मेरे जीवन मे गणाधिपति गुरुदेव आचार्य तुलसी तेरापंथ के नवमाचार्य के प्रथम बार दर्शन राणावास चातुर्मास मे किए ! उसके बाद तो बहुत बार दर्शन का लाभ मिला ! गुरुदेव तुलसी के प्रथम दर्शन मे अपनी दादी शोभाग बाई के साथ हुए थे ! जब मे कक्षा 4 मे पढ़ता था ! राणावास चातुर्मास के समय मेरी दादी जो बड़ी धार्मिक प्रवृति की थी ! प्रतिवर्ष चातुर्मास मे 1 से 2 माह गुरुदेव के दर्शन को जाया करती थी ! आज मुझे वह क्षण याद है जब मे गुरुदेव तुलसी के दर्शन कर चरण स्पर्श को लालायित था ! मेरी दादी ने गुरुदेव को कहा ये मेरा पोता है ! गुरुदेव ने मुस्कराते हुए मेरे सर पर आशीर्वाद रूपी हाथ रखा ! गणाधिपति गुरुदेव आचार्य तुलसी के बारे मे जितना लिखे उतना कम होगा ! संक्षिप्त मे जीवन परिचय से अवदान ——
श्री तुलसी ने राजस्थान के चंदेरी (लाडनूं) शहर में प्रसिद्ध खटेड़ परिवार में सन् 1914 में कार्तिक शुक्ल दूज(2 ) को जन्म लिया। माता वंदनाजी ने आप में ऐसे संस्कारों का बीजरोपण किया कि अल्पवय में ही आपके जीवन में अध्यात्म के अंकुर प्रस्फुटित हो गये। आचार्य तुलसी ने 11 वर्ष की उम्र में भागवती दीक्षा स्वीकार कर जैन आगमों का एवं भारतीय दर्शनों का गहन अध्ययन किया। अपने 11 वर्षीय मुनिकाल में 20 हजार पदों को कंठस्थ कर लेना, 16 वर्ष की उम्र में अध्यापन कौशल में पारंगत हो जाना। 22 वर्ष में तेरापंथ जैसे विशाल धर्म संघ के दायित्व की चादर ओढ़कर 61 वर्षों तक उसे बखूबी से निभाई।
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूरी।
चींटी ले शक्कर चली, हाथी के शिर धूरी॥
कवि की इन पंक्तियों का जीवन दर्शन है आचार्य तुलसी का जीवन। लघुता से प्रभुता के पायदानों का स्पर्श करते हुए चिरंतरन विराटता के उत्तुंग चैत्य शिखर का आरोहण कर गणपति से गणाधिपति गुरुदेव तुलसी के रूप में विख्यात नमन उस गण गौरीशंकर को, जिसने गुरुता का विसर्जन कर.वस्तुतः गुरुता के उस गौरव शिखर का आरोहण कर लिया, जहां पद, मद और कद की समस्त सरहदें सिमटकर लघुता से प्रभुता में विलीन हो गईं। सचमुच कितना महान था वह मस्ताना फकीर। जब नेतृत्व की संपूर्ण क्षमताओं के बावजूद अपने उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ में आचार्य पद संक्रांत कर आचार्य तुलसी ने पद विसर्जन का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया।
आचार्य तुलसी ने अपने जीवनकाल में कई अवदान दिए। चाहे वे अणुव्रत के हों, प्रेक्षाध्यान हों या ज्ञान शाला के। इन सबको अगर अपने जीवन में व्यक्ति अपना ले तो निश्चय ही उसका जीवन सफल है। आचार्य तुलसी ने नैतिक जागरण के लिए काम किया। उन्होंने मानववाद को अपनाया। उन्होंने न सिर्फ तेरापंथ बल्कि समस्त मानव जाति को नए आयाम दिए। 11 का आंकड़ा आचार्य श्री तुलसी के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण रहा। 11 वर्ष की आयु में दीक्षित होकर 22 वर्ष की आयु में वे आचार्य पद पर आसीन हुए। फिर साधु-साध्वी संघ में शिक्षा का स्रोत बनाया। आचार्य महाप्रज्ञ के रूप में उन्हें सहयोगी मिला। बाहर से लेकर अंदर तक का विरोध झेला और शिवशंकर बनकर जहर पीते रहे। आचार्य तुलसी ने भविष्य की नब्ज टटोलते हुए अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया। छोटे कदमों से लम्बे डग भरते हुए निरंतर सकारात्मक सोच के साथ गरीब की झोंपड़ी से राष्ट्रपति भवन तक अपनी बात पहुंचाई। आचार्य ने श्रमण श्रेणी की स्थापना की। आत्म कल्याण से जीव कल्याण की बातें कहीं। श्रमण शक्ति का विकास किया।
नेतिकता के बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता। व्यक्ति धार्मिक है पर नैतिक नहीं, यह विरोधाभास है। आचार्य श्री तुलसी एक महान् संत थे। जिन्होनें अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से राष्ट्रीय चरित्र के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण काम किया। आचार्य श्री तुलसी ने पुरे जीवन में इस बात को स्थापित किया की ” धर्म केवल उपासना की नहीं, यह हमारे आचरण की चीज है।” हमें जागरूकता से धर्म के मर्म को जानना चाहिए। हम जानेंगे तो मानेंगे व तभी इसे हम अंगीकार कर सकेंगे। अणुव्रत के नियमो को स्वीकार करने से व्यक्ति का चरित्र एवं मनोबल उच्च बनता है। अणुव्रत में भ्रष्टाचार व राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान निहित है।
लेख क – उत्तम जैन (विद्रोही )
प्रधान संपादक – विद्रोही आवाज़