कबीरदास की उलटी बानी ,
बरसे कम्बल भीगे पानी।”
(कबीरदास का कहना है, "हर व्यक्ति अपने भीतर सुप्त रूप में विद्यमान समाज प्रदत्त संस्कार रूपी कम्बल ओढ़ा हुआ है, जिसमे कई जन्म के संस्कार हैं। जब ये भक्ति रूपी संस्कार के कम्बल बरसतें हैं, अर्थात जीवन में सक्रीय व क्रियाशील हो जाता हैं, तब आदमी का ह्रदय भक्ति रूपी जल में भींगने लगता है।")
(अर्थात
जब मनुष्य रंगीन चादरों के संस्कार से मुक्त हो जाता है तो वो ज्ञान एवंग
भक्ति रूपी कम्बल ओढ़ लेता है। ((कम्बल ज्ञान एवंग दान का उपमा है। हम
गरीबों को कम्बल दान करते हैं , कम्बल हम बिछा सकते हैं , कम्बल कभी नष्ट
नहीं होता , कम्बल पवित्रता का प्रतीक माना जाता है , कम्बल अशुद्ध नहीं
होता। )) जब वही कम्बल सात्विक रूप में बरसने लगता है , तो मानव का सुप्त
आध्यात्म भक्ति रास से भीगने लगता है। )
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