इकराम हुआ है इस जाँ पर यारा का यारों इस तरहा,
ज़ाहिद दे शब्-ए-खिलवत में कभी बाना-ए-फकीरी जिस तरहा !
कातिल को भी दिल से लगाया है रखते हैं हम भी ऐसा जिगर,
रखता है छुपाकर दशना को म्यान जिगर में जिस तरहा !
बातिल है दिल का हर नाला उन चश्म-ए-गफलत नज़रों में,
गाफिल है इब्लीस जैसे क़ि नौहा-ए-गम से जिस तरहा !
किस तरह से जौक हो ख़तम मेरा कातिल इसी फितरत में है,
बर्क-ए-बेअमाँ खुश होता है खिरमन को जलाकर जिस तरहा
जायेंगे न जानिब ख्यालों के खाते हैं क़सम इक अरसे से,
करता है तौबा "रंजन" ज्यूँ मैखाने से आकर जिस तरहा !
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