घरौंदे/घोसले
उड़ा दिए उन परिंदों को
उनकी ही डाल से
एक छोटे से कंकर देकर
झूलते थे जो घोसले
बहुत पुराने होकर
गंदे, जीर्ण-सिर्ण, खरबचड़े
लटके थे बचपन से घेरे हमारे बंकर॥
उड़ा दिए उन खर पतवारों को
खरखराते थे जो छप्पर
एक हल्के से धक्के देकर
झूलती थी जहाँ मक्खियाँ
कई बीमारियाँ लेकर
भिनभिन घिनघिन प्रतिदिन
खाँसते थे छिंकते थे झाँकते थे हमारे अंदर॥
खड़े हैं अब भी कुछ दरख्त
जो कभी उनके थे पर अब हमारे हैं
फूलते हैं फलते है कभी कभी
मीठे लगते हैं मझोले फल
अपने आकार प्रकार लेकर
लहसुनिया सेनूरी कसैला
ताकते हैं तकाते हैं देखते हैं हमारे मंजर॥
बुन रहे हैं चूजे नए घोसले
दूर-दूर से लाते हैं तिनके
रंगविरंगी मखमली कतरन
सपने सजाते हैं बहारों के उ
नके अपने अभी तो हैं उनके
मतलब मेहनत मसक्कत
घरौंदे बनते बिगड़ते सँवरते हैं हमारे निरंतर॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी