मैं हूँ बबली..............एक स्त्री...2 भाग-10
प्रवीण धीरे-धीरे मेरी दुनिया बन रहा था। कहने को नहीं हकीकत में।
उसके मम्मी-पापा मेरे पम्मी-पापा, उसका घर मेरा घर, उसकी सम्पत्ति मेरी सम्पत्ति, उसके रिश्तेदार एवं मित्र मेरे सगे सम्बंधी.............बस मैं धागे सी इस चटाई में गुँथती चली जा ही थी। विवाह को छः महीने हो चुके थे। इस समयावधि में केवल दो दिन के लिए गुवाहटी गई थी, वहाँ जो कभी मेरा घर कहलाता था किंतु अब मायका हो गया था। हाँ मायका जिसका आँगन मनोवै ज्ञान िक रूप से ही मुझे प्रवेश के समय ही पराया लगने लगा था।
जिन अधिकारों के लिए बचपन से झगङती आई थी वे आज मम्मी एवं माँ ने सामने लाकर रख दिये थे किंतु अब इन्हें आत्मसात करन झिझक दे रहा था। मसलन आज मुझे मम्मी की वह अलमारी मिली थी जिसमें में सदैव से ही अपनी वस्तुएँ रखना चाहती थी क्योंकि उसकी चाबी मम्मी की कमर से लटकी रहती थी। किंतु मेरी वस्तुओं को कभी उसमें स्थान नहीं मिला था। मुझे वह अलमारी मिलती थी जिसमें रखी वस्तुओं को ताले में रखना जरुरी नहीं समझा जाता या फिर जिनका गायब हो जाना जिंदगी में उठापटक नहीं लाता। बस यह अहसास ही बैगानापन लाने के लिए पर्याप्त था कि मेरी गिणती अब बुआ, छोटी जीजी एवं कमली दी में होने लगी है। किंतु अटेची के वस्त्र ताले वाली अलमारी में कदाचित् असहज थे इसलिए दूसरे ही दिन बँगाई गाँव से प्रवीण मुझे लेने आ गया था। कारण मेरी सास की तबियत खराब होना था। बीस दिन मायके में रुकने के ख्वाब देखती मैं दो ही दिन में लौट गई थी। जाते समय बहुत रोई थी। मम्मी और माँ भी। वे क्यों रो रही थी मैं नहीं जानती किंतु मैं इसलिए रो रही थी क्योंकि कुछ दिन पश्चात फिर आने से मुझे लिवाने भेजना पापा के लिए फिर सिर दर्द बनने वाला था। कमल पाठशाला रहता था। मुझे लिवाने जाने के लिए किसी न किसी के जाने की आवश्यकता था। यह अलग बात थी कि प्रवीण प्रति महीने अपने व्यवसाय के कार्य से गुवाहटी जाता ही था। किंतु उसके संग में नहीं जा सकती थी। नई दुल्हन को लेने के लिए शुरुआत के कुछ वर्ष मायके से भाई का आना अनिवार्य होता है। कमल को पाठशाला से बुलाकर इस काम के लिए नियुक्त करना पङा था। मुझे इस औपचारिकता के मतलब समझ में नहीं आए थे। किंतु कुछ कहना.......खतरे की बङी घंटी थी। घर में केवल लङकियाँ पैदा होने पर मातम होने का कदाचित् एक कारण यह भी रहता होगा कि भाई के अभाव में बेटियों को ससुराल से विदा करवाकर कौन लायेगा।
मैं प्रवीण से भी नहीं कह सकती थी क्योंकि उसके पास भी जबाब नहीं था। वह तो स्वयं विवाहित होने के पश्चात अपने ही घर में मौन हो गया था। इसका कारण भी बङा नहीं था। बिल्कुल छोटा सा था। एक दिन प्रवीण के एक परिचित ने मुझे मम्मीजी (सासु माँ जिन्हें मैं हमेशा मम्मी ही कहना चाहती थी किंतु अप्रत्यक्ष रूप से सम्बोधनों में बहु द्वारा जी लगाने को सभ्यता का नाम देकर उन्होंने अपने सम्बोधन के साथ एक अतिरिक्त अक्षर जुङवा लिया था) के साथ मंदिर से लौटते समय देख लिया था।असम जहाँ यहाँ की स्थानीय औरतें घूंघट की परिभाषा ही नहीं जानती वहाँ मेरी नाक तक सरके आँचल एवं पृथ्वी में धँसी नजरों को देख उसने प्रवीण का उपहास उङाते हुए कहा था-
“अपनी पत्नी को कौनसे गाँव से उठाकर लाया है। गँवार लग रही थी सङक पर चलते हुए।” बस प्रवीण घर आकर बिफर गया था। किंतु उससे भी अधिक मम्मीजी बिफर गई थी-
“मैं जानती हूँ नई बहु को कैसे रहना चाहिए। हमारी बिरादरी में घूंघट कोई तेरी पत्नी ने ही तो विशेष रूप से निकाला नहीं है। तू तो ऐसे बिफर रहा है मानो मैं तेरी पत्नी को शारीरिक और मानसिक कष्ट दे रही हूँ। हम तो गले तक घूंघट रखते थे। कभी तेरे पापा ने तेरी दादी के सामने जुबान नहीं खोली। और तू है कि दो ही दिन में पत्नी का होकर रह गया। तुझे पाल पोसकर इतना बङा मैंने किया है और आज तू मुझे सीखायेगा कि मुझे तेरी पत्नी को कैसे बाहर लेकर जाना चाहिए।”
उफ इन तेरी पत्नी रुपी दो शब्दों ने उस दिन मन को घायल कर दिया था। प्रवीण बाहर मम्मी की नसीहत लेकर आया था और भीतर मैं उस पर मानो टूट ही पङी थी-
“आपको क्या आवश्यकता थी यूँ मम्मी से बात करने की?”
वह बाहर माफी माँगकर आया था मुझसे भी उसने माफी माँग ली थी। साथ में रीति-रिवाजों और ढकोसलों के नाम पर होने वाली ज्यादतियों के लिए भी आँख मूंद ली थी। क्योंकि जानता था जो हो रहा है वह मुझे तकलीफ पहुँचाने के लिए नहीं हो रहा है बल्कि इसलिए हो रहा है कि मम्मी समाज के सामने गर्दन ऊँची करके कह सके-
“देखिये जमाना भले कितना ही बदल गया हो किंतु आज भी मैं मेरी बहु को उसी तरह रख रही हूँ जैसे आज के दस वर्ष पहले की बहुएँ रहा करती थी।” किंतु प्रवीण का एक दिन मेरे पक्ष में बोलना प्रतिदिन मेरे कानों के लिए नये कटाक्ष की खुराक दे गया- “तुमने पता नहीं क्या घोंटकर प्रवीण को पिलाया है जो कभी मेरे सामने नजर उठाकर बात नहीं करता था अब मेरे फैसलों पर सवाल उठाने लगा है।” मुझे तो चुपचाप सुनना ही था। क्योंकि माँ एवं मम्मी ने विदाई के पहले एक बार नहीं दस बार कहा था- “ससुराल में कोई कुछ भी कहे सब चुपचाप सुन लेना। अच्छा हो या बुरा। चलते समय, उठते समय, बोलते समय, खाते समय अपनी हर एक क्रिया पर ध्यान देना क्योंकि नई बहु का हर एक क्रिया कलाप कई आँखों के एक्सरे से होकर गुजरता है। एक बार जो छवि बन जायेगी वह जिंदगी भर के लिए रहेगी। इसलिए शुरुआत में कुछ महीने सास जमीन को आसमान भी बोल दे तो स्वीकार कर लेना।”
प्रवीण तो अपना बेटा था। उसके मेरे पक्ष में बोलने पर ही हर एक बात में उसका मुझको सिर पर बैठाना और माँ को सिर माथे पर बैठाने वाले बेटे द्वारा पत्नी के लिए माँ का अपमान कर देने का किस्सा घर की चहारदीवारी में, विशेष रुप से मेरे समक्ष मुख्य समाचार के रूप में प्रतिदिन प्रसारित होने लगा था। मैं अगर ऐसा कुछ कर देती तो कदाचित् यह खबर पूरी समाज एवं एवं धीरे-धीरे रिश्तेदारों के बीच मुख्य समाचार के रूप में प्रसारित होने लगती। इसलिए मेरा मौन को पहनना, ओढना, खाना एवं पीना अति आवश्यक था.................प्रवीण अब हमीमून पर जाने का कार्यक्रम बना रहा था..............
उसके मम्मी-पापा मेरे पम्मी-पापा, उसका घर मेरा घर, उसकी सम्पत्ति मेरी सम्पत्ति, उसके रिश्तेदार एवं मित्र मेरे सगे सम्बंधी.............बस मैं धागे सी इस चटाई में गुँथती चली जा ही थी। विवाह को छः महीने हो चुके थे। इस समयावधि में केवल दो दिन के लिए गुवाहटी गई थी, वहाँ जो कभी मेरा घर कहलाता था किंतु अब मायका हो गया था। हाँ मायका जिसका आँगन मनोवै ज्ञान िक रूप से ही मुझे प्रवेश के समय ही पराया लगने लगा था।
जिन अधिकारों के लिए बचपन से झगङती आई थी वे आज मम्मी एवं माँ ने सामने लाकर रख दिये थे किंतु अब इन्हें आत्मसात करन झिझक दे रहा था। मसलन आज मुझे मम्मी की वह अलमारी मिली थी जिसमें में सदैव से ही अपनी वस्तुएँ रखना चाहती थी क्योंकि उसकी चाबी मम्मी की कमर से लटकी रहती थी। किंतु मेरी वस्तुओं को कभी उसमें स्थान नहीं मिला था। मुझे वह अलमारी मिलती थी जिसमें रखी वस्तुओं को ताले में रखना जरुरी नहीं समझा जाता या फिर जिनका गायब हो जाना जिंदगी में उठापटक नहीं लाता। बस यह अहसास ही बैगानापन लाने के लिए पर्याप्त था कि मेरी गिणती अब बुआ, छोटी जीजी एवं कमली दी में होने लगी है। किंतु अटेची के वस्त्र ताले वाली अलमारी में कदाचित् असहज थे इसलिए दूसरे ही दिन बँगाई गाँव से प्रवीण मुझे लेने आ गया था। कारण मेरी सास की तबियत खराब होना था। बीस दिन मायके में रुकने के ख्वाब देखती मैं दो ही दिन में लौट गई थी। जाते समय बहुत रोई थी। मम्मी और माँ भी। वे क्यों रो रही थी मैं नहीं जानती किंतु मैं इसलिए रो रही थी क्योंकि कुछ दिन पश्चात फिर आने से मुझे लिवाने भेजना पापा के लिए फिर सिर दर्द बनने वाला था। कमल पाठशाला रहता था। मुझे लिवाने जाने के लिए किसी न किसी के जाने की आवश्यकता था। यह अलग बात थी कि प्रवीण प्रति महीने अपने व्यवसाय के कार्य से गुवाहटी जाता ही था। किंतु उसके संग में नहीं जा सकती थी। नई दुल्हन को लेने के लिए शुरुआत के कुछ वर्ष मायके से भाई का आना अनिवार्य होता है। कमल को पाठशाला से बुलाकर इस काम के लिए नियुक्त करना पङा था। मुझे इस औपचारिकता के मतलब समझ में नहीं आए थे। किंतु कुछ कहना.......खतरे की बङी घंटी थी। घर में केवल लङकियाँ पैदा होने पर मातम होने का कदाचित् एक कारण यह भी रहता होगा कि भाई के अभाव में बेटियों को ससुराल से विदा करवाकर कौन लायेगा।
मैं प्रवीण से भी नहीं कह सकती थी क्योंकि उसके पास भी जबाब नहीं था। वह तो स्वयं विवाहित होने के पश्चात अपने ही घर में मौन हो गया था। इसका कारण भी बङा नहीं था। बिल्कुल छोटा सा था। एक दिन प्रवीण के एक परिचित ने मुझे मम्मीजी (सासु माँ जिन्हें मैं हमेशा मम्मी ही कहना चाहती थी किंतु अप्रत्यक्ष रूप से सम्बोधनों में बहु द्वारा जी लगाने को सभ्यता का नाम देकर उन्होंने अपने सम्बोधन के साथ एक अतिरिक्त अक्षर जुङवा लिया था) के साथ मंदिर से लौटते समय देख लिया था।असम जहाँ यहाँ की स्थानीय औरतें घूंघट की परिभाषा ही नहीं जानती वहाँ मेरी नाक तक सरके आँचल एवं पृथ्वी में धँसी नजरों को देख उसने प्रवीण का उपहास उङाते हुए कहा था-
“अपनी पत्नी को कौनसे गाँव से उठाकर लाया है। गँवार लग रही थी सङक पर चलते हुए।” बस प्रवीण घर आकर बिफर गया था। किंतु उससे भी अधिक मम्मीजी बिफर गई थी-
“मैं जानती हूँ नई बहु को कैसे रहना चाहिए। हमारी बिरादरी में घूंघट कोई तेरी पत्नी ने ही तो विशेष रूप से निकाला नहीं है। तू तो ऐसे बिफर रहा है मानो मैं तेरी पत्नी को शारीरिक और मानसिक कष्ट दे रही हूँ। हम तो गले तक घूंघट रखते थे। कभी तेरे पापा ने तेरी दादी के सामने जुबान नहीं खोली। और तू है कि दो ही दिन में पत्नी का होकर रह गया। तुझे पाल पोसकर इतना बङा मैंने किया है और आज तू मुझे सीखायेगा कि मुझे तेरी पत्नी को कैसे बाहर लेकर जाना चाहिए।”
उफ इन तेरी पत्नी रुपी दो शब्दों ने उस दिन मन को घायल कर दिया था। प्रवीण बाहर मम्मी की नसीहत लेकर आया था और भीतर मैं उस पर मानो टूट ही पङी थी-
“आपको क्या आवश्यकता थी यूँ मम्मी से बात करने की?”
वह बाहर माफी माँगकर आया था मुझसे भी उसने माफी माँग ली थी। साथ में रीति-रिवाजों और ढकोसलों के नाम पर होने वाली ज्यादतियों के लिए भी आँख मूंद ली थी। क्योंकि जानता था जो हो रहा है वह मुझे तकलीफ पहुँचाने के लिए नहीं हो रहा है बल्कि इसलिए हो रहा है कि मम्मी समाज के सामने गर्दन ऊँची करके कह सके-
“देखिये जमाना भले कितना ही बदल गया हो किंतु आज भी मैं मेरी बहु को उसी तरह रख रही हूँ जैसे आज के दस वर्ष पहले की बहुएँ रहा करती थी।” किंतु प्रवीण का एक दिन मेरे पक्ष में बोलना प्रतिदिन मेरे कानों के लिए नये कटाक्ष की खुराक दे गया- “तुमने पता नहीं क्या घोंटकर प्रवीण को पिलाया है जो कभी मेरे सामने नजर उठाकर बात नहीं करता था अब मेरे फैसलों पर सवाल उठाने लगा है।” मुझे तो चुपचाप सुनना ही था। क्योंकि माँ एवं मम्मी ने विदाई के पहले एक बार नहीं दस बार कहा था- “ससुराल में कोई कुछ भी कहे सब चुपचाप सुन लेना। अच्छा हो या बुरा। चलते समय, उठते समय, बोलते समय, खाते समय अपनी हर एक क्रिया पर ध्यान देना क्योंकि नई बहु का हर एक क्रिया कलाप कई आँखों के एक्सरे से होकर गुजरता है। एक बार जो छवि बन जायेगी वह जिंदगी भर के लिए रहेगी। इसलिए शुरुआत में कुछ महीने सास जमीन को आसमान भी बोल दे तो स्वीकार कर लेना।”
प्रवीण तो अपना बेटा था। उसके मेरे पक्ष में बोलने पर ही हर एक बात में उसका मुझको सिर पर बैठाना और माँ को सिर माथे पर बैठाने वाले बेटे द्वारा पत्नी के लिए माँ का अपमान कर देने का किस्सा घर की चहारदीवारी में, विशेष रुप से मेरे समक्ष मुख्य समाचार के रूप में प्रतिदिन प्रसारित होने लगा था। मैं अगर ऐसा कुछ कर देती तो कदाचित् यह खबर पूरी समाज एवं एवं धीरे-धीरे रिश्तेदारों के बीच मुख्य समाचार के रूप में प्रसारित होने लगती। इसलिए मेरा मौन को पहनना, ओढना, खाना एवं पीना अति आवश्यक था.................प्रवीण अब हमीमून पर जाने का कार्यक्रम बना रहा था..............