21/7/22
प्रिय डायरी,
आज मैंने शब्द.इन में कागज़ की कश्ती शीर्षक पर कविता लिखी।
हम सब बचपन में कागज़ की कश्ती अर्थात नाव बना कर बारिश के बहते पानी में डाल दिया करते और देखते रहते थे कि कहां तक जाती है। यदि बीच में अटक गई और उसमें पानी आ गया तो डूब जाती थी। पहले तो मन उदास हो जाता था लेकिन फिर थोड़ी देर बाद फिर कागज़ की कश्ती बनाते और बारिश के पानी में डाल दिया करते
थे।
ये भी बचपन का खेल अब भी बारिश में याद आ जाता है। हम बनाते थे क्योंंकि छोटे भाई बहन कहते थे और बना कर दे देते थे और वो बारिश के बहते पानी में डाल दिया करते थे और टकटकी लगाए देखा करते थे और डूब गई तो रोना सा मुंह बना कर फिर कागज़ की कश्ती बनाने की मांग की जाती थी।
मालूम था कागज़ की कश्ती बढ़ती जाती है किन्तु कुछ दूरी तय करते ही डूब जाती है किन्तु बचपन का खेल है। अब भी याद आते हैं वो गुजरे दिन।
धन्यवाद
अनुपमा वर्मा ✍️✍️