कितनी नर्म होगी उस दिल की ज़मीं’ जिस पर कभी सरसब्ज़ हुए होंगे इतने नाज़ुक जज़्बात ! रूमानी कलियाँ तो खिलती हैं हम सबके दिलों में मगर, फूल बनकर कागज़ पर उतरें, इससे पहले न जाने किन हवाओं की नज्र हो जाती हैं I मगर एक शायर के दिल में ये कलियाँ चटकती भी हैं और फूल बनकर कागज़ पर उतरती भी हैं I उनकी खुशबुओं का सफ़र यहाँ भी ख़त्म नहीं होता, लफ़्ज़ों के ये गुल तरन्नुम में में ढलते भी हैं और लाखों-करोड़ों दिलों में उतरते भी हैं ! ख़ूबसूरत नग्मों के एक ऐसे ही बादशाह थे-गीतकार हसरत जयपुरी...
15 अप्रैल, 1918 को जयपुर में जन्मे थे इक़बाल हुसैन जिन्हें हम बखूबी जानते हैं मशहूर गीतकार हसरत जयपुरी के नाम से I जयपुर में ही पले-बढ़े और वहीं अपने बाबा फ़िदा-हुसैन से उर्दू और फ़ारसी की तालीम ली I उम्र के बीसवें बसंत तक आते-आते उनकी कविताओं की कलियाँ, फूल बनकर चटकने लगीं, और उन्हीं दिनों एक लड़की से प्यार हो गया I मोहब्बत में जुबां’ तो खामोश थी मगर दिल में उमड़ते जज़्बात की अंगड़ाइयों पर भला क़ाबू किसका है ? आख़िर शाइर के जज़्बात कागज़ पर उतर ही गए...’ये मेरा प्रेमपत्र पढ़कर के तुम नाराज़ ना होना, कि तुम मेरी ज़िन्दगी हो, कि तुम मेरी बन्दगी हो !’ हसरत का लिखा वो प्रेमपत्र शायद कभी प्रेयसी तक न पहुँचता अगर ग्रेट शोमैन राजकपूर ने उसे फ़िल्म संगम के ज़रिए सारी दुनिया को न पढ़ाया होता I
शायर का जिगर लिए हसरत मुंबई चले आये और बस-कंडक्टर की नौकरी कर ली I पेट की आग तो बुझने लगी मगर शाइर दिल को तसल्ली कौन करे ? इसकी खातिर वो मुशायरों में भाग लेने लगे I एक बार पृथ्वीराज कपूर ने उनका कलाम सुना और इस क़दर प्रभावित हुए कि उन्हें अपने बेटे राजकपूर से मिलने को कहा I इस तरह एक दिन ‘रॉयल ऑपेरा हाउस’ की कैंटीन में हसरत साहब की मुलाक़ात राजकपूर से हुई जो उन दिनों नए म्यूजिक कम्पोज़र्स शंकर-जयकिशन को लेकर एक म्यूजिकल लव-स्टोरी बना रहे थे I इस तरह हसरत साहब के बेक़रार जिया को क़रार मिल ही गया और उनका पहला गाना रिकॉर्ड हुआ, ‘जिया बेक़रार है...’ फिल्म थी राजकपूर और नर्गिस अभिनीत 1949 रिलीज़ ‘बरसात’ I
हसरत जयपुरी को उनके खूबसूरत गीतों के लिए तमाम पुरस्कारों से नवाज़ा गया I उन्हें दो फिल्मफेयर पुरस्कार मिले, जिसमें एक था फिल्म सूरज (1966) के उस गाने के लिए जिसके बोल थे, ‘बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है’ और दूसरा फ़िल्म अन्दाज़ (1971) के लिए, गीत के बोल थे...’ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना’ ।
गीतकार हसरत जयपुरी को ‘World University Round Table’ ने ‘Doctorate’ की उपाधि से सम्मानित किया और एक शायर के रूप में उनकी साहित्यिक रचनाओं के लिए उर्दू कांफ्रेंस ने उन्हें ‘जोश मलीहाबादी’ अवार्ड से नवाज़ा I हिंदी और बृजभाषा के संगम से निखरा फ़िल्म ‘मेरे हुज़ूर’ का वो गीत जिसके बोल थे. ‘झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया’ और इस गीत के लिए उन्हें डॉ. अम्बेडकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया I भाषाओँ के मेल पर उनका कहना था, "हिन्दी और उर्दू दो बहनें हैं, इन्हें अलग नहीं किया जा सकता I कविता शायरी पर लिखी मेरी किताबें , हिन्दी में भी हैं और उर्दू में भी हैं I ये तय है कि एक शायर, गीतकार जब अपने दिल के टुकड़े किसी काग़ज़ पर उतारता है तो वो किसी एक मज़हब, जाति या भाषा का नहीं रह जाता I दुनिया की भीड़ में खुद तनहा बैठा शायर अपने नग्मात के ज़रिए सारी दुनिया का हो जाता है ।"
‘हसरत’ साहब की ज़िन्दगी से जुड़ा एक बड़ा ख़ूबसूरत वाक़या है I मशहूर फ़िल्मकार रामानन्द सागर साहब फिल्म बना रहे थे ‘आरजू’ (1978) I हसरत साहब को गाने की सिचुएशन समझा दी I उस वक़्त सब हाँ-हाँ हो गई मगर धीरे-धीरे जब कई दिन बीत गए और हसरत साहब वो गाना लिखकर सागर साहब के पास नहीं लाए तो बात रामानन्द सागर की समझ में आ गई I उन्होंने एक दिन हसरत साहब से कहा, “हसरत, मैं तुम्हें कुछ दिनों के लिए एक खूबसूरत हिल-स्टेशन भेज रहा हूँ, मैं चाहता हूँ तुम कुछ दिन वहीं बिता कर आओ I" आका का फ़रमान सर-आँखों पर ! हसरत साहब हिल-स्टेशन चले गए I बमुश्किल एक हफ़्ता गुज़रा होगा कि सागर साहब के पास हसरत जयपुरी का संदेसा आ गया—“सागर साहब, आपकी फिल्म ‘आरज़ू’ की ख़ातिर कई रोज़ पहले आपने मुझसे एक गाना लिखने के लिए कहा था...I”
“हाँ-हाँ कहा तो था...I”
“जनाब, वो गाना पूरा हो गया है I”
एक शायर, गीतकार से कोई ख़ास गीत लिखवाने का ये हसीं'अंदाज़ ! कहने की ज़रुरत नहीं कि कितनी खूबसूरत सोच रही होगी ऐसे फ़नकारों की और कितने खूबसूरत होते होंगे वो लम्हात जब ऐसी गुफ़्तगू हुआ करती होगी ! आपको बताते चलें, आरज़ू फिल्म का वो गाना था, ‘बेदर्दी बालमा तुझको मेरा मन याद करता है...I’
उंगलियाँ दांतों तले दब जाती हैं इसी तसव्वुर में कि वो ‘महबूब’ कितना खूबसूरत रहा होगा जिसकी खातिर हसरत साहब ने फ़िल्म सूरज का वो गीत लिखा...’बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है’ और कहना न होगा कि बात को इतनी ख़ूबसूरती से कहने वाला भी ख़ुद कितना खूबसूरत सोचता रहा होगा ! सूरज फ़िल्म के इसी गाने के लिए उन्हें सम्मानित किया गया फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड से, वो साल था 1966 ।
‘मुस्तक़बिल’ की फ़िक्र छोड़कर ‘हाल’ में जीने का अन्दाज़ बताने वाले हसरत साहब ने ज़िन्दगी को एक सुहाना सफ़र का नाम दिया I ‘कल क्या हो’---ये एक बस-कंडक्टर के रूप में करीअर की शुरुआत करने वाले इक़बाल हुसैन ने शायद वाक़ई नहीं जाना था I तभी तो, वो अकेले ही चले थे जानिबे मंज़िल मगर लोग मिलते गए और कारवां बनता गया...और, एक रोज़ लफ़्ज़ों की शक्ल में उनकी क़लम से बह निकला एक सच, फ़िल्म अंदाज़ के एक गीत में, जिसके लिए हसरत साहब को एक बार फिर फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया I वो गीत था, ‘ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना...वर्ष 1971, फ़िल्म ‘अंदाज़’।
रंगमंच है ये दुनिया, और इंसान, माटी के किरदार ! डोर तो है ऊपर वाले के हाथों में I किसे क्या रोल निभाना है, ऊपर वाला ही जाने I हम तो फ़क़त इतना जानते हैं कि परदा उठता है, परदा गिरता है...और इसी के दरमियाँ’ ख़त्म होता है खेल ज़िन्दगी का !
17 सितम्बर, सन 1999 की वो तारीख़ थी जब अपने नग्मों से दुनिया के क़दम थिरकाने वाला वो फ़नकार अपने सीने की धड़कनों को थाम न सका ! उसी ने लिखा था...’ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना’, और उसी ने लिखा था, ‘तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे...