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चौथा गर्भांक

27 जनवरी 2022

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विद्या बैठी हुई है डाली हाथ में लिए हीरा मालिन आती है।

ही. मा. : (हंसकर) राजकुमारी कहां हैं (सामने देखकर) अहा यहां बैठी हैं। आज मुझको इस माला के गूंथने में बड़ी देर लगी इससे मैं दौड़ी आती हूं। यह माला लीजिए और आज का अपराध क्षमा कीजिए।
वि. : चल बहुत बातें न बना। जो रात भर चैन करेगी तो सबेरे जल्दी कैसे आ सकेगी। तेरा शरीर बूढ़ा हो गया है पर चित्त अभी बारही बरस का है। इतना दिन चढ़ गया अब तक मैंने पूजा नहीं किया। पर तुझे क्या। तू तो अपने रंग में रंग रही है। मेरी पूजा हो या न हो।
ही. मा. : वाह वाह बाल पके दांत टूटे पर अभी हम बारही बरस की बनी है। आप धन्य हैं, हमने तो आज बड़े परिश्रम से माला गूंथी कि राजकुमारी उसको देख कर अत्यन्त प्रसन्न होंगी। उसके बदले आपने हमको गाली दिया। सच्च है अभागे को कहीं भी सुख नहीं है। अब हमने अपना कान पकड़ा। अब की बार क्षमा कीजिए ऐसा अपराध फिर कभी न होगा। यह माला लीजिए।
वि. : (माला हाथ में लेती है) अभी आज तो माला बड़ी सुन्दर है। (पत्ते की पुड़िया में फूल के धनुषबाण देखकर) क्यों रे, इसमें यह फूल के धनुषबाण कहां से आए क्या तू हम से ठिठोली करती है। सच्च बतला यह माला किसने बनाई है।
ही. मा. : मेरे बिना कौन बनावेगा।
वि. : नहीं नहीं तू नित्य ही बनाती थी पर ऐसी माला तो किसी दिन नहीं बनी। आज निश्चय किसी दूसरे ने बनाई है।
ही. मा. : मैं तो एक बेर कह चुकी कि हमारे घर में दस बीस देवर जेठ तो बैठे नहीं हैं कि बना देंगे। (आकाश देखकर) अब सांझ होती है हमको आज्ञा दो!
वि. : वाह वाह आज तो आप मारे अभिमान के फूली जाती हैं। ऐसा घर पर कौन बैठा है जिसके हेतु इतनी घबड़ाती हैं। बैठ तुझे मेरी सौगन्ध है। बता यह माला किसने बनाई है। (मालिन का अंचरा पकड़ के खींचती है।)
ही. मा. : नहीं भाई नहीं, मैं कुछ न कहूंगी। जड़ काट के पल्लव सींचने से क्या होगा। बैठ बैठाये दुःख कौन मोल ले क्योंकि प्रीत करनी तो सहज है पर निबाहना कठिन है, इस हेतु इससे दूर ही रहना उचित है।
वि. : वाह वाह तू बड़ा हठ करती है। एक छोटी सी बात मैंने पूछी सो नहीं बताती। क्या मुझसे छिपाने की कोई बात है जो नहीं बतलाती।
ही. मा. : मैं तो तुम्हारे लिये प्राण देती हूं और भगवान से नित्य मनाती हूं कि हमारी राजकुमारी को सुन्दर वर मिले जिसे देख के मैं अपनी आँख ठंडी करूं और आप उसके बदले मुझ पर क्रोध करती हो। इसी के जतन में तो मैं रात दिन लगी रहती हूं।
वि. : तो खुलकर क्यों नहीं कहती। आधी बात कहती है आधी नहीं कहती व्यर्थ देर करती है।
ही. मा. : सुनिए दक्षिण देश के कांचीपुर के गुणसिन्धु राजा का नाम आपने सुना ही होगा। उसका पुत्र सुन्दर जिसे ले आने के हेतु राजा ने गंगा भाट को भेजा था यहां आप से आप आया है।
