मुबारक ही के हुलासन सों हंसि बोलिहौं ।
श्रौनन प्याइहौं कौन सुधारस कासों विथा की कथा गढ़ी छोलिहौं।
प्यारे बिना हौं कहा लखिहौं सखियां दुखिया अखियां जब खोलिहौं ' ।
सखी, केवल दुःख भोगने को जन्मी हूं क्योंकि आज तक एक भी सुख नहीं मिला-क्या विधाता की सब उलटी रीति है कि जिस वस्तु से मुझे सुख है उसी को हरण करता है-हाय मैंने जाना था कि मुझे मन माना प्रीतम मिला, अब मैं कभी दुखी न हूंगी सो आशा आज पूरी हो गई-हाय अब मुझे जन्म भर दुःख भोगना पड़ा।
सुलो. : सखी, यह सब कर्म के भोग हैं नहीं तो तुम राजा की कन्या हौ तुम्हारे तो दुःख पास न आना चाहिए पर क्या करैं-सखी तू तो आप बड़ी पण्डित है-मैं तुझे क्या समझाऊंगी पर फिर भी कहती हूं कि धीरज धर।
वि. : सखी, मैं यद्यपि समझती हूं पर मेरा जी धीरज नहीं धरता-कम्र्म के भोग न होते तो यह दिन क्यों देखना पड़ता-हाय-जो पिता माता प्राण देकर सन्तान की रक्षा करते हैं उन्हीं पिता माता ने मुझे जन्म भर रण्ड़ापे का दुख दिया (रोती है)
च. : सखी, अब इन बातों से और भी दुःख बढ़ेगा इससे चित्त से यह बातैं उतार दे और किसी भांति धीरज धर के जी को समझा।
वि. : सखी, मैं तो समझती हूं पर मन नहीं समझता-हाय-और जिस का सर्वस नाश हो जाय वह कैसे समझै और कैसे धीरज धरै-हाय! हाय! प्राण बडे़ अधम हैं कि अब भी नहीं निकलते (लंबी सांस लेती है और रोती है)
सुलो. : पर एक बात यह भी तो है कि अभी राजा ने न जानै क्या आज्ञा दी-बिना कुछ भए इतना दुःख उचित नहीं, न जानै राजा छोड़ दें।
वि. : राजसभा में क्या होगा केवल हमारे शोकानल में पूर्णाहुति दी जायगी और क्या होगा-हाय-प्राणनाथ इस अभागिनी के हेतु तुम्हें बड़े दुःख भोगने पड़े।
सुलो. : जो तू कहै तो मैं छत पर से देखूं कि सभा में क्या होता है।
वि. : जो तेरे जी में आवै और जिस से मेरा भला हो सो कर।
सुलो. : चपला चल हम देखैं तो क्या होता है।
च. : चल (दोनों जाती हैं)
वि. : अब मैं यहां बैठी क्या करूंगी और मन को कैसे समझाऊंगी। हे भगवान मेरे अपराधों को क्षमा कर-मैं बड़ी दीन हूं मैंने क्या ऐसा अपराध किया है कि तू मुझे दुःख दे रहा है। नहीं भगवान का क्या दोष है, सब दोष मेरे भाग्य का है (हाथ जोड़ कर) हे दीनानाथ, हे दीनबन्धु, हे नारायण, मुझ अबला पर दया करो-और जो मैं पतिव्रता हूं और जो मैंने सदा निश्छल चित्त से तुम्हारी आराधना की हो तो मुझे इस दुःख से पार करो।
(नेपथ्य में)
अरे राजकाज के लोगों ने बड़ा बुरा किया कि बिना पहिचाने कांचीपुरी के महाराज गुणसिन्धु के पुत्र राजकुमार सुन्दर को कारागार में भेज दिया-क्या किसी ने उसे नहीं पहिचाना? मैं अभी जाकर महाराज से कहता हूं कि यह तो वही है जिसके बुलाने के हेतु आप ने मुझे कांचीपुर भेजा था।
वि. : (हर्ष से) अरे-यह कौन अमृत की धार बरसाता है-अहा भगवान ने फिर दिन फेरे क्या? अब मैं भी छत पर चल कर देखूं कि सभा में क्या होता है।
(जवनिका गिरती है) 

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रचनाएँ
विद्यावती
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उनकी रचनाओं ने भारत में गरीबी और विदेशी प्रभुत्व और उपनिवेशवाद के सदियों के बारे में उनकी गहन भावनाओं को व्यक्त किया। हरिश्चंद्र का प्रभाव व्यापक था। उनकी साहित्यिक कृतियों ने हिंदी साहित्य की रीती अवधि के अंत और भारतेंदु अवधि के प्रारंभ पर मोहर लगाई।
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