"मुक्त काव्य"
दिन से दिन की बात है
किसकी अपनी रात है
बिना मांगे यह कैसी सौगात है
इक दिन वह भी था जब धूप में नहा लिए
आज घने छाए में भी बिन चाहत भीगती रात है
उमसते हैं कसकते हैं और बिदकते हैं
काश, वह दिन होता और वैसे ही जज्बात
फिर न होता यह धधकता दिन
और न होती यह सिसकती रात
पेड़ पौधे भी करते हैं आपस में बात।।
महुआ आम से कहा करती
हर नदी अपने उफान में बहा करती
कौआ, कोयल का कंठ कैसे पाता
काँव काँव करता और उड़ जाता
पेड़ो पर टंगे हैं न जाने कितने दुपट्टे
आखिर कहाँ से आ जाते हैं हट्ठे कट्ठे
बागे वन में कैसी है बिरानियाँ
क्योंकर टूट रहीं हैं बैसाखियाँ
बेहयाई में हो जाती है जीवन की रात
पेड़ पौधे भी आपस मे करते हैं बात।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी