विधान~ [ नगण भगण जगण जगण जगण गुरु] (१११ २११ १२१ १२१ १२१ २) १६वर्ण
४ चरण, ४, 12 पर यति, दो-दो चरण समतुकांत
"मंगलमंगना छंद"
अब चले उठ कहाँ सहमे पथ आप के
मथ रहे मन कहीं रुकते पग आप के
चल पड़े जिस गली लगती वह साँकरी
पढ़ रहे तुम जिसे लगते खत बाहरी।।
मत कहो फिर चलें अपने रुख ऑधियाँ
तक रहीं दिल लिए जखमें जल बाँदियाँ
उठ रहे बुलबुले कहना कुछ चाहते
हम जिसे जलजला उठना कब मानते।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी