नज़्म...
अटकी हुई है
देर से,
ज़ेहन के
गोशों में कहीं।
मुंह लटकाए
पड़ी है कब से,
खामोखयाली की
मटमैली चादर ओढ़े।
करेले सा ...
कडुआपन
हलक को
चीरे जाता है जैसे;
एक बच्चे ने
आइसक्रीम
खाते-खाते
बहा रखी है
कुहनियों तक,
थोड़ी सी
मैं भी चख लूँ
फिर लिखता हूँ।
नज़्म अटकी हुई है
देर से......!
आकाशवाणी के कानपुर केंद्र पर वर्ष १९९३ से उद्घोषक के रूप में सेवाएं प्रदान कर रहा हूँ. रेडियो के दैनिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त अब तक कई रेडियो नाटक एवं कार्यक्रम श्रृंखला लिखने का अवसर प्राप्त हो चुका है. D