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रंगभूमि अध्याय 13

4 फरवरी 2022

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विनयसिंह के जाने के बाद सोफ़िया को ऐसा प्रतीत होने लगा कि रानी जाह्नवी मुझसे खिंची हुई हैं। वह अब उसे पुस्तकें तथा पत्र पढ़ने या चिट्ठियाँ लिखने के लिए बहुत कम बुलातीं; उसके आचार-व्यवहार को संदिग्ध दृष्टि से देखतीं। यद्यपि अपनी बदगुमानी को वह यथासाधय प्रकट न होने देतीं, पर सोफी को ऐसा खयाल होता कि मुझ पर अविश्वास किया जा रहा है। वह जब कभी बाग में सैर करने चली जाती या कहीं घूमने निकल जाती, तो लौटने पर उसे ऐसा मालूम होता कि मेरी किताबें उलट-पलट दी गई हैं। वह बदगुमानी उस वक्त और असह्य हो जाती, जब डाकिए के आने पर रानीजी स्वयं उसके हाथ से पत्र आदि लेतीं और बड़े धयान से देखतीं कि सोफ़िया का कोई पत्र तो नहीं है। कई बार सोफ़िया को अपने पत्रों के लिफाफे फटे हुए मिले। वह इस कूटनीति का रहस्य खूब समझती थी। यह रोक-थाम केवल इसलिए है कि मेरे और विनयसिंह के बीच में पत्र-व्यवहार न होने पाए। पहले रानीजी सोफ़िया से विनय और इंदु की चर्चा अकसर किया करतीं। अब भूलकर भी विनय का नाम न लेतीं। यह प्रेम की पहली परीक्षा थी।
किंतु आश्चर्य यह था कि सोफ़िया में अब वह आत्माभिमान न था। जो नाक पर मक्खी न बैठने देती थी, वह अब अत्यंत सहनशील हो गई थी। रानीजी से द्वेष करने के बदले वह उनकी संशय-निवृत्ति के लिए अवसर खोजा करती थी। उसे रानीजी का बर्ताव सर्वथा न्यायसंगत मालूम होता था। वह सोचती-इनकी परम अभिलाषा है कि विनय का जीवन आदर्श हो और मैं उनके आत्मसंयम में बाधक न बनूँ। मैं इन्हें कैसे समझाऊँ कि आपकी अभिलाषा को मेरे हाथों जरा-सा भी झोंका न लगेगा। मैं तो स्वयं अपना जीवन एक ऐसे उद्देश्य पर समर्पित कर चुकी हूँ, जिसके लिए वह काफी नहीं। मैं स्वयं किसी इच्छा को अपने उद्देश्य मार्ग का काँटा न बनाऊँगी। लेकिन उसे यह अवसर न मिलता था। जो बातें जबान पर नहीं आ सकतीं, उनके लिए कभी अवसर नहीं मिलता।
सोफी को बहुधा अपने मन की चंचलता पर खेद होता। वह मन को इधर से हटाने के लिए पुस्तकावलोकन में मग्न हो जाना चाहती;लेकिन जब पुस्तक सामने खुली रहती और मन कहीं और जा पहुँचता, तो वह झुँझलाकर पुस्तक बंद कर देती और सोचती-यह मेरी क्या दशा है! क्या माया यह कपट-रूप धारण करके मुझे सन्मार्ग से विचलित करना चाहती है? मैं जानकर क्यों अनजान बनी जाती हूँ? अब प्रतिज्ञा करती हूँ कि मैं इस काँटे को हृदय से निकाल डालूँगी।
लेकिन प्रेम-ग्रस्त प्राणियों की प्रतिज्ञा कायर की समर-लालसा है, जो द्वंद्वी की ललकार सुनते ही विलुप्त हो जाती है। सोफ़िया विनय को तो भूल जाना चाहती थी; पर इसके साथ ही शंकित रहती थी कि कहीं वह मुझे भूल न जाएँ। जब कई दिनों तक उनका कोई समाचार नहीं मिला,तो उसने समझा-मुझे भूल गए, जरूर भूल गए। मुझे उनका पता मालूम होता, तो कदाचित् रोज एक पत्र लिखती, दिन में कई-कई पत्र भेजती;पर उन्हें एक पत्र लिखने का भी अवकाश नहीं! वह मुझे भूल जाने का उद्योग कर रहे हैं। अच्छा ही है। वह एक क्रिश्चियन स्त्री से क्यों प्रेम करने लगे? उनके लिए क्या एक-से-एक परम सुंदरी, सुशिक्षिता, प्रेमपरायण राजकुमारियाँ नहीं हैं?
एक दिन इन भावनाओं ने उसे इतना व्याकुल किया कि वह रानी के कमरे में जाकर विनय के पत्रों को पढ़ने लगी और एक क्षण में जितने पत्र मिले, सब पढ़ डाले। देखूँ, मेरी ओर कोई संकेत है या नहीं; कोई वाक्य ऐसा है, जिसमें से प्रेम की सुगंध आए? किंतु ऐसा शब्द एक भी न मिला, जिससे वह खींच-तानकर भी कोई गुप्त आशय निकाल सकती। हाँ, उस पहाड़ी देश में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, उनका विस्तार से उल्लेख किया गया था। युवावस्था को अतिशयोक्ति से प्रेम है। हम बाधाओं पर विजय पाकर नहीं, उनकी विशद व्याख्या करके अपना महत्व बढ़ाना चाहते हैं। अगर सामान्य ज्वर है, तो वह सन्निपात कहा जाता है। एक दिन पहाड़ों में चलना पड़ा, तो वह नित्य पहाड़ों से सिर टकराना कहा जाता है। विनयसिंह के पत्र ऐसी ही वीर-कथाओं से भरे हुए थे सोफ़िया यह हाल पढ़कर विकल हो गई। वह इतनी विपत्ति झेल रहे हैं, और मैं यहाँ आराम से पड़ी हूँ! वह इसी उद्वेग में अपने कमरे में आई और विनय को एक लम्बा पत्र लिखा,जिसका एक-एक शब्द प्रेम में डूबा हुआ था। अंत में उसने बड़े प्रेम-विनीत शब्दों में प्रार्थना की कि मुझे अपने पास आने की आज्ञा दीजिए, मैं अब यहाँ नहीं रह सकती। उसकी शैली अज्ञात रूप से कवित्वमय हो गई। पत्र समाप्त करके वह उसी वक्त पास ही के लेटरबक्स में डाल आई।

पत्र डाल आने के बाद जब उसका उद्वेग शांत हुआ तो, उसे विचार आया कि मेरा रानीजी के कमरे में छिपकर जाना और पत्रों को पढ़ना किसी तरह उचित न था। वह सारे दिन इसी चिंता में पड़ी रही। बार-बार अपने को धिक्‍कारती ईश्वर! मैं कितनी अभागिनी हूँ! मैंने अपना जीवन सच्चे धर्म की जिज्ञासा पर अर्पण कर दिया था, बरसों से सत्य की मीमांसा में रत हूँ; पर वासना की पहली ही ठोकर में नीचे गिर पड़ी। मैं क्यों इतनी दुर्बल हो गई हूँ? क्या मेरा पवित्र उद्देश्य वासनाओं के भँवर में पड़कर डूब जाएगा? मेरी आदत इतनी बुरी हो जाएगी कि मैं किसी की वस्तुओं की चोरी करूँगी, इसकी मैंने कभी कल्पना भी न की थी। जिनका मुझ पर इतना विश्वास, इतना भरोसा, इतना प्रेम,इतना आदर है, उन्हीं के साथ मेरा यह विश्वासघात! अगर अभी यह दशा है, तो भगवान् ही जाने, आगे चलकर क्या दशा होगी। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि जीवन का अंत हो जाए! आह् वह पत्र, जो मैं अभी छोड़ आई हूँ, वापस मिल जाता, तो मैं फाड़ डालती।
वह इसी चिंता और ग्लानि में बैठी हुई थी कि रानीजी कमरे में आईं। सोफ़िया उठ खड़ी हुई और अपनी आँखें छिपाने के लिए जमीन की ओर ताकने लगी। किंतु आँसू पी जाना आसान नहीं है। रानी ने कठोर स्वर में पूछा-सोफी, क्यों रोती है?
जब हम अपनी भूल पर लज्जित होते हैं, तो यथार्थ बात आप-ही-आप हमारे मुँह से निकल पड़ती है। सोफी हिचकती हुई बोली-जी, कुछ नहीं...मुझसे एक अपराध हो गया है, आपसे क्षमा माँगती हूँ।
रानी ने और भी तीव्र स्वर में पूछा-क्या बात है?
सोफी-आज जब आप सैर करने गई थीं, तो मैं आपके कमरे में चली गई थी।
रानी-क्या काम था?
सोफी लज्जा से आरक्त होकर बोली-मैंने आपकी कोई चीज नहीं छुई।
रानी-मैं तुम्हें इतना नीच नहीं समझती।
सोफी-एक पत्र देखना था।
रानी-विनयसिंह का?
सोफ़िया ने सिर झुका लिया। वह अपनी दृष्टि में स्वयं इतनी पतित हो गई थी कि जी चाहता था, जमीन फट जाती और मैं उसमें समा जाती। रानी ने तिरस्कार के भाव से कहा-सोफी, तुम मुझे कृतघ्न समझोगी, मगर मैंने तुम्हें अपने घर में रखकर बड़ी भूल की। ऐसी भूल मैंने कभी न की थी। मैं न जानती थी कि तुम आस्तीन का साँप बनोगी। इससे बहुत अच्छा होता कि विनय उसी दिन आग में जल गया होता। तब मुझे इतना दु:ख न होता। मैं तुम्हारे आचरण को पहले न समझी। मेरी आँखों पर परदा पड़ा था। तुम जानती हो, मैंने क्यों विनय को इतनी जल्द यहाँ से भगा दिया? तुम्हारे कारण, तुम्हारे प्रेमाघातों से बचाने के लिए लेकिन अब भी तुम भाग्य की भाँति उसका दामन नहीं छोड़तीं। आखिर तुम उससे क्या चाहती हो? तुम्हें मालूम है, तुमसे उसका विवाह नहीं हो सकता। अगर मैं हैसियत और कुल-मर्यादा का विचार न करूँ, तो भी तुम्हारे और हमारे बीच में धर्म की दीवार खड़ी है। इस प्रेम का फल इसके सिवा और क्या होगा कि तुम अपने साथ उसे भी ले डूबोगी और मेरी चिर संचित अभिलाषाओं को मिट्टी में मिला दोगी? मैं विनय को ऐसा मनुष्य बनाना चाहती हूँ, जिस पर समाज को गर्व हो, जिसके हृदय में अनुराग हो, साहस हो, धैर्य हो, जो संकटों के सामने मुँह न मोड़े, जो सेवा के हेतु सदैव सिर को हथेली पर लिए रहे,जिसमें विलासिता का लेश भी न हो, जो धर्म पर अपने को मिटा दे। मैं उसे सपूत बेटा, निश्छल मित्र और नि:स्वार्थ सेवक बनाना चाहती हूँ। मुझे उसके विवाह की लालसा नहीं, अपने पोतों को गोद में खेलाने की अभिलाषा नहीं। देश में आत्मसेवी पुरुषों और संतान-सेवी माताओं का अभाव नहीं है। धरती उनके बोझ से दबी जाती है। मैं अपने बेटे को सच्चा राजपूत बनाना चाहती हूँ। आज वह किसी की रक्षा के निमित्त अपने प्राण दे दे, तो मुझसे अधिक भाग्यवती माता संसार में न होगी। तुम मेरे इस स्वर्ण-स्वप्न को विच्छिन्न कर रही हो। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ सोफी, अगर तुम्हारे उपकार के बोझ से दबी न होती, तो तुम्हें इस दशा में विष देकर मार्ग से हटा देना अपना कर्तव्‍य समझती। मैं राजपूतनी हूँ, मरना भी जानती हूँ और मारना भी जानती हूँ। इसके पहले कि तुम्हें विनय से पत्र-व्यवहार करते देखूँ, मैं तुम्हारा गला घोंट दूँगी। तुमसे भिक्षा माँगती हूँ, विनय को अपने प्रेम-पाश में फँसाने की चेष्टा न करो, नहीं तो इसका फल बुरा होगा। तुम्हें ईश्वर ने बुध्दि दी है,विवेक दिया है। विवेक से काम लो। मेरे कुल का सर्वनाश न करो।
सोफी ने रोते हुए कहा-मुझे आज्ञा दीजिए, आज चली जाऊँ।
रानी कुछ नर्म होकर बोलीं-मैं तुम्हें जाने को नहीं कहती। तुम मेरे सिर और आँखों पर रहो, (लज्जित होकर) मेरे मुँह से इस समय जो कटु शब्द निकले हैं, उनके लिए क्षमा करो। वृध्दावस्था बड़ी अविनयशील होती है। यह तुम्हारा घर है। शौक से रहो। विनय अब शायद फिर न आएगा। हाँ, वह शेर का सामना कर सकता है; पर मेरे क्रोध का सामना नहीं कर सकता। वह वन-वन की पत्तियाँ तोड़ेगा, पर घर न आएगा। अगर तुम्हें उससे प्रेम है, तो अपने को उसके हित के लिए बलिदान करने को तैयार हो जाओ। अब उसकी जीवन-रक्षा का केवल एक ही उपाय है। जानती हो, वह क्या है?
सोफी ने सिर हिलाकर कहा-नहीं।
रानी-जानना चाहती हो?
सोफी ने सिर हिलाकर कहा-हाँ।
रानी-आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो?
सोफी ने फिर सिर हिलाकर कहा-हाँ।
रानी-तो तुम किसी सुयोग्य पुरुष से विवाह कर लो। विनय को दिखा दो कि तुम उसे भूल गईं, तुम्हें उसकी चिंता नहीं है। यही नैराश्य उसको बचा सकता है। हो सकता है कि यह नैराश्य उसे जीवन से विरक्त कर दे, वह ज्ञान-लाभ का आश्रय ले, जो नैराश्य का एकमात्र शरणस्थल है, पर सम्भावना होने पर भी इस उपाय के सिवा दूसरा अवलम्ब नहीं है। स्वीकार करती हो?
सोफी रानी के पैरों पर गिर पड़ी और रोती हुई बोली-उनके हित के लिए...कर सकती हूँ।
रानी ने सोफी को उठाकर गले लगा लिया और करुण स्वर में बोलीं-मैं जानती हूँ, तुम उसके लिए सब कुछ कर सकती हो। ईश्वर तुम्हें इस प्रतिज्ञा को पूरा करने का बल प्रदान करें।
यह कहकर जाह्नवी वहाँ से चली गईं। सोफी एक कोच पर बैठ गई और दोनों हाथों से मुँह छिपाकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसका रोम-रोम ग्लानि से पीड़ित हो रहा था। उसे जाह्नवी पर क्रोध न था। उसे उन पर असीम श्रध्दा हो रही थी। कितना उच्च और पवित्र उद्देश्य है! वास्तव में मैं ही दूध की मक्खी हूँ, मुझको निकल जाना चाहिए। लेकिन रानी का अंतिम आदेश उसके लिए सबसे कड़घवा ग्रास था। वह योगिनी बन सकती थी; पर प्रेम को कलंकित करने की कल्पना ही से घृणा होती थी। उसकी दशा उस रोगी की-सी थी, जो किसी बाग में सैर करने जाए और फल तोड़ने के अपराध में पकड़ लिया जाए। विनय के त्याग ने उसे उनका भक्त बना दिया। भक्ति ने शीघ्र ही प्रेम का रूप धारण किया और वही प्रेम उसे बलात् नारकीय अंधकार की ओर खींचे लिए जाता था। अगर वह हाथ-पैर छुड़ाती है, तो भय है-वह इसके आगे कुछ न सोच सकी। विचार-शक्ति शिथिल हो गई। अंत में सारी चिंताएँ, सारी ग्लानि, सारा नैराश्य, सारी विडम्बना एक ठंडी साँस में विलीन हो गई।
शाम हो गई थी। सोफ़िया मन-मारे उदास बैठी बाग की तरफ टकटकी लगाए ताक रही थी, मानो कोई विधवा पति-शोक में मग्न हो। सहसा प्रभु सेवक ने कमरे में प्रवेश किया।
सोफ़िया ने प्रभु सेवक से कोई बात नहीं की। चुपचाप अपनी जगह मूर्तिवत् बैठी रही। वह उस दशा को पहुँच गई थी, जब सहानुभूति से भी अरुचि हो जाती है। नैराश्य की अंतिम अवस्था विरक्ति होती है।
लेकिन प्रभु सेवक अपनी नई रचना सुनाने के लिए इतने उत्सुक हो रहे थे कि सोफी के चेहरे की ओर उनका धयान ही न गया। आते-ही-आते बोले-सोफी, देखो, मैंने आज रात को यह कविता लिखी है। जरा धयान देकर सुनना। मैंने अभी कुँवर साहब को सुनाई है। उन्हें बहुत आनंद आई।
यह कहकर प्रभु सेवक ने मधुर स्वर में अपनी कविता सुनानी शुरू की। कवि ने मृत्युलोक के एक दु:खी प्राणी के हृदय के भाव व्यक्त किए थे, जो तारागण को देखकर उठे। वह एक-एक चरण झूम-झूमकर पढ़ते थे और दो-दो, तीन-तीन बार दुहराते थे; किंतु सोफ़िया ने एक बार भी दाद न दी, मानो वह काव्य-रस-शून्य हो गई थी। जब पूरी कविता समाप्त हो गई, तो प्रभु सेवक ने पूछा-इसके विषय में तुम्हारा क्या विचार है?
सोफ़िया ने कहा-अच्छी तो है।
प्रभु सेवक-मेरी सूक्तियों पर तुमने धयान नहीं दिया। तारागण की आज तक किसी कवि ने देवात्माओं से उपमा नहीं दी है। मुझे तो विश्वास है कि इस कविता के प्रकाशित होते ही कवि-समाज में हलचल मच जाएगी।
सोफ़िया-मुझे तो याद आता है कि शेली और वर्ड्सवर्थ इस उपमा को पहले ही बाँध चुके हैं। यहाँ के कवियों ने भी कुछ ऐसा ही वर्णन किया है। कदाचित् ह्यूगो की एक कविता का शीर्षक भी यही है। सम्भव है, तुम्हारी कल्पना उन कवियों से लड़ गई हो।
प्रभु सेवक-मैंने काव्य-साहित्य तुमसे बहुत ज्यादा देखा है; पर मुझे कहीं यह उपमा नहीं दिखाई दी।
सोफ़िया-खैर, हो सकता है, मुझी को याद न होगा। कविता बुरी नहीं है।
प्रभु सेवक-अगर कोई दूसरा कवि यह चमत्कार दिखा दे, तो उसकी गुलामी करूँ।
सोफ़िया-तो मैं कहूँगी, तुम्हारी निगाह में अपनी स्वाधीनता का मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है।
प्रभु सेवक-तो मैं भी यही कहूँगा कि कवित्व के रसास्वादन के लिए अभी तुम्हें बहुत अभ्यास करने की जरूरत है।
सोफ़िया-मुझे अपने जीवन में इससे अधिक महत्व के काम करने हैं। आजकल घर के क्या समाचार हैं?
प्रभु सेवक-वही पुरानी दशा चली आती है। मैं तो आजिज आ गया हूँ। पापा को अपने कारखाने की धुन लगी हुई है, और मुझे उस काम से घृणा है। पापा और मामा, दोनों हरदम भुनभुनाते रहते हैं। किसी का मुँह ही नहीं सीधा होता। कहीं ठिकाना नहीं मिलता, नहीं तो इस माया के घोंसले में एक दिन भी न रहता। कहाँ जाऊँ, कुछ समझ में नहीं आता।
सोफ़िया-बड़े आश्चर्य की बात है कि इतने गुणी और विद्वान् होकर भी तुम्हें अपने निर्वाह का कोई उपाय नहीं सूझता। क्या कल्पना के संसार में आत्मसम्मान का कोई स्थान नहीं है?
प्रभु सेवक-सोफी, मैं और सब कुछ कर सकता हूँ, पर गृह-चिंता का बोझ नहीं उठा सकता। मैं निर्द्वंद्व, निश्चिंत, निर्लिप्त रहना चाहता हूँ। एक सुरम्य उपवन में, किसी सघन वृक्ष के नीचे, पक्षियों का मधुर कलरव सुनता हुआ काव्य-चिंतन में मग्न पड़ा रहूँ, यही मेरे जीवन का आदर्श है।
सोफ़िया-तुम्हारी जिंदगी इसी भाँति स्वप्न देखने में गुजरेगी।
प्रभु सेवक-कुछ हो, चिंता से तो मुक्त हूँ, स्वच्छंद तो हूँ!
सोफ़िया-जहाँ आत्मा और सिध्दांतों की हत्या होती हो, वहाँ से स्वच्छंदता कोसों भागती है। मैं इसे स्वच्छंदता नहीं कहती, यह निर्लज्जता है। माता-पिता की निर्दयता कम पीड़ाजनक नहीं होती, बल्कि दूसरों का अत्याचार इतना असह्य नहीं होता, जितना माता-पिता का।
प्रभु सेवक-उँह, देखा जाएगा, सिर पर जो आ जाएगी, झेल लूँगा, मरने के पहले ही क्यों रोऊँ?
यह कहकर प्रभु सेवक ने पाँड़ेपुर की घटना बयान की और इतनी डींग मारी कि सोफी चिढ़कर बोली-रहने भी दो, एक गँवार को पीट लिया, तो कौन-सा बड़ा काम किया। अपनी कविताओं में तो अहिंसा के देवता बन जाते हो, वहाँ जरा-सी बात पर इतने जामे से बाहर हो गए!
प्रभु सेवक-गाली सह लेता?
सोफ़िया-जब तुम मारनेवाले को मारोगे, गाली देनेवाले को भी मारोगे, तो अहिंसा का निर्वाह कब करोगे? राह चलते तो किसी को कोई नहीं मारता। वास्तव में किसी युवक को उपदेश करने का अधिकार नहीं है, चाहे उसकी कवित्व-शक्ति कितनी ही विलक्षण हो। उपदेश करना सिध्द पुरुषों ही का काम है। यह नहीं कि जिसे जरा तुकबंदी आ गई, वह लगा शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाने। जो बात दूसरों को सिखलाना चाहते हो, वह पहले स्वयं सीख लो।
प्रभु सेवक-ठीक यही बात विनय ने भी अपने पत्र में लिखी है। लो, याद आ गया। यह तुम्हारा पत्र है। मुझे याद ही न रही थी। यह प्रसंग न आ जाता, तो जेब में रखे ही लौट जाता।
यह कहकर प्रभु सेवक ने एक लिफाफा निकालकर सोफ़िया के हाथ में रख दिया। सोफ़िया ने पूछा-आजकल कहाँ हैं?
प्रभु सेवक-उदयपुर के पहाड़ी प्रांतों में घूम रहे हैं। मेरे नाम जो पत्र आया है, उसमें तो उन्होंने साफ लिखा है कि मैं इस सेवा कार्य के लिए सर्वथा अयोग्य हूँ। मुझमें उतनी सहनशीलता नहीं, जितनी होनी चाहिए। युवावस्था अनुभव-लाभ का समय है। अवस्था प्रौढ़ हो जाने पर ही सार्वजनिक कार्यों में सम्मिलित होना चाहिए। किसी युवक को सेवा-कार्य करने को भेजना वैसा ही है, जैसे किसी बच्चे वैद्य को रोगियों के कष्टनिवारण के लिए भेजना।
प्रभु सेवक चले गए, तो सोफ़िया सोचने लगी-यह पत्र पढूँ या न पढ़ूँ? विनय इसे रानीजी से गुप्त रखना चाहते हैं, नहीं तो यहीं के पते से भेजते? मैंने अभी रानीजी को वचन दिया है, उनसे पत्र-व्यवहार न करूँगी। इस पत्र को खोलना उचित नहीं। रानीजी को दिखा दूँ। इससे उनके मन में मुझ पर जो संदेह है, वह दूर हो जाएगा। मगर न जाने क्या बातें लिखी हैं। सम्भव है, कोई ऐसी बात हो, जो रानी के क्रोध को और भी उत्तोजित कर दे। नहीं, इस पत्र को गुप्त ही रखना चाहिए। रानी को दिखाना मुनासिब नहीं।
उसने फिर सोचा-पढ़ने से क्या फायदा, न जाने मेरे चित्ता की क्या दशा हो। मुझे अब अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा। जब इस प्रेमांकुर को जड़ से उखाड़ना ही है, तो उसे क्यों सीचूँ? इस पत्र को रानी के हवाले कर देना ही उचित है।
सोफ़िया ने और ज्यादा सोच-विचार नहीं किया। शंका हुई, कहीं मैं विचलित न हो जाऊँ। चलनी में पानी नहीं ठहरता।
उसने उसी वक्त वह पत्र ले जाकर रानी को दे दिया। उन्होंने पूछा-किसका पत्र है? यह तो विनय की लिखावट जान पड़ती है। तुम्हारे नाम आया है न? तुमने लिफाफा खोला नहीं?
सोफ़िया-जी नहीं।
रानी ने प्रसन्न होकर कहा-मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ, पढ़ो। तुमने अपना वचन पालन किया, इससे मैं बहुत खुश हुई।
सोफ़िया-मुझे क्षमा कीजिए।
रानी-मैं खुशी से कहती हूँ, पढ़ो; देखो, क्या लिखते हैं?
सोफ़िया-जी नहीं।
रानी ने पत्र ज्यों-का-त्यों संदूक में बंद कर दिया। खुद भी नहीं पढ़ा। कारण, यह नीति-विरुध्द था। तब सोफ़िया से बोली-बेटी, अब मेरी तुमसे एक और याचना है। विनय को एक पत्र लिखो और उसमें स्पष्ट लिख दो, हमारा और तुम्हारा कल्याण इसमें है कि हममें केवल भाई और बहन का सम्बंध रहे। तुम्हारे पत्र से यह प्रकट होना चाहिए कि तुम उनके प्रेम की अपेक्षा उनके जातीय भावों की ज्यादा कद्र करती हो। तुम्हारा यह पत्र मेरे और उनके पिता के हजारों उपदेशों से अधिक प्रभावशाली होगा। मुझे विश्वास है, तुम्हारा पत्र पाते ही उनकी चेष्टाएँ बदल जाएँगी और वह कर्तव्‍य-मार्ग पर सुदृढ़ हो जाएँगे। मैं इस कृपा के लिए जीवन-पर्यंत तुम्हारी आभारी रहँगी।
सोफी ने कातर स्वर में कहा-आपकी आज्ञा पालन करूँगी।
रानी-नहीं, केवल मेरी आज्ञा का पालन करना काफी नहीं है। अगर उससे यह भासित हुआ कि किसी की प्रेरणा से लिखा गया है, तो उसका असर जाता रहेगा।
सोफ़िया-आपको पत्र लिखकर दिखा दूँ?
रानी-नहीं, तुम्हीं भेज देना।
सोफ़िया जब वहाँ से आकर पत्र लिखने बैठी, तो उसे सूझता ही न था कि क्या लिखूँ। सोचने लगी-वह मुझे निर्मम समझेंगे; अगर लिख दूँ, मैंने तुम्हारा पत्र पढ़ा ही नहीं, तो उन्हें कितना दु:ख होगा! कैसे कहूँ कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करती?
वह मेज पर से उठ खड़ी हुई और निश्चय किया, कल लिखूँगी। एक किताब पढ़ने लगी। भोजन का समय हो गया। नौ बज गए। अभी वह मुँह-हाथ धोकर बैठी ही थी कि उसने रानी को द्वार से अंदर की ओर झाँकते देखा। समझी, किसी काम से जा रही होंगी, फिर किताब देखने लगी। पंद्रह मिनट भी न गुजरे थे कि रानी फिर दूसरी तरफ से लौटीं और कमरे में झाँका।
सोफी को उनका यों मँडलाना बहुत नागवार मालूम हुआ। उसने समझा-यह मुझे बिल्कुल काठ की पुतली बनाना चाहती हैं। बस, इनके इशारों पर नाचा करूँ। इतना तो नहीं हो सका कि जब मैंने बंद लिफाफा उनके हाथ में रख दिया, तो मुझे खत पढ़कर सुना देतीं। आखिर मैं लिखूँ क्या? नहीं मालूम, उन्होंने अपने खत में क्या लिखा है? सहसा उसे धयान आया कि कहीं मेरा पत्र उपदेश के रूप में न हो जाए। वह इसे पढ़कर शायद मुझसे चिढ़ जाएँ। अपने प्रेमियों से हम उपदेश और शिक्षा की बातें नहीं, प्रेम और परितोष की बातें सुनना चाहते हैं। बड़ी कुशल हुई, नहीं तो वह मेरा उपदेश-पत्र पढ़कर न जाने दिल में क्या समझते। उन्हें खयाल होता, गिरजा में उपदेश सुनते-सुनते इसकी प्रेम-भावनाएँ निर्जीव हो गई हैं। अगर वह मुझे ऐसा पत्र लिखते, तो मुझे कितना बुरा मालूम होता! आह! मैंने बड़ा धोखा खाया। पहले मैंने समझा था, उनसे केवल आधयात्मिक प्रेम करूँगी। अब विदित हो रहा है कि आधयात्मिक प्रेम या भक्ति केवल धर्म-जगत् ही की वस्तु है। स्त्री -पुरुष में पवित्र प्रेम होना असम्भव है। प्रेम पहले उँगली पकड़कर तुरंत ही पहुँचा पकड़ता है। यह भी जानती हूँ कि यह प्रेम मुझे ज्ञान के ऊँचे आदर्श से गिरा रहा है। हमें जीवन इसलिए प्रदान किया गया है कि सद्विचारों और सत्कार्यों से उसे उन्नत करें और एक दिन अनंत ज्योति में विलीन हो जाएँ। यह भी जानती हूँ कि जीवन नश्वर है, अनित्य है और संसार के सुख अनित्य और नश्वर हैं। यह सब जानते हुए भी पतंग की भाँति दीपक पर गिर रही हूँ। इसीलिए तो कि प्रेम में वह विस्मृति है, जो संयम, ज्ञान और धारणा पर परदा डाल देती है। भक्तजन भी,आधयात्मिक आनंद भोगते रहते हैं, वासनाओं से मुक्त नहीं हो सकते। जिसे कोई बलात् खींचे लिए जाता हो, उससे कहना कि तू मत जा,कितना बड़ा अन्याय है!

पीड़ित प्राणियों के लिए रात एक कठिन तपस्या है। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी, सोफी की उद्विग्नता बढ़ती जाती थी। आधी रात तक मनोभावों से निरंतर संग्राम करने के बाद अंत को उसने विवश होकर हृदय के द्वार प्रेम-क्रीड़ाओं के लिए उन्मुक्त कर दिए, जैसे किसी रंगशाला का व्यवस्थापक दर्शकों की रेल-पेल से तंग आकर शाला का पट सर्वसाधारण के लिए खोल देता है। बाहर का शोर भीतर के मधुर -स्वर-प्रवाह में बाधक होता है। सोफी ने अपने को प्रेम-कल्पनाओं की गोद में डाल दिया। अबाध रूप से उनका आनंद उठाने लगी:
'क्यों विनय, तुम मेरे लिए क्या-क्या मुसीबतें झेलोगे? अपमान, अनादर, द्वेष, माता-पिता का विरोध, तुम मेरे लिए यह सब विपत्ति सह लोगे? लेकिन धर्म? वह देखो, तुम्हारा मुख उदास हो गया। तुम सब कुछ करोगे; पर धर्म नहीं छोड़ सकते। मेरी भी यही दशा है। मैं तुम्हारे साथ उपवास कर सकती हूँ, तिरस्कार, अपमान, निंदा, सब कुछ भोग सकती हूँ, पर धर्म को कैसे त्याग दूँ? ईसा का दामन कैसे छोड़ दूँ?ईसाइयत की मुझे परवा नहीं, वह केवल स्वार्थों का संघटन है; लेकिन उस पवित्र आत्मा से क्योंकर मुँह मोड़ूँ, जो क्षमा और दया का अवतार थी? क्या यह सम्भव नहीं कि मैं ईसा के दामन से लिपटी रहकर भी अपनी प्रेमाकांक्षाओं को तृप्त करूँ? हिंदू-धर्म की उदार छाया में किसके लिए शरण नहीं? आस्तिक भी हिंदू हैं, नास्तिक भी हिंदू हैं, तैंतीस करोड़ देवताओं को माननेवाला भी हिंदू है। जहाँ महावीर के भक्तों के लिए स्थान है, बुध्ददेव के भक्तों के लिए स्थान है, वहाँ क्या ईसू के भक्त के लिए स्थान नहीं है? तुमने मुझे अपने प्रेम का निमंत्रण दिया है, मैं उसे अस्वीकार क्यों करूँ? मैं भी तुम्हारे साथ सेवा-कार्य में रत हो जाऊँगी, तुम्हारे साथ वनों में विचरूँगी, झोंपड़ी में रहूँगी।'
आह, मुझसे बड़ी भूल हुई। मैंने नाहक वह पत्र रानीजी को दे दिया। मेरा पत्र था, मुझे उसके पढ़ने का पूरा अधिकार था। मेरे और उनके बीच प्रेम का नाता है, जो संसार के और सभी सम्बंधों से पवित्र और श्रेष्ठ है। मैं इस विषय में अपने अधिकार को त्यागकर विनय के साथ अन्याय कर रही हूँ। नहीं, मैं उनसे दगा कर रही हूँ। मैं प्रेम को कलंकित कर रही हूँ। उनके मनोभावों का उपहास कर रही हूँ। यदि वह मेरा पत्र बिना पढ़े ही फाड़कर फेंक देते, तो मुझे इतना दु:ख होता कि उन्हें कभी क्षमा न करती। क्या करूँ? जाकर रानीजी से वह पत्र माँग लूँ?उसे देने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं हो सकती। मन में चाहे कितना ही बुरा मानें, पर मेरी अमानत मुझे अवश्य दे देंगी। वह मेरी मामा की भाँति अनुदार नहीं हैं। मगर मैं उनसे माँगू क्यों? वह मेरी चीज है, किसी अन्य प्राणी का उस पर कोई दावा नहीं। अपनी चीज ले लेने के लिए मैं किसी दूसरे का एहसान क्यों उठाऊँ?
ग्यारह बज रहे थे। भवन में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। नौकर-चाकर सब सो गए थे। सोफ़िया ने खिड़की से बाहर बाग की ओर देखा। ऐसा मालूम होता था कि आकाश से दूध की वर्षा हो रही है। चाँदनी खूब छिटकी हुई थी। संगमरमर की दोनों परियाँ, जो हौज के किनारे खड़ी थीं, उसे निस्स्वर संगीत की प्रकाशमयी प्रतिमाओं-सी प्रतीत होती थीं, जिससे सारी प्रकृति उल्लसित हो रही थी।
सोफ़िया के हृदय में प्रबल उत्कंठा हुई कि इसी क्षण चलकर अपना पत्र लाऊँ। वह दृढ़ संकल्प करके अपने कमरे से निकली और निर्भय होकर रानीजी के दीवानखाने की ओर चली। वह अपने हृदय को बार-बार समझा रही थी-मुझे भय किसका है, अपनी चीज लेने जा रही हूँ;कोई पूछे तो उससे साफ-साफ कह सकती हूँ। विनयसिंह का नाम लेना कोई पाप नहीं है।
किंतु निरंतर यह आश्वासन मिलने पर भी उसके कदम इतनी सावधानी से उठते थे कि बरामदे के पक्के फर्श पर भी कोई आहट न होती थी। उसकी मुखाकृति से वह अशांति झलक रही थी, जो आंतरिक दुश्चिंता का चिद्द है। वह सहमी हुई आँखों से दाहिने-बाएँ, आगे-पीछे ताकती जाती थी। जरा-सा भी कोई खटका होता, तो उसके पाँव स्वत: रुक जाते थे और वह बरामदे के खम्भों की आड़ में छिप जाती थी। रास्ते में कई कमरे थे। यद्यपि उनमें अंधोरा था, रोशनी गुल हो चुकी थी, तो भी वह दरवाजे पर एक क्षण के लिए रुक जाती थी, कि कोई उनमें बैठा न हो। सहसा एक टेरियन कुत्ता, जिसे रानीजी बहुत प्यार करती थीं, सामने से आता हुआ दिखाई दिया। सोफी के रोयें खड़ा हो गए। इसने जरा भी मुँह खोला, और सारे घर में हलचल हुई। कुत्तो ने उसकी ओर सशंक नेत्रों से देखा और अपने निर्णय की सूचना देना ही चाहता था कि सोफ़िया ने धीरे से उसका नाम लिया और उसे गोद में उठाकर उसकी पीठ सहलाने लगी। कुत्ता दुम हिलाने लगा, लेकिन अपनी राह जाने के बदले वह सोफ़िया के साथ हो लिया। कदाचित् उसकी पशु-चेतना ताड़ रही थी कि कुछ दाल में काला जरूर है। इस प्रकार पाँच कमरों के बाद रानीजी का दीवानखाना मिला। उसके द्वार खुले हुए थे, लेकिन अंदर अंधोरा था। कमरे में बिजली के बटन लगे हुए थे। उँगलियों की एक अति सूक्ष्म गति से कमरे में प्रकाश हो सकता था। लेकिन इस समय बटन का दबाना बारूद के ढेर में दियासलाई से कम भयकारक न था। प्रकाशसे वह कभी इतनी भयभीत न हुई थी। मुश्किल तो यह थी कि प्रकाश के बगैर वह सफल-मनोरथ भी न हो सकती थी। यही अमृत भी था और विष भी। उसे क्रोध आ रहा था कि किवाड़ों में शीशे क्यों लगे हुए हैं? परदे हैं, वे भी इतने बारीक कि आदमी का मुँह दिखाई देता है। घर न हुआ, कोई सजी हुई दूकान हुई। बिल्कुल अंगरेजी नकल है। और रोशनी ठंडी करने की जरूरत ही क्या थी? इससे तो कोई बहुत बड़ी किफायत नहीं हो जाती।
हम जब किसी तंग सड़क पर चलते हैं, तो हमें सवारियों का आना-जाना बहुत ही कष्टदायक जान पड़ता है। जी चाहता है कि इन रास्तों पर सवारियों के आने की रोक होनी चाहिए। हमारा अख्तियार होता, तो इन सड़कों पर कोई सवारी न आने देते, विशेषत: मोटरों को। लेकिन उन्हीं सड़कों पर जब हम किसी सवारी पर बैठकर निकलते हैं, तो पग-पग पर पथिकों को हटाने के लिए रुकने पर झुँझलाते हैं कि ये सब पटरी पर क्यों नहीं चलते, ख्वामख्वाह बीच में धँसे पड़ते हैं। कठिनाइयों में पड़कर परिस्थिति पर क्रुध्द होना मानव-स्वभाव है।
सोफ़िया कई मिनट तक बिजली के बटन के पास खड़ी रही। बटन दबाने की हिम्मत न पड़ती थी। सारे आँगन में प्रकाश फैल जाएगा,लोग चौंक पड़ेंगे। अंधोरे में सोता हुआ मनुष्य भी उजाला फैलते ही जाग पड़ता है। विवश होकर उसने मेज को टटोलना शुरू किया। दावात लुढ़क गई, स्याही मेज पर फैल गई और उसके कपड़ों पर दाग पड़ गए। उसे विश्वास था कि रानी ने पत्र अपने हैंडबैग में रखा होगा। जरूरी चिट्ठियाँ उसी में रखती थीं। बड़ी मुश्किल से उसे बैग मिला। वह उसमें से एक-एक-पत्र निकालकर अंधोरे में देखने लगी। लिफाफे अधिकांश एक ही आकार के थे, निगाहें कुछ काम न कर सकीं। आखिर इस तरह मनोरथ पूरा न होते देखकर उसने हैंडबैग उठा लिया और कमरे से बाहर निकली। सोचा, मेरे कमरे में अभी तक रोशनी है, वहाँ वह पत्र सहज ही में मिल जाएगा। इसे लाकर फिर यहीं रख दूँगी। लेकिन लौटती बार वह इतनी सावधानी से पाँव न उठा सकी। आती बार वह पग-पग पर इधर-उधर देखती हुई आई थी। अब बड़े वेग से चली जा रही थी,इधर-उधर देखने की फुरसत न थी। खाली हाथ उज्र की गुंजाइश थी। रँगे हुए हाथों के लिए कोई उज्र, कोई बहाना नहीं है।
अपने कमरे में पहुँचते ही सोफ़िया ने द्वार बंद कर दिया और परदे डाल दिए। गरमी के मारे सारी देह पसीने से तर थी, हाथ इस तरह काँप रहे थे, मानो लकवा गिर गया हो। वह चिट्ठियों को निकाल-निकालकर देखने लगी। और पत्रों को केवल देखना ही न था, उन्हें अपनी जगह सावधानी से रखना भी था। पत्रों का एक दफ्तर सामने था, बरसों की चिट्ठियाँ वहाँ निर्वाण सुख भोग रही थीं। सोफ़िया को उनकी तलाशी लेते घंटों गुजर गए, दफ्तर समाप्त होने को आ गया; पर वह चीज न मिली। उसे अब कुछ-कुछ निराशा होने लगी; यहाँ तक कि अंतिम पत्र भी उलट-पलटकर रख दिया गया। तब सोफ़िया ने एक लम्बी साँस ली। उसकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो किसी मेले में अपने खोए हुए बंधु को ढूँढ़ता हो; वह चारों ओर आँखें फाड़-फाड़कर देखता है, उसका नाम लेकर जोर-जोर से पुकारता है, उसे भ्रम होता है;वह खड़ा है, लपककर उसके पास जाता है और लज्जित होकर लौट आता है। अंत में वह निराश होकर जमीन पर बैठ जाता और रोने लगता है।
सोफ़िया भी रोने लगी। वह पत्र कहाँ गया? रानी ने तो उसे मेरे सामने ही इसी बैग में रख दिया था? उनके और सभी पत्र यहाँ मौजूद हैं। क्या उसे कहीं और रख दिया? मगर आशा उस घास की भाँति है, जो ग्रीष्म के ताप से जल जाती है, भूमि पर उसका निशान तक नहीं रहता, धरती ऐसी उज्ज्वल हो जाती है, जैसे टकसाल का नया रुपया; लेकिन पावस की बूँद पड़ते ही फिर जली हुई जड़ें पनपने लगती हैं और उसी शुष्क स्थल पर हरियाली लहराने लगती है।
सोफ़िया की आशा फिर हरी हुई। कहीं मैं कोई पत्र छोड़ तो नहीं गई। उसने दुबारा पत्रों को पढ़ना शुरू किया और ज्यादा धयान देकर। एक-एक लिफाफे को खोलकर देखने लगी कि कहीं रानी ने उसे किसी दूसरे लिफाफे में रख दिया हो। जब देखा कि इस तरह तो सारी रात गुजर जाएगी, तो उन्हीं लिफाफों को खोलने लगी, जो भारी-भारी मालूम होते थे। अंत को यह शंका भी मिट गई। उस लिफाफे का कहीं पता न था। अब आशा की जड़ें भी सूख गईं, पावस की बूँद न मिली।
सोफ़िया चारपाई पर लेट गई, मानो थक गई हो। सफलता में अनंत सजीवता होती है, विफलता में असह्य अशक्ति। आशा मद है, निराशा मद का उतार। नशे में हम मैदान की तरफ दौड़ते हैं, सचेत होकर हम घर में विश्राम करते हैं। आशा जड़ की ओर ले जाती है, निराशा चैतन्य की ओर। आशा आँखें बंद कर देती है, निराशा आँखें खोल देती है। आशा सुलानेवाली थपकी है, निराशा जगानेवाला चाबुक।
सोफ़िया को इस वक्त अपनी नैतिक दुर्बलता पर क्रोध आ रहा था-मैंने व्यर्थ ही अपनी आत्मा के सिर पर यह अपराध मढ़ा। क्या मैं रानी से अपना पत्र न माँग सकती थी? उन्हें उसके देने में जरा भी विलम्ब न होता। फिर मैंने वह पत्र उन्हें दिया ही क्यों? रानीजी को कहीं मेरा यह कपट-व्यवहार मालूम हो गया; और अवश्य ही मालूम हो जाएगा, तो वह मुझे अपने मन में क्या समझेंगी? कदाचित् मुझसे नीच और निकृष्ट कोई प्राणी न होगा।
सहसा सोफ़िया के कानों में झाड़ू लगाने की आवाज आई। वह चौंकी, क्या सबेरा हो गया? परदा उठाकर द्वार खोला, तो दिन निकल आया था। उसकी आँखों में अंधोरा छा गया। उसने बड़ी कातर दृष्टि से हैंडबैग की ओर देखा और मूर्ति के समान खड़ी रह गई। बुध्दि शिथिल हो गई। अपनी दशा और अपने कृत्य पर उसे ऐसा क्रोध आ रहा था कि गरदन पर छुरी फेर लूँ। कौन-सा मुँह दिखाऊँगी? रानी बहुत तड़के उठती हैं, मुझे अवश्य ही देख लेंगी। किंतु अब और हो ही क्या सकता है? भगवन्! तुम दीनों के आधार-स्तम्भ हो, अब लाज तुम्हारे हाथ है। ईश्वर करे, अभी रानी न उठी हों। उसकी इस प्रार्थना में कितनी दीनता, कितनी विवशता, कितनी व्यथा, कितनी श्रध्दा और कितनी लज्जा थी! कदाचित् इतने शुध्द हृदय से उसने कभी प्रार्थना न की होगी!
अब एक क्षण भी विलम्ब करने का अवसर न था। उसने बैग उठा लिया और बाहर निकली। आत्म-गौरव कभी इतना पद-दलित न हुआ होगा। उसके मुँह में कालिख लगी होती है, तो शायद वह इस भाँति आँखें चुराती हुई न जाती! कोई भद्र पुरुष अपराधी के रूप में बेड़ियाँ पहने जाता हुआ भी इतना लज्जित न होगा! जब वह दीवानखाने के द्वार पर पहुँची, तो उसका हृदय यों धड़कने लगा, मानो कोई हथौड़ा चला रहा हो। वह जरा देर ठिठकी, कमरे में झाँककर देखा, रानी बैठी हुई थीं। सोफ़िया की इस समय जो दशा हुई, उसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। वह गड़ गई, कट गई, सिर पर बिजली गिर पड़ती, नीचे की भूमि फट जाती, तो भी कदाचित् वह इस महान् संकट के सामने उसे पुष्प-वर्षा या जल-विहार के समान सुखद प्रतीत होती। उसने जमीन की ओर ताकते हुए हैंडबैग चुपके से ले जाकर मेज पर रख दिया। रानी ने उसकी ओर उस दृष्टि से देखा, जो अंतस्तल पर शर के समान लगती है। उसमें अपमान भरा हुआ था; क्रोध न था, दया न थी, ज्वाला न थी,तिरस्कार था-विशुध्द, सजीव और सशब्द।
सोफ़िया लौटना ही चाहती थी कि रानी ने पूछा-विनय का पत्र ढूँढ़ रही थीं?
सोफ़िया अवाक् रह गई। मालूम हुआ, किसी ने कलेजे में बर्छी मार दी।
रानी ने फिर कहा-उसे मैंने अलग रख दिया है, मँगवा दूँ?
सोफ़िया ने उत्तर न दिया। उसके सिर में चक्कर-सा आने लगा। मालूम हुआ, कमरा घूम रहा है।
रानी ने तीसरा बाण चलाया-क्या यही सत्य की मीमांसा है?
सोफ़िया मूर्छित होकर फर्श पर गिर पड़ी। 

