_मिच्छत्तं वेदन्तो जीवो विवरिय दंसणो होदि
णय धम्मम रोचेदि तु मुहरं खु रसं जहां जरिदो।।
अर्थात जब जिव मिथ्या परिणामो का वरण करेगा,वह विपरीत श्रद्धान वाला हो जायेगा, जैसे पित्त ज्वर से पीड़ित जिव को मीठा भी अच्छा नहीं लगता,उसी तरह मिथ्या जिवको धर्म रुचिकर नहीं लगता,तात्पर्य है कि जिन्हें धर्म में रूचि है वही धर्मात्मा होते है।*
*धर्मकी आराधना लोभ लालच से ,दुसरो के दबावोसे,कुलपरम्परासे नहीं होती,बल्कि धर्म आत्मकल्यांण की भावना से जन्म लेता है।जब हम सम्यकदर्शन की निर्मल गाथा को समझने का प्रयास करते है,तब हम निंदा शब्दो से अनंत योजन दूर हो जाते है।और फिर निशंकित आठ अंग प्रकट होकर सम्यकदर्शन विशुद्ध होने लगता है.....और यही विशुद्धि संसार सागरसे विराट तीर्थंकर पद की और ले जाने में सक्षम होती है।*
_*आज हम निर्मल सम्यकदर्शनके विशुद्धि के अंतिम सोपान पर है,यहाँ ही हम अपने भव को आगामी सोपान का आकार देगे,अतः निंदा-तमसका विच्छेद कर हम विनयता की और आगे कदम रख पाएंगे*_
*मै जिनकुलसन्यासी हु,और दशांग तथा पूर्वोमें स्थापित विद्यानुवादपूर्व का साधक हु,मेरे पास धनीको का ज्यादा जमावड़ा होता है,चाहे श्मशानमें रहू, वहां भी ढूंढने आते है,यह है तंत्र का प्रभाव,आजका मानव स्वार्थी है,वह अपने लोभपूर्तिमें अपना सबकुछ न्योच्छावर कर देता है मुझपर,स्वाभाविक है यह तब होता है जब कोई चमत्कार उसे दिखाई दे,किन्तु यह सामान्य है मेरे लिए....क्यू की यह मै जानता हूं.... यह सब माया है,और निस्वार्थ मै जिनशासनके लिए ही अपरोक्ष सहायक बना रहता हूं,अतः मेरे सम्यकदर्शनमें मलिनता असम्भव है, लोग कहते है कि सूर्यसागर तांत्रिक है,और ऐसे तांत्रिक बड़े खतरनाक होते है,बड़ी हसि आती है यह सुनकर.... मित्रो तंत्र भी दर्शन का एक अंग है...कैसे ? समझाता हु...*
*तीर्थंकर भगवान के सौंदर्य को अपलक निहार न पाने के कारण सौधर्म अपने नेत्रो को हजारों के भाग में उत्सर्जित करता है,यह एक ज्योतितंत्र है,और इससे सम्यक्त्व दृढ़ ही होता है,न की मलिन....किन्तु जिन्हें कटाक्षोके अतिरिक्त कुछ न सूझे वह मलिन मिथ्यात्वी है...जो स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने औरो को कनिष्ठ समझने लगता है*
*विशुद्धि को पाने हेतु यह भावना आपको निरन्तर भानी होगी की कब इस कारावास से मुक्त हो सकू,कब मोक्षमार्ग मेरा प्रशस्त होगा,सम्यकदृष्टि जिव व्यन्तर-भवन ज्योतिषवासी तथा पञ्चस्थावर में जन्म नहीं लेता,किन्तु इसी सूत्र को लेकर मायासे ग्रासित पंथवादियो ने जिनशासन देवताओको मिथ्या कह दिया,जो की जिनवाणी का अवर्णवाद है,इस पर्याय में जन्म लेने के बाद निमित्तों और जातिस्मरण से सम्यक्त्व प्राप्त होता ही है,जैसे किसी साधू के मृत्यु के बाद उसकी पीछी कमंडल ऊपर किसी पेड़ो पर लटकाया जाता है,ताकि यदि वह मिथ्यापर्याय में उत्पन्न हुआ हो तो जान सके की वह सम्यक्त्व का अधिकारी है,वस्तुतः जो सम्यक्त्व का धारी होता है वह निंदा या कटाक्षो से बचता है।*
*जिनशासन में राजमार्ग और अपवादमार्ग का संघटन है,जहां आपको सकल त्यागी बन मोक्ष पाना है तब आपको धर्मविघटन की चर्चा का ही त्याग कर स्वयं में रमण होना होता है,किन्तु जो साधू होकर भी पंथवाद को बढ़ावा देते है उनकी देवदुर्गति निश्चित है।अतः निर्मल संयकविशुद्धि को पाने का वह अधिकार ही खो देता है,ऐसे साधू पंडित खुद तो निगोद जाए साथ जजमान को ले अवष्य जाए।*
*अयं निज: परो वेत्ति*
*गणनां लघु चेतसांम*
*उदार चारितानां तू*
*वसुधैव कुटुम्बकम*
*अर्थात जिनका हृदय विशाल है,वह सारी पृथ्वी को अपना परिवार मानते है,दर्शनविशुद्धि ऐसे ही जिव की सम्भव है,केवल कर्मसिद्धांत के नौका में सवार होकर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धो को किनारे करना ही घोर मिथ्या है।*
*नरको में सम्यक्दर्शन जातिस्मरण- धर्मश्रवण और वेदना के अनुभव से होता है,यह प्रथम द्वितीय और तृतीय नरक की अपेक्षा है,चतुर्थ से लेकर सप्तम नरक तक जातिस्मरण और वेदना से सम्यक्त्व प्राप्त होता है,क्यू की देवता केवल तीसरे नरक तक ही पहुँच सकते है,आगे उनकी शक्ति का र्हास हो जाता है।*
*नौ ग्रैवियिको में सारे अहर्मिन्द होते है,वहां धर्मचर्चा नहीं होती,किन्तु वहां के इंद्र तत्वों तथा चर्चाओं के प्रति यथार्थ श्रद्धान रखता है तब भी वह सम्यक्त्व को पाता है।*
*अनुदिश तथा अनुत्तर विमानो में देव सम्यक्दर्शन सहित ही उत्पन्न होते है,अतः वह निमित्तों की कल्पना ही नहीं होती।*
*प्रियजनों बस इतना जानता हूं,की सम्यक्त्व की परिभाषा मै क्या लौकांतिक देव भी नहीं कर सकते,और यहां तो हम दर्शनविशुद्धि की चर्चा में रत है,बस लघुभाषा को समझे और जाने की "तत्वार्थश्रद्धानाम सम्यकदर्शनम" और हम इसिपर अमल कर तीर्थनाकरत्व के अधिकारी बने*
*सर्वे भवन्तु सुखिनः*
*सर्वे सन्तु निरामया:*
*सर्वे भद्राणि पश्यन्ति*
*मा कश्चित् दुख मा भवेत*
*आजके इस दर्शनविशुद्धि के मेरे स्वयंके शब्दोंको विराम देता हूं,आगे आपसे मै निर्मल विनयसम्पन्नता भावना के विषय में चर्चा करुगा......सभीको आशीर्वाद*
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*उपसर्ग विजेता आचार्य श्री सूर्यसागरजी गुरुदेव*
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