जिन्दगी आज फिर खफा खफा सी है
रास्ते मंजिलों की जुदा जुदा सी है
वक्त का ये कैसा फलसफा है
ये किस्मत ही अपनी अलहदा है
पहले भी खाई है न जाने कितनी ठोकरें
आज ये कौन सा पहली दफा है
आजमा ले ऐ जमाने जितना आजमाना है
अपनी तो जिन्दगी जीने की यही अदा है
एक तूं ही नहीं खफा है हमसे
इस जहां में हैं और भी जो हमसे खफा है
मगर मजबूर हूं मै अपनी इस आदत से
बदलना चाहता हूं खुदको पर बदल नहीं पाता
जमाने के हिसाब से कभी मैं ढल नहीं पाता
जरा सा गर बदल जाऊं तो मुश्किल कम भी हो जाये
मगर तकदीर का ये फैसला कैसे बदल जाये
न ये तकदीर बदलेगी और ना मै ही बदलूंगा
है जीने का यही अंदाज ना मै इसको बदलूंगा
लड़ाई है अभी जारी ये यूं ही चलती रहेगी
जीवन की हर इक शाम यूं हीं ढलती रहेगी
है यकिन इस दिल में वो शाम इक दिन जरूर आयेगा
जब ये तकदीर मेरे जिद के आगे हार जायेगा......