शहरो की धूल भरी सड़कें
जब भी देखती हूं,
पहाड़ व गांव याद आते हैं
जहां पेड़ों के नीचे,
सुकून से बैठे होते हैं लोग
बिना पंखों व एसी के
जहां की सुबह होती है शुरू
चिड़ियों की चहचाहट से,
जहां नदियों का जल
बहता है कल कल छल छल
जहां पैर डालकर नदियों से
बतियाते, नहाते हैं लोग
आज हम गर्मियों में
वही सुकून ढूंढने
वही शांति पाने के लिए,
पहाड़ -पहाड़ , गांवों में,
घूम रहे हैं पर वहां भी
गंदगी फैला कर पर्यावरण ,
प्रदूषित कर रहे हैं।
हे मानव !नादान
कब तू समझेगा
प्रकृति का एहसान।
प्रकृति का सानिध्य ही तुझे,
देवत्व तक पहुंचाएगा।
प्रकृति का विरोध तो
तुझ पर कहर बरसायेगा।
हे मानव !तू संकल्प ले,
नए युग को बसाने का
पेड़ पौधे लगाने का,
विश्व को हरा भरा बनाने का।
तब प्रकृति के प्रेम में
प्रकृति के सानिध्य में
तेरी जिंदगी संवर जाएगी
पूरे विश्व में नई क्रांति आएगी।
(© ज्योति)