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रचनाएँ
रंगभूमि
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन 1925 में हुआ था। इससे पहले देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1920 ईस्वी में शुरू हुए असहयोग आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रव्यापी पड़ा था। समाज बड़े पैमाने पर जाग्रत हो गया था और भारतीय समाज की अलग-अलग धाराओं, विचारों, धर्मों, जातियों का द्वंद्व अपने चरम पर था। सबसे बढ़कर एक उत्साही युवा वर्ग देश को विदेशी शासन से मुक्त करवाने के लिए उत्साह के साथ सकारात्मक हो गया था। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के पाठ को समझने के लिए भारत की इस तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना जरूरी है। यह उपन्यास महज अपने कैनवस, विजन में ही बड़ा नहीं है बल्कि यह प्रेमचंद का सबसे अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।
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रंगभूमि अध्याय 1

4 फरवरी 2022
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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्ये भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

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रंगभूमि अध्याय 2

4 फरवरी 2022
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सूरदास लाठी टेकता हुआ धीरे-धीरे घर चला। रास्ते में चलते-चलते सोचने लगा-यह है बड़े आदमियों की स्वार्थपरता! पहले कैसे हेकड़ी दिखाते थे, मुझे कुत्तो से भी नीचा समझा; लेकिन ज्यों ही मालूम हुआ कि जमीन मेरी

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रंगभूमि अध्याय 3

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मि. जॉन सेवक का बँगला सिगरा में था। उनके पिता मि. ईश्वर सेवक ने सेना-विभाग में पेंशन पाने के बाद वहीं मकान बनवा लिया था, और अब तक उसके स्वामी थे। इसके आगे उनके पुरखों का पता नहीं चलता, और न हमें उसकी

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रंगभूमि अध्याय 4

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चंचल प्रकृति बालकों के लिए अंधे विनोद की वस्तु हुआ करते हैं। सूरदास को उनकी निर्दय बाल-क्रीड़ाओं से इतना कष्ट होता था कि वह मुँह-अंधोरे घर से निकल पड़ता और चिराग जलने के बाद लौटता। जिस दिन उसे जाने मे

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चतारी के राजा महेंद्रकुमार सिंह यौवनावस्था ही में अपनी कार्य-दक्षता और वंश प्रतिष्ठा के कारण म्युनिसिपैलिटी के प्रधान निर्वाचित हो गए थे। विचारशीलता उनके चरित्र का दिव्य गुण थी। रईसों की विलास-लोलुपता

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धर्मभीरुता में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ एक अवगुण भी है; वह सरल होती है। पाखंडियों का दाँव उस पर सहज ही में चल जाता है। धर्मभीरु प्राणी तार्किक नहीं होता। उसकी विवेचना-शक्ति शिथिल हो जाती है। ताहिर अली

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संध्‍या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ा, इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था औ

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सोफ़िया को इंदु के साथ रहते चार महीने गुजर गए। अपने घर और घरवालों की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला-सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आता; पर कभी उससे घर का कुशल-समा

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सोफ़िया इस समय उस अवस्था में थी, जब एक साधारण हँसी की बात, एक साधारण आँखों का इशारा, किसी का उसे देखकर मुस्करा देना, किसी महरी का उसकी आज्ञा का पालन करने में एक क्षण विलम्ब करना, ऐसी हजारों बातें, जो

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बालकों पर प्रेम की भाँति द्वेष का असर भी अधिक होता है। जबसे मिठुआ और घीसू को मालूम हुआ था कि ताहिर अली हमारा मैदान जबरदस्ती ले रहे हैं, तब से दोनों उन्हें अपना दुश्मन समझते थे। चतारी के राजा साहब और स

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भैरों पासी अपनी माँ का सपूत बेटा था। यथासाधय उसे आराम से रखने की चेष्टा करता रहता था। इस भय से कि कहीं बहू सास को भूखा न रखे, वह उसकी थाली अपने सामने परसा लिया करता था और उसे अपने साथ ही बैठाकर खिलाता

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प्रभु सेवक ताहिर अली के साथ चले, तो पिता पर झल्लाए हुए थे-यह मुझे कोल्हू का बैल बनाना चाहते हैं। आठों पहर तम्बाकू ही के नशे में डूबा पड़ा रहूँ, अधिकारियों की चौखट पर मस्तक रगड़ूँ, हिस्से बेचता फिरूँ,

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विनयसिंह के जाने के बाद सोफ़िया को ऐसा प्रतीत होने लगा कि रानी जाह्नवी मुझसे खिंची हुई हैं। वह अब उसे पुस्तकें तथा पत्र पढ़ने या चिट्ठियाँ लिखने के लिए बहुत कम बुलातीं; उसके आचार-व्यवहार को संदिग्ध दृ

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सोफ़िया को होश आया तो वह अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई थी। कानों में रानी के अंतिम शब्द गूँज रहे थे-क्या यही सत्य की मीमांसा है? वह अपने को इस समय इतनी नीच समझ रही थी कि घर का मेहतर भी उसे गालियाँ

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राजा महेंद्रकुमार सिंह यद्यपि सिध्दांत के विषय में अधिकारियों से जौ-भर भी न दबते थे; पर गौण विषयों में वह अनायास उनसे विरोध करना व्यर्थ ही नहीं, जाति के लिए अनुपयुक्त भी समझते थे। उन्हें शांत नीति पर

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रंगभूमि अध्याय 16

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अरावली की पहाड़ियों में एक वट-वृक्ष के नीचे विनयसिंह बैठे हुए हैं। पावस ने उस जन-शून्य, कठोर, निष्प्रभ, पाषाणमय स्थान को प्रेम,प्रमोद और शोभा से मंडित कर दिया है, मानो कोई उजड़ा हुआ घर आबाद हो गया हो।

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रंगभूमि अध्याय 17

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विनयसिंह छ: महीने से कारागार में पड़े हुए हैं। न डाकुओं का कुछ पता मिलता है और न उन पर अभियोग चलाया जाता है। अधिकारियों को अब भी भ्रम है कि इन्हीं के इशारे से डाका पड़ा था। इसीलिए वे उन पर नाना प्रकार

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रंगभूमि अध्याय 18

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सोफ़िया घर आई, तो उसके आत्मगौरव का पतन हो चुका था; अपनी ही निगाहों में गिर गई थी। उसे अब न रानी पर क्रोध था, न अपने माता-पिता पर। केवल अपनी आत्मा पर क्रोध था, जिसके हाथों उसकी इतनी दुर्गति हुई थी, जिस

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रंगभूमि अध्याय 19

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सोफ़िया अपनी चिंताओं में ऐसी व्यस्त हो रही थी कि सूरदास को बिल्कुल भूल-सी गई थी। उसकी फरियाद सुनकर उसका हृदय काँप उठा। इस दीन प्राणी पर इतना घोर अत्याचार! उसकी दयालु प्रकृति यह अन्याय न सह सकी। सोचने

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रंगभूमि अध्याय 20

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मि. क्लार्क ने मोटर से उतरते ही अरदली को हुक्म दिया-डिप्टी साहब को फौरन हमारा सलाम दो। नाजिर, अहलमद और अन्य कर्मचारियों को भी तलब किया गया। सब-के-सब घबराए-यह आज असमय क्यों तलबी हुई, कोई गलती तो नहीं प

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रंगभूमि अध्याय 22

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सैयद ताहिर अली को पूरी आशा थी कि जब सिगरेट का कारखाना बनना शुरू हो जाएगा, तो मेरी कुछ-न-कुछ तरक्की हो जाएगी। मि. सेवक ने उन्हें इसका वचन दिया था। इस आशा के सिवा उन्हें अब तक ऋणों को चुकाने का कोई उपाय

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रंगभूमि अध्याय 23

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अब तक सूरदास शहर में हाकिमों के अत्याचार की दुहाई देता रहा, उसके मुहल्ले वाले जॉन सेवक के हितैषी होने पर भी उससे सहानुभूति करते रहे। निर्बलों के प्रति स्वभावत: करुणा उत्पन्न हो जाती है। लेकिन सूरदास क

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रंगभूमि अध्याय 24

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सूरदास की जमीन वापस दिला देने के बाद सोफ़िया फिर मि. क्लार्क से तन गई। दिन गुजरते जाते थे और वह मि. क्लार्क से दूरतर होती जाती थी। उसे अब सच्चे अनुराग के लिए अपमान, लज्जा, तिरस्कार सहने की अपेक्षा कृत

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रंगभूमि अध्याय 25

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साल-भर तक राजा महेंद्रकुमार और मिस्टर क्लार्क में निरंतर चोटें चलती रहीं। पत्र का पृष्ठ रणक्षेत्र था और शृंखलित सूरमों की जगह सूरमों से कहीं बलवान् दलीलें। मनों स्याही बह गई, कितनी ही कलमें काम आईं। द

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रंगभूमि अध्याय 26

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अरावली की हरी-भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा है, जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूध की धारें, प्रेमोद्गार से विकल, उबलती, मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बा

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रंगभूमि अध्याय 27

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नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रध्दा हो गई। किसी को तम्बाकू मलकर खिलाते, किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुसाफिर को देखते, जगह न

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रंगभूमि अध्याय 28

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सोफिया के चले जाने के बाद विनय के विचार-स्थल में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। मन एक भीरु शत्रु है, जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है। जब तक सोफी सामने बैठी थी, उसे सामने आने का साहस न हुआ। सोफी क

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रंगभूमि अध्याय 29

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मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते

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रंगभूमि अध्याय 30

4 फरवरी 2022
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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्यि भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहान

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रंगभूमि अध्याय 31

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भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले-सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्यों पड़

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रंगभूमि अध्याय 32

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सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्ता चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी। इंद्रदत्ता-तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है या नहीं? प्रभु सेवक-सर्वथा निर्

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रंगभूमि अध्याय 33

4 फरवरी 2022
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फैक्टरी करीब-करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगीं। पहले तो मजदूर-मिस्त्री आदि प्राय: मिल के बरामदों ही में रहते थे, वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोते; लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, तो मु

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रंगभूमि अध्याय 34

4 फरवरी 2022
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प्रभु सेवक ने घर आते ही मकान का जिक्र छेड़ दिया। जान सेवक यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि अब इसने कारखाने की ओर धयान देना शुरू किया। बोले-हाँ, मकानों का बनना बहुत जरूरी है। इंजीनियर से कहो, एक नक्शा बनाए

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रंगभूमि अध्याय 35

4 फरवरी 2022
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विनयसिंह आबादी में दाखिल हुए, तो सबेरा हो गया था। थोड़ी दूर चले थे कि एक बुढ़िया लाठी टेकती सामने से आती हुई दिखाई दी। इन्हें देखकर बोली-बेटा, गरीब हूँ। बन पडे, तो कुछ दे दो। धरम होगा। नायकराम-सवेरे

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रंगभूमि अध्याय 36

4 फरवरी 2022
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मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिर अली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थी, जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब था, ओवरसियर और छोटे-छोटे क्लर्क उ

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रंगभूमि अध्याय 37

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प्रभु सेवक बड़े उत्साही आदमी थे। उनके हाथ से सेवक-दल में एक नई सजीवता का संचार हुआ। संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी। जो लोग शिथिल और उदासीन हो रहे थे, फिर नए जोश से काम करने लगे। प्रभु सेवक की सज्जनता और सहृ

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रंगभूमि अध्याय 38

4 फरवरी 2022
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सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गए, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाल

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रंगभूमि अध्याय 40

4 फरवरी 2022
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मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थ

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रंगभूमि अध्याय 41

4 फरवरी 2022
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प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भा

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रंगभूमि अध्याय 42

4 फरवरी 2022
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अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दिया, तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी होने लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्या, आस-पास के गाँववाले भी दो-चार खोटी-खरी सुना

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रंगभूमि अध्याय 43

4 फरवरी 2022
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सोफिया के धार्मिक विचार, उसका आचार-व्यवहार, रहन-सहन, उसकी शिक्षा-दीक्षा, ये सभी बातें ऐसी थीं, जिनसे एक हिंदू महिला को घृणा हो सकती थी। पर इतने दिनों के अनुभव ने रानीजी की सभी शंकाओं का समाधान कर दिया

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रंगभूमि अध्याय 44

4 फरवरी 2022
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गंगा से लौटते दिन के नौ बज गए। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सबेरा हो गया था। लौटते हुए जाह्नव

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रंगभूमि अध्याय 45

4 फरवरी 2022
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पाँड़ेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे। उनके उपलों के जलने से चारों तरफ धुआँ छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के ख्रडहर भयानक मालूम होते थे। यहाँ अब भी दिन में दर्शकों की भीड़ रहती थी। नगर मे

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रंगभूमि अध्याय 46

4 फरवरी 2022
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चारों आदमी शफाखाने पहुँचे, तो नौ बज चुके थे। आकाश निद्रा में मग्न, आँखें बंद किए पड़ा हुआ था, पर पृथ्वी जाग रही थी। भैरों खड़ा सूरदास को पंखा झल रहा था। लोगों को देखते ही उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।

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रंगभूमि अध्याय 47

4 फरवरी 2022
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संधया हो गई थी। मिल के मजदूर छुट्टी पा गए थे। आजकल दूनी मजदूरी देने पर भी बहुत थोड़े मजदूर काम करने आते थे। पाँड़ेपुर में सन्नाटा छाया हुआ था। वहाँ अब मकानों के भग्नावशेष के सिवा कुछ नजर न आता था। हाँ

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रंगभूमि अध्याय 48

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काशी के म्युनिसिपल बोर्ड में भिन्न-भिन्न राजनीतिक सम्प्रदायों के लोग मौजूद थे। एकवाद से लेकर जनसत्तावाद तक सभी विचारों के कुछ-न-कुछ आदमी थे। अभी तक धन का प्राधान्य नहीं था, महाजनों और रईसों का राज्य थ

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रंगभूमि अध्याय 49

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इधर सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा था, उधर कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रित हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला-स्थापना की प्रार्थना क

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रंगभूमि अध्याय 50

4 फरवरी 2022
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कुँवर विनयसिंह की वीर मृत्यु के पश्चात रानी जाह्नवी का सदुत्साह दुगुना हो गया। वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गईं। उनके रोम-रोम में असाधारण स्फूर्ति का विकास हुआ। वृध्दावस्था की आलस्यप्रियता यौवन

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