वि. : (घबड़ाकर) कहां कहां? (फिर कुछ लज्जित होकर) नहीं क्या वह सचमुच यहां आया है।
ही. मा. : (हंसकर) मैं उसको बड़े यत्न से लाई हूं क्योंकि मैं सर्वदा खोजा करती थी कि मेरी बेटी को दूल्हा चाँद का टुकड़ा मिले तो मैं सुखी होऊं। सो मैने कहीं से खोजकर उसे अपने घर में रक्खा है पर यहां तो वही दशा है जाके हित चोरी करो वही बनावै चोर।
वि. : तो फिर वे छिप के क्यों आए हैं।
ही. मा. : आपकी प्रतिज्ञा तो संसार में सब पर विदित ही है सो प्रत्यक्ष वाद करने में जो कोई हारे तो प्रेम भंग होय और परस्पर संकोच लगै, इस हेतु छिप के आए हैं।
वि. : उनका रूप कैसा है।
ही. मा. : उनका रूप वर्णन के बाहर है।
(गाती है, राग-बिहाग)।
कहै को चन्द बदन की शोभा।
जाको देखत नगर नारि कों सहजहि तें मन लोभा ।
मनु चन्दा आकास छोड़ि कै भूमि लखन कों आयो।
कैघौं काम बाम के कारन अपुनो रूप छिपायो ।
भौंह कमान कटाक्ष बान से अलक भ्रमर घुंघुरारे।
देखत ही बेधत हैं मन मृग नहिं बचि सकत बिचारे ।
वि. : तो भला उनको एक बेर किसी उपाय से देख भी सकती हैं?
ही. मा. : वाह वाह यह तुमने अच्छी कही। पहिले राजा रानी से कहैं वह देख सुन के जांच लें तो पीछे तुम देखना।
वि. : नहीं, ऐसा न होने पावे, पहिले मैं देख लूं तब और कोई देखै।
ही. मा. : मैं कैसे पहिले तुम्हें दिखला दूं, यह राजा का घर है चारों ओर चैकी पहरा रहता है यहां मक्खी तो आही नहीं सकती भला वह कैसे आ सकते हैं जो कोई जान जायगा तो क्या होगा?
वि. : सो मैं कुछ नहीं जानती जैसे चाहो वैसे एक बेर मुझ को उन का दर्शन करा दो। तू आप चतुर है कोई न कोई उपाय सोच लेना और जो तू मेरा मनोरथ पूरा करैगी तो मैं भी तेरा मनोरथ पूरा कर दूंगी।
ही. मा. : यह तो मैं भी समझती हूं पर मैं सोचती हूं कि किस रीति से उसे ले आऊं, हां एक उपाय यह तो है कि वह इस वृक्ष के नीचे ठहरैं और तुम अपनी अटारी पर से देख लो।
वि. : हां ठीक है, यह उपाय बहुत अच्छा है। पर अब आज या कल?
ही. मा. : कल उन को लाऊंगी (हंस कर) एक बात मैं कह देती हूं कि उन को एक बेर देख के फिर भूल न जाना।
वि. : भूल जाऊंगी-हाय!
(गाती है-ठुमरी)
मेरे तन बाढ़ी बिरहपीर अब नहिं सहि जाई हो।
अब कोउ उपाय मोहि नहिं लखाय,
दुख कासों कहौं कछु कहि जाय,
मन हीं विरह की अगिनि बरै धूआं न दिखाई हो ।
दईमारी लाज बैरिन सी आज, कहो आवत मेरे कौन काज, पिय
बिन मेरा जियरा तड़पै, कछु नाहिं बसाई हो ।
(राग बिहाग)
चढ़ावत मो पैं काम कमान।
बेधत है जिय मारि गारि कै तानि श्रवन लगि बान ।
पिया बिना निसिदिन डरपावत मोहि अकेली जान।
तुमरे बिनु को धीर धरावै पीतम चतुर सुजान । 1 ।
ही. मा. : (हंस कर) वाह वाह यह अनुराग हम नहीं जानती थीं।
(गाती है-राग-कलिंगड़ा)
अहो तुम सोच करो मति प्यारी।
तुम्हरो प्रीतम तुमहिं मिलै हैं करि अनेक उपचारी ।
अति कुम्हिलाने कमल बदन कों प्रफुल्लित करि हौं वारी।
चंदहि जौ चाहै तौ लाऊं यह तो बात कहारी ।
वि. : तो मैं आज छत पर उसकी आशा देखूंगी।

जवनिका गिरती है।

। प्रथम अंक समाप्त हुआ । 

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रचनाएँ
विद्यावती
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उनकी रचनाओं ने भारत में गरीबी और विदेशी प्रभुत्व और उपनिवेशवाद के सदियों के बारे में उनकी गहन भावनाओं को व्यक्त किया। हरिश्चंद्र का प्रभाव व्यापक था। उनकी साहित्यिक कृतियों ने हिंदी साहित्य की रीती अवधि के अंत और भारतेंदु अवधि के प्रारंभ पर मोहर लगाई।
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दूसरा गर्भांक

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सुन्दर आता है सुन्दर : (स्वगत) वर्द्धमान की शोभा का वर्णन मैंने जैसे सुना था उससे कहीं बढ़कर पाया। आह कैसे सुन्दर सुन्दर घर बने हैं, कैसी चौड़ी-चौड़ी सुन्दर स्वच्छ सड़कें हैं, वाणिज्य की कैसी वृद्ध

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तीसरा गर्भांक

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सुंदर और हीरा मालिन आती है सुं. : रनिवास का समाचार सब मैंने सुना। तो मौसी राजा को क्या केवल एक ही कन्या है। ही. मा. : हां बेटा केवल एक ही कन्या है पर वह कुछ सामान्य कन्या नहीं है मानो कोई देवता की

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चौथा गर्भांक

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विद्या बैठी हुई है डाली हाथ में लिए हीरा मालिन आती है। ही. मा. : (हंसकर) राजकुमारी कहां हैं (सामने देखकर) अहा यहां बैठी हैं। आज मुझको इस माला के गूंथने में बड़ी देर लगी इससे मैं दौड़ी आती हूं। यह म

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अंक-2 : प्रथम गर्भांक

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स्थान-विद्या का महल (विद्या बैठी है और चपला पंखा हांकती है और सुलोचना पान का डब्बा लिए खड़ी है)। सुलोचना : (बीड़ा दे कर) राजकुमारी, एक बात पूछूं पर जो बताओ। वि. : क्यों सखी क्यों नहीं पूछती, मेरी ऐ

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दूसरा गर्भांक

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(विद्या और मालिन बैठी है) वि. : कहो उन के लाने का क्या किया, लम्बी चैड़ी बातैं ही बनाने आती हैं कि कछु करना भी आता है? मा. : भला इस में मेरा क्या दोष है मैंने तो पहिले ही कहा था कि यह काम छिपाकर न

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तृतीय गर्भांक

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(विद्या अकेली बैठी है और सुन्दर आता है) वि. : आज मेरे बड़े भाग्य हैं कि आप सांझ ही आये। सुं. : (पास बैठकर) प्यारी, मुझे जब तेरे मुखचन्द्र का दर्शन हो तभी सांझ है। वि. : परन्तु प्राणनाथ, यह दिन सव्

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तीसरा अंक : प्रथम गर्भांक

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(विमला और चपला आती हैं) विमला : वाहरे वाहरे कैसी दौड़ी चली जाती है देख कर भी बहाली दिये जाती है। चपला : (देखकर) नहीं बहिन नहीं मैंने तुम्हें नहीं देखा क्षमा करना। विम. : भला मैंने क्षमा तो किया पर

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दूसरा गर्भांक

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विद्या सोच में बैठी है। चपला और सुलोचना आती हैं। च. : (धीरे से) सखी, मुझ से तो यह दुःख की कथा न कही जायगी तू ही आगे चलकर कह। सुलो. : तो तुम मत कहना पर संग चलने में क्या दोष है जो विपत्ति आती है स

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तीसरा गर्भांक

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राजा सिंहासन पर बैठा है। (मंत्री पास है और कुछ दूर गंगा भाट खड़ा है।) राजा : मंत्री, गंगा भाट ने जो कहा सो तुम ने सुना? मंत्री : महाराज, सब सुना। रा. : तब फिर उनको चोर जान कर कारागार में भेज देना

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