“मुक्तक”
अंग रंग प्रत्यंग कलेवर, शरद ऋतु भरे ढंग फुलेवर।
सुनर वदन प्रिय पाँव महेवर, इत चितवत उत चली छरेहर।
अजब गज़ब नर नारि नगारी, शोभा वरनि न जाय सुखारी-
धानी चुनर पहिन प्रिय सेवर, तापर कनक कलश भरि जेवर॥-१
अवयव खिले महल रनिवासा, गाए झूमर पहिने आशा।
जिह्वा परखे स्वाद बतासा, ढोलक बाजे झूमे तासा।
यदा कदा सुंदर पहुनाई, कभी कभी बजती शहनाई-
किधर गई तूँ मन अभिलाषा, ढूंढन चली नगर विश्वासा॥-२
महातम मिश्र, गौतम गोरखप