मापनी-२१२२ २१२२ २१२२ २१२ समांत- आन पदांत- कर
“गज़ल”
कुछ सुनाने आ गया हूँ मन मनन अनुमान कर
झूठ पर ताली न बजती व्यंग का बहुमान कर
हो सके तो भाव को अपनी तराजू तौलना
शब्द तो हर कलम के हैं सृजन पथ गतिमान कर॥
छू गया हो दर्द मेरा यदि किसी भी देह को
उठ बता देना दवा है जा लगा दिलजान कर॥
सुन रखा था हीर अंधी हो गई थी प्रेम में
नयन रांझें का खुला था मिल गए शवदान कर॥
हार क्योंकर मान लेती कब सियासत हारती
खुद मज़ारें कब बनी हैं मिलन मन अनुष्ठान कर॥
जो हुआ अच्छा हुआ है कुछ निगाहें खुल गई
प्यार की चिट्ठी मिली तो पढ़ लिया प्रियमान कर॥
बिन पता का पत्र गौतम हाथ जिसके लग गया
पढ़ लिए पन्ने पलट कर जा खबर अंजान कर॥
महